अयोध्या विवाद: क्या मध्यस्थता या कोई भी सुलहनामा किसी के क़ानूनी हक़ों का विकल्प बन सकता है?

अयोध्या विवाद का साल दर साल तार्किक परिणति से दूर और लाइलाज होते जाना जहां देश की व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के ख़िलाफ़ बड़ी टिप्पणी है, वहीं न्यायपालिका के ख़िलाफ़ भी है, जिसने इन दोनों की ही तरह विवाद के ख़ात्मे के लिए ज़रूरी जीवट और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया.

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(फोटो: पीटीआई)

अयोध्या विवाद का साल दर साल तार्किक परिणति से दूर और लाइलाज होते जाना जहां देश की व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के ख़िलाफ़ बड़ी टिप्पणी है, वहीं न्यायपालिका के ख़िलाफ़ भी है, जिसने इन दोनों की ही तरह विवाद के ख़ात्मे के लिए ज़रूरी जीवट और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

अयोध्या में रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में इसी हफ्ते शुरू होने जा रही मध्यस्थता की ‘ऑन कैमरा, लेकिन गोपनीय’ प्रक्रिया के सिलसिले में सबसे अच्छी बात यह है कि इसकी मीडिया कवरेज नहीं होगी.

इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि न उसे प्रचार पाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा और न सस्ती लोकप्रियता के लिए अपनाये जाने वाले अड़ियल रवैये या बड़बोले बयानों से ऐसे अंधे मोड़ तक ले जाया जा सकेगा, जिसके आगे कोई राह ही न दिखती हो.

यह और बात है कि इसके बावजूद इस प्रक्रिया के राजनीतिक दुरुपयोग पर पूरी तरह लगाम लगा पाना मुश्किल लगता है. चुनाव आयोग की सारी उदारता के बावजूद सेना की कार्रवाइयों का राजनीतिक दुरुपयोग ही कहां रूक रहा है?

बहुत संभव है कि न्यायालय ने इस प्रक्रिया को गोपनीय रखने का आदेश इसी तथ्य के मद्देनजर दिया हो कि विवाद का इतिहास गवाह है- जब भी उसे सुलझाने के लिए पंच फैसले की कोशिश हुई, एक पक्ष ने, यकीनन, प्रचार में बढ़त पाने और राजनीतिक उद्देश्यों के ही लिए, दूसरे के पूर्ण आत्मसमर्पण से कुछ भी कम स्वीकारने से मना कर दिया।

जबकि सच तो यह है कि सुलह और समझौते तभी मुमकिन होते और लंबी उम्र पाते हैं जब वे परस्पर बराबरी और लेन-देन की भावना से किये जायें.  लेकिन प्रक्रिया की सबसे बुरी बात पर जायें तो वह यह है कि भले ही अभी किसी पक्ष ने उसके खुले विरोध का रास्ता नहीं अपनाया है और ज्यादातर का रवैया सकारात्मक है, लेकिन किसी को भी उसके सफल होने की ज्यादा उम्मीद नहीं है.

दबी जुबान से ही सही असहमतियां और ऐतराज भी सिर उठाने लगे हैं, जो मध्यस्थों की निष्पक्षता पर सवाल उठाने तक जा पहुंचे हैं.

उनमें से एक श्री श्री रविशंकर के बारे में तो यहां तक कहा जा रहा है कि दो साल पहले उन्होंने जिस तरह इस विवाद के न सुलझने पर देश में सीरिया जैसे हालात उत्पन्न हो जाने की धमकी दी थी और पूछा था कि अगर न्यायालय कहता है कि विवादित जगह बाबरी मस्जिद की है तो क्या लोग उसे राजी खुशी मान लेंगे, उससे उनकी मध्यस्थता की पात्रता बेहद सीमित हो चुकी है.

असदउद्दीन ओवैसी जैसे नेता तो यहां तक कह रहे हैं कि मध्यस्थ बनने के पीछे श्री श्री की कोई उदारता न होकर नोबेल पुरस्कार पाने की दमित आकांक्षा है, जिसके लिए एक बार वे पाकिस्तान जाकर यह ऐलान भी कर आये थे कि वे तालिबान के उग्रपंथियों से भी वार्ता के लिए तैयार हैं.

हां, एक ‘सज्जन’ ने कुछ ज्यादा ही उत्साहित होकर इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत अच्छा किया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कह रहे थे कि वह फैसला नहीं कर पा रहा तो विवाद उन्हें सौंप दे, वे उसे चुटकियां बजाते निपटा देंगे.

अब न्यायालय ने उनकी सरकार को मध्यस्थता के सारे इंतजाम करने को कहकर साथ ही यह भी कह दिया है कि अब लगा लो अपना सारा बूता और कर दो इस नासूर का इलाज तुरत-फुरत. विडंबना यह कि इस सवाल के जवाब में भी एका नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने खुद की निगरानी में मध्यस्थता की राह क्यों चुनी?

कई जानकार कह रहे हैं कि उसने दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 89 के तहत अपना कर्तव्य भर निभाया है, जिसमें मामले को यथासंभव न्यायालय के बाहर सुलझाने की कोशिशों का प्रावधान है. इसीलिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने भी 30 सितंबर, 2010 के अपने बहुचर्चित फैसले के पहले इसकी कोशिश की थी.

