आम महिलाओं के रोज़मर्रा का संघर्ष महिला सशक्तिकरण की कहानियों में जगह क्यों नहीं बना पाता?
अमूमन ऐसा होता है कि महिला सशक्तिकरण का ज़िक्र छिड़ते ही हमारे ज़ेहन में उन सफल महिलाओं की तस्वीरें उभरने लगती हैं, जो या तो किसी मल्टीनेशनल कंपनी की सीईओ हैं या कोई बड़ी सामाजिक कार्यकर्ता या फिर कोई सेलिब्रेटी.
हम क्यों सब्ज़ी बेचने वाली किसी महिला, घरेलू कामगार, महिला कैब ड्राइवर या मज़दूरी करने वाली किसी महिला को सशक्तिकरण से जोड़कर देखने के आदी नहीं हैं? क्यों इन महिलाओं के संघर्ष चकाचौंध भरी महिलाओं की उपलब्धियों के नीचे दबकर रह जाते हैं.
हम ऐसी ही कुछ महिलाओं का ज़िक्र करने जा रहे हैं, जिन्होंने महिला सशक्तिकरण की नई परिभाषा गढ़ी और पुरुष प्रधान समाज की तमाम बंदिशों को चुनौती देते हुए अपनी राह ख़ुद बनाई.
नई दिल्ली के संगम विहार इलाके में रहने वाली मधु टाक ऐसी ही महिलाओं में से एक हैं, जो शराबी पति की मारपीट से तंग आकर पति से अलग हो गईं और घरों में साफ-सफाई का काम कर अपने तीनों बच्चों को पालना शुरू कर दिया.
मधु (42) कहती हैं, ‘पता है मैडम दिक्कत क्या है मर्द समझता है कि औरत उसके बिना कुछ कर नहीं सकती लेकिन जिस दिन औरत यह समझ जाएगी कि वह ख़ुद को और अपने परिवार को पाल सकती है, उसकी आधी परेशानी ख़त्म हो जाएगी.’
उन्होंने कहा, ‘मेरे तीन बच्चे हैं, बड़ी बेटी 21 साल की है, पति ने शराब के लिए बच्चों की पढ़ाई बीच में छुड़वा दी थी लेकिन अब मैंने अपने बच्चों का स्कूल में दोबारा दाख़िला करा दिया है. अब ज़्यादा घरों में काम करने लगी हूं ताकि बच्चों की अच्छी परवरिश कर सकूं.’
अपने दम पर बच्चों की परवरिश को लेकर समाज के रवैये के बारे में पूछे जाने पर वह कहती हैं, ‘मैं रोज़ सुबह अंधेरे में ही काम के लिए निकलती हूं और अंधेरा होने पर ही घर पहुंचती हूं, आस-पड़ोस के लोग बातें तो बनाते हैं लेकिन किसी को मेरा संघर्ष नज़र नहीं आता.’
गुजरात के सूरत की रहने वाली हर्षिका पांड्या का संघर्ष भी मधु से अलग नहीं है. ऐसे समाज में जहां महिलाओं को रात के आठ बजे तक घर आने की नसीहत दी जाती है, हर्षिका देर रात तक फूड डिलीवर कर समाज द्वारा महिलाओं पर लगाए गए इस अघोषित कर्फ्यू को चुनौती दे रही है.
सूरत में फूड डिलीवर करने वाली एक कंपनी से जुड़ीं हर्षिका (37) कहती हैं, ‘मुझे याद है जब मेरे आस-पड़ोस के लोगों को पता चला था कि मैं घर-घर जाकर खाना डिलीवर करने का काम करती हूं तो वे मुझे भौंहें चढ़ाकर देखते थे, मेरे बारे में कानाफूसी होती थी, मेरे घर पर आकर लोग मेरी मां को ताने मारकर जाते थे, यहां तक बोला जाता था कि मैं धंधा करती हूं इसलिए देर रात एक बजे तक घर आती हैं.’
वे कहती हैं, ‘लेकिन मैंने ठान लिया था कि इन तानों से तंग आकर मैं अपना काम नहीं छोड़ूंगी. मेरी मां ख़ुद परेशान रहती थीं, उन्हें लगता था कि देर रात तक काम करना लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है लेकिन अब वे ज़्यादा चिंता नहीं करती.’
उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले के एक छोटे से गांव भड़ल की रहने वाली रेखा राणा परिवार और समाज के विरोध के बावजूद उच्च शिक्षा हासिल करने वाली गांव की पहली लड़की बनीं.
रेखा ने अपनी मेहनत और लगन से न सिर्फ़ पीएचडी की उपाधि हासिल की बल्कि गांव की कई लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा के रास्ते भी खोले लेकिन रेखा का यह सफ़र इतना आसान नहीं था. भाई की तमाम बंदिशों को तोड़कर और समाज के तानों को दरकिनार कर रेखा ने एक लंबा संघर्ष किया है.
रेखा की छह बहनें और एक भाई हैं. पढ़ाई को लेकर उनका भाई उनके साथ काफी मारपीट करता था. वह नहीं चाहता था कि रेखा घर से बाहर निकलें. रेखा प्रतियोगी परीक्षाओं का फॉर्म भरतीं तो उन्हें भाई की हिंसा का सामना करना पड़ता.
इतना ही नहीं जब उनके भाई की शादी हुई तो उन्होंने रेखा को घर से भी निकाल दिया. रेखा अब कुछ-कुछ दिन अपनी बहनों के यहां रहकर गुज़ारा कर रही हैं.
रेखा कहती हैं, ‘पिता की मौत के बाद मेरे भाई ने मुझे घर से निकाल दिया था. मैं बिना आर्थिक मदद और सहारे के सालों तक अपनी रिश्तेदारी में भटकती रही लेकिन कुछ बहनों और दोस्तों की मदद से मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी.’
वे कहती हैं, ‘आज मेरे गांव की कई लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल कर रही हैं, जिसे देखकर लगता है कि मैं कहीं न कहीं इस बदलाव को लाने में सफल रही हूं लेकिन आज भी मैं इसी तरह की विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रही हूं.’
महिलाओं की इसी जमात में एक और नाम है एलिना जॉर्ज, जो दिल्ली की तिहाड़ जेल के क़ैदियों के जीवन में सुधार का बीड़ा उठाए हुए हैं. समृद्ध परिवार से ताल्लुक़ रखनी वाले एलिना ने क़ैदियों के जीवन में सुधार को चुना.
कैदियों के जीवन में सुधार के लिए प्रोजेक्ट सेकंड चांस से जुड़ीं एलिना कहती हैं, ‘मैं हमेशा से तिहाड़ जेल के कैदियों के जीवन को क़रीब से देखना चाहती थी. उनके जीवन में सुधार की चाह मेरे मन में शुरू से थी. शुरुआत में अन्य महिलाओं की तरह मेरे मन में भी जेल को लेकर डर और कौतूहल था. इस बीच मैंने पुरुष क़ैदियों को पढ़ाना शुरू किया और उनमें बदलाव का माध्यम बनी.
मूल रूप से केरल की रहने वाली एलिना जॉर्ज कहती हैं, ‘वैसे तो मेरा परिवार बहुत सपोर्टिंव रहा है लेकिन उनमें भी जेल को लेकर कई तरह के डर और भ्रांतियां थीं. मुझे लगता है कि महिलाओं को उन क्षेत्रों से जुड़ना चाहिए, जिसे लेकर उनके मन में हिचकिचाहट है. मुझे खुशी है कि मैंने जेल के भीतर पुरुष क़ैदियों को पढ़ाकर इस नज़रिये को तोड़ा है.’
ऐसा ही एक और धारणा तोड़ने वाली हैं दिल्ली की शन्नो बेगम, जिनके नाम दिल्ली की पहली महिला कैब ड्राइवर होने का तमगा है. आमतौर पर माना जाता है कि महिलाएं अच्छी ड्राइविंग नहीं कर सकतीं लेकिन एक कैब कंपनी से जुड़ीं शन्नो (40) ने एक साथ कई धारणाएं तोड़ी हैं.
शन्नो कहती हैं, ‘हमारे देश में औरत होना आसान नहीं है और अगर औरत मुस्लिम हो तो दिक्कतें और बढ़ जाती हैं. मैंने शादी से पहले पिता और शादी के बाद पति से जुड़े अपने वजूद से हटकर भी अपनी पहचान बनाई है, जिसे मैं अपनी उपलब्धि मानूंगी.’