भारत और पाकिस्तान के बीच उपजे तनाव को लेकर 500 से ज़्यादा लोगों ने शांति की अपील की है. इन लोगों में छात्र, शिक्षक, अर्थशास्त्री, पत्रकार, वकील, उद्यमी, लेखक, कलाकार, फोटोग्राफर, भौतिक विज्ञानी, पूर्व नौकरशाह, कूटनीतिज्ञ, जज और सेना के पूर्व अधिकारी शामिल हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव और इसके इर्द-गिर्द पनपते असहिष्णुता के माहौल से देश के नागरिक चिंतित हैं.
14 फरवरी 2019 को पुलवामा में आतंकवाद के जिस कृत्य ने सीआरपीएफ के 40 से अधिक जवानों की जान ले ली उसे किसी भी तर्क से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. पाकिस्तान की छिपी शह पर कश्मीर में हथियारबंद समूह जो बरसों से इस तरह के हमले करते आ रहे हैं उसे भी किसी कोण से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.
बहरहाल, इस घटना पर भारत की प्रतिक्रिया अपनी कथनी और करनी में अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुकूल होनी चाहिए. प्रतिक्रिया ज़िम्मेदारी भरी होनी चाहिए और दो परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों के बीच सशस्त्र संघर्ष की स्थिति से जो जोख़िम जुड़े हैं, उनका ध्यान रखा जाना चाहिए.
पूरी दुनिया में कहीं भी देखें- वहां युद्ध का इतिहास बताता है कि सशस्त्र संघर्ष बड़ी आसानी और तेज़ी से बढ़ते हुए इतना विकराल रूप धारण कर सकता है जितना कि उसके बारे में शुरुआती तौर पर कभी सोचा ही ना गया था.
यहां याद करें कि प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत हत्या की सिर्फ एक घटना से हुई और फिर घात-प्रतिघात का एक सिलसिला बनता चला गया जिसने आख़िरकार लाखों लोगों के जीवन की बलि ले ली.
इसी तरह, भारत और पाकिस्तान के बीच अभी ‘सुरक्षित’ जान पड़ता घात-प्रतिघात का सिलसिला बड़ी आसानी से बढ़कर विकराल युद्ध का रूप ले सकता है, शायद नौबत एटमी जंग तक की आ जाए और ऐसे में दोनों ही पक्ष के लिए बड़े विध्वंसक परिणाम हो सकते हैं.
अगर तकरार सीमित स्तर का हो तब भी उससे कुछ भी हल नहीं वाला- न तो उससे भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव में कमी आएगी और न ही उससे कश्मीर-विवाद का समाधान निकलेगा. इसके उलट, सीमित स्तर की तकरार से तनाव और ज़्यादा बढ़ेगा और संघर्ष के समाधान की प्रक्रिया में विलंब होगा.
इस संघर्ष का मुख्य शिकार कश्मीर की आम जनता है जिसने बीते सालों में भारी कठिनाइयां झेली हैं जिसमें मानवाधिकारों का उल्लंघन भी शामिल हैं.
हाल के दिनों में देश के कई हिस्सों में कश्मीरी लोगों को क्रूर हमले का निशाना बनाया गया है. अगर संघर्ष तीव्रतर होता है तो अन्य अल्पसंख्यक भी इस बैरभाव की चपेट में आ सकते हैं.
दोनों देशों के बीच जारी संघर्ष के शिकार लोगों में सेना तथा अर्द्धसैन्य-बल के हज़ारों जवान भी शामिल हैं. ये मुख्य रूप से समाज के वंचित तबके से आते हैं और कश्मीर में इन जवानों को बड़ी कठिन परिस्थितियों में अपने दायित्व का भार वहन करना पड़ता है. टकराव के बढ़ने पर इन जवानों को और ज़्यादा ख़तरे का सामना करना पड़ सकता है.
दुश्मनी का जो माहौल जारी है उसकी चपेट में एक तरह से देखें तो पूरी भारतीय जनता है क्योंकि इसमें हमें अपना बहुमूल्य वित्तीय और मानव-संसाधन खपाना पड़ता है, जबकि इन संसाधनों का इस्तेमाल बेहतर उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. शायद, सबसे बड़ी राष्ट्रीय क्षति हमारे लोकतंत्र की हो रही है, लोकतंत्र कमज़ोर हो रहा है- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के स्वर मंद पड़ रहे हैं.
दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी स्थिति के बीच पनपते अंध-राष्ट्रीयता के माहौल में ये सीधी-सरल सच्चाइयां ढंक गई हैं. शांतिपूर्ण समाधान की युक्तिसंगत मांग को भी राष्ट्र-विरोधी भावना का नाम दिया जा रहा है.
हम लोग दोनों ही देश की सरकार से अपील करते हैं कि प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रीति से दुश्मनी के भाव को ज़्यादा तूल देने से परहेज़ करें और अपनी असहमति के मुद्दों को अंतरर्राष्ट्रीय कानून तथा मानवाधिकारों की हदों में रहते हुए सुलझाएं.