लेकिन आज यह सवाल उठाने वालों की भी कमी नहीं है कि जब हाईकोर्ट ऐसी कोशिशें करके हार गया था और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 21 मार्च, 2017 को विवाद को आपसी सहमति से सुलझाने पर जोर देने का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला था, तो उसको थोड़ा बदले हुए रूप में फिर वैसी ही कवायद की जरूरत क्यों महसूस होने लगी?

कहीं यह वैसे ही तो नहीं, जैसे 2010 में हाईकोर्ट ने विवादित भूमि स्वामित्व के स्वामित्व का दो टूक फैसला करने के बजाय उसे तीन भागाों में बांट डाला था? अगर नहीं तो क्या इसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय की यह उदारता ही है कि अगर एक प्रतिशत भी उम्मीद बाकी बची हो तो इस रास्ते पर चला जाना चाहिए?

और तो और, उसके पूर्व जज मार्कंडेय काटजू तक ऐसा नहीं मानते. वरना अपने ट्विटर अकाउंट पर यह क्यों लिखते कि ‘मैं अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कोई सिरा ही समझ नहीं पा रहा हूं. इसलिये मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि- जय रंजन गोगोई!.. क्या कोई मुझे बता सकता है कि कोर्ट ने मीडिएशन करने का आदेश दिया है या फिर मेडिटेशन या मेडिकेशन का? मैं समझ नहीं पा रहा हूं.’

लेकिन जहां काटजू समझ नहीं पा रहे, वहीं विवाद के सारे पेंचोखम से वाकिफ माने जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह का दो टूक निष्कर्ष है कि सुनने में भले ही अच्छा लगता हो कि सर्वोच्च न्यायालय अभी भी विवाद के राजी खुशी अदालत के बाहर हल के पक्ष में है, उसका मध्यस्थता का फैसला विवाद के अपीलार्थियों के न्याय पाने के अधिकार की पूर्ति में असमर्थता या कि असफलता की ओर ले जाता है क्योंकि इसके पीछे यह तर्क भी है कि यह महज भूमि के एक टुकड़े का नहीं बल्कि आस्था, विश्वास और भावनाओं से जुड़ा हुआ विवाद है.

वे याद दिलाते हैं कि इससे पहले न्यायालय ने कहा था कि वह इसे आस्थाओं या विश्वासों के नहीं भूमि के विवाद के तौर पर ही देखेगा और पूछते हैं कि क्या किसी भी विवाद को सांप्रदायिक या धार्मिक आस्था व विश्वास से जोड़कर नागरिकों या पक्षकारों के न्याय पाने के अधिकार की अवहेलना की जा सकती है? ऐसा किया जाने लगा तो अनगिनत आस्थाओं व विश्वासों वाले इस देश में उनमें से किसको निर्णायक माना जायेगा?

वे यह भी पूछते हैं कि मध्यस्थता की या किसी भी बिना पर हुआ कोई भी सुलहनामा किसी के कानूनी हकों का विकल्प क्यों बन सकता है?

यहां उनके सवालों को इस तथ्य से जोड़कर देखा जा सकता है कि इस विवाद का दशक दर दशक तार्किक परिणति से दूर और लाइलाज होते जाना जहां देश की व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के खिलाफ बड़ी टिप्पणी है, वहीं न्यायपालिका के खिलाफ भी है, जिसने उक्त दोनों की ही तरह विवाद के खात्मे के लिए जरूरी जीवट और इच्छाशक्ति का प्रदर्शन नहीं किया.

जब यह विवाद फैजाबाद जिले की अदालतों में धूल फांक रहा था, तब तो नहीं ही किया, तब भी नहीं, जब वह उस मोड़ तक पहुंच गया कि एक पक्ष ने 06 दिसंबर, 1992 को सर्वोच्च न्यायालय के प्रेक्षक की उपस्थिति में विवादित ढांचे को ढहाकर सारी व्यवस्था के मुंह पर विफलता का कलंक लगा दिया.

सुप्रीम कोर्ट. (फोटो: द वायर)
सुप्रीम कोर्ट. (फोटो: द वायर)

गौरतलब है कि उक्त ध्वंस को अंजाम देने या उसकी साजिश रचने वालों को अभी भी उनके किए ही सजा नहीं मिल पाई है. यह अकारण नहीं कि कई बार लगता है कि इस विवाद के अंतहीन होते जाने में जितनी भूमिका व्यवस्थापिका व कार्यपालिका की है, उससे कहीं ज्यादा न्यायपालिका की है.

जैसे-जैसे यह बड़ा और जटिल होता गया है, इसको छूने या उसकी आंच में हाथ जलाने को लेकर न्यायालय भी राजनीतिक सत्ताओं जितने ही डरे हुए रहने लगे हैं. उनके ये डर प्रत्यक्ष रहे हों या परोक्ष, अतीत में इनकी कम से कम दो मिसालें सामने आ चुकी हैं.

पहली 1993 में, जब तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के जरिये रेफरेंस भेजकर सर्वोच्च न्यायालय से पूछा कि क्या विवादित ढांचे से पहले उस जगह कोई हिंदू मंदिर था?

उस वक्त सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस एमएन वेकटचेलैया, जीएस वर्मा, जीएन रे, एएम अहमदी और एसपी भरुचा की पांच सदस्यों वाली संविधान पीठ ने पहले तो इस सवाल पर विचार किया, फिर सरकार से आश्वासन लिया कि वह इस मुद्दे पर उसