जब एमसीडी चुनाव में साफ-सफाई, सड़कें, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार और पार्षदों का नाकारापन मुद्दा नहीं बना तभी यह बात साफ हो गई थी कि भाजपा चुनाव में जीत हासिल कर चुकी है.
दिल्ली नगर पालिका (एमसीडी) चुनाव में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत हासिल की है. उसे यह जीत एमसीडी के उसके दस साल की एंटी इनकंबेंसी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बीच मिली है.
अब हाल ये है कि हर साल डेंगू-चिकनगुनिया की चपेट में आने वाली दिल्ली में जगह-जगह फैले कचरे को पार करता भाजपा का कमल निशान वाला भगवा झंडा नगर निगम के दफ्तरों पर फिर से लहराने लगा है.
यह जीत ऐतिहासिक इस मायने में है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी यह बात मानकर बैठा था कि पिछले दस सालों में उन्होंने कोई काम नहीं किया है. भाजपा पार्षदों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप करेला ऊपर से नीम चढ़ा की कहावत को चरितार्थ कर रहे थे.
इसके लिए पार्टी ने अपने सभी पार्षदों को टिकट न देने का फैसला लिया, लेकिन भाजपा को पता था सिर्फ इतने से उसका काम नहीं बनने वाला है. क्योंकि एमसीडी चुनाव में उसका सीधा मुकाबला दो साल पहले 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में धूल चटा चुकी आम आदमी पार्टी से था.
दिल्ली के मतदाता विधानसभा चुनाव में दिल से अरविंद केजरीवाल पर मेहरबान दिखे. दिल्ली की 70 सीटों में से 67 सीटें आप की झोली में थीं.
ऐसे में भाजपा ने वहीं फॉर्मूला अपनाया जिसमें उनकी मास्टरी रही है. पूरे नगर पालिका चुनाव के दौरान उन्होंने कभी जरूरी मुद्दों पर बात ही नहीं करने दी.
जब एमसीडी चुनाव में साफ-सफाई, सड़कें, स्वास्थ्य, भाजपा का दस साल का भ्रष्टाचार और पार्षदों का नाकारापन मुद्दा नहीं बना तभी यह साफ हो गया था कि भाजपा चुनाव में जीत हासिल कर चुकी है.
कभी भावनाओं पर लोगों के वोटों के जरिये कांग्रेस ने राज किया था लेकिन अब राम मंदिर आंदोलन के बाद से भाजपा ने इसमें पीएचडी कर ली है.
सर्जिकल स्ट्राइक, अंधराष्ट्रवाद, गोरक्षा अभियान, उग्र हिंदुत्व आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनसे आम जनता का भला हो या ना हो, भाजपा का भला जरूर हो जाता है.
इस अभियान का फायदा यह हुआ कि दिल्ली की वो जनता जिसे भाजपा के दस साल के कार्यकाल और एमसीडी की बीमार हालत पर सवाल पूछना चाहिए था वो उल्टे भाजपा को मजबूत करने में जुट गई.
इस अभियान में उसको और नफा तब हो गया जब कांग्रेस और आप भी इसमें शामिल हो गए. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस अपनी गुटबाजी से निपट पाने में नाकाम रही है.
अजय माकन के पास दिल्ली कांग्रेस की कमान थी, लेकिन वह प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरविंद सिंह लवली और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जैसे वरिष्ठ नेताओं को साथ ला पाने में नाकाम रहे. हालत यह हो गई कि चुनाव के बीच में लवली कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए.
टिकट बंटवारे के बाद बड़ी संख्या में असंतोष उभरकर सामने आ गया. बड़े नेताओं ने चुनाव प्रचार में कोई रुचि नहीं दिखाई. शीला दीक्षित ने हार के बाद बयान दिया कि मुझे किसी ने चुनाव प्रचार के लिए नहीं कहा.
तीन बार दिल्ली की ही मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित का एमसीडी चुनाव प्रचार में शामिल न होना कांग्रेस की रणनीतिक बेवकूफी को दिखाता है. बेवकूफी इसलिए कि जिस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाकर भेजा था उसे यह नहीं लगा कि वो दिल्ली की 15 साल तक लगातार मुख्यमंत्री रही शीला का चुनाव में कोई सदुपयोग कर सकती है.
ऐसे में ये समझा जा सकता है जिस पार्टी की राजनीतिक तैयारी इतनी लचर और कमज़ोर हो वो भाजपा जैसी पार्टी का कैसे मुकाबला करती.
दूसरी ओर, आम आदमी पार्टी से भी यही गलती हो गई. उन्होंने चुनाव प्रचार की शुरुआत एमसीडी में पिछले दस साल के दौरान भाजपा की विफलता से की लेकिन अंत तक आते-आते उनकी सुई ईवीएम पर आकर अटक गई. स्थिति यह हो गई कि उनके नेता यह कहते सुने गए कि जीत गए तो जनता की जीत, अगर हार गए तो ईवीएम वजह होगी.
यही कारण है कि पूरे चुनाव के दौरान आप की तरफ से जो मुद्दा सबसे ज्यादा चर्चा में रहा वो ईवीएम था. जिस समय पार्टी को भाजपा के दस साल के शासन की गड़बड़ियों, भ्रष्टाचार और नाकामी को उजागर करते हुए उसके पास जनता के पास जाना चाहिए था उस समय वो ईवीएम का जाप कर रही थी.
पार्टी ने जनता के सामने ऐसा कोई ब्लूप्रिंट रखा ही नहीं जिसके आधार पर वो उनसे कह सके कि आप हमें वोट दें, हम यह बदलाव लाएंगे. जबकि पार्टी के पास खुद पिछले विधानसभा का अपना अनुभव था जहां उसने दिल्ली डायलॉग, डोर टू डोर कैंपेन, मोहल्ला सभा समेत अन्य विभिन्न तरीकों से जनता तक अपनी बात पहुंचाने का काम किया था.
यहां एक बात और उल्लेखनीय है कि पिछले विधानसभा चुनाव के समय जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा का प्रचार करते हुए विधानसभा चुनाव को राष्ट्रीय मामलों से जोड़ने की कोशिश कर रहे थे तब भी आप ने अपना पूरा प्रचार और पूरा फोकस स्थानीय मुद्दों पर ही बनाए रखा. वो भाजपा के जाल में नहीं फंसी.
अंत में मीडिया की भूमिका ने भाजपा का साथ बखूबी निभाया. एक ज़िम्मेदार चौथे खंभे की भूमिका लोकतंत्र में मतदाताओं को जागरूक करने की होती है.
उसका कर्तव्य होता है कि वो बताए कि पिछले पांच या दस सालों में सत्तारूढ़ दल ने कौन सा काम किया है और क्या काम नहीं किया है, ताकि मतदाता योग्य उम्मीदवारों और सही दल का चुनाव कर सकें लेकिन दिल्ली के मीडिया की निगाह भाजपा पार्षदों के नाकारापन और भ्रष्टाचार पर नहीं गई. ये अलग बात है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को यह दिख गया था. यही कारण है कि उन्होंने अपने किसी भी मौजूदा पार्षद को टिकट नहीं दिया.
अब जब जनता ने मुद्दों के बजाय भावनाओं पर वोट दिया है तो ‘जीत के लिए कुछ भी करेगा’ के फॉर्मूले पर विजय हासिल कर चुकी भाजपा के सामने यह चुनौती है कि वह उनकी उम्मीदों पर खरी उतरे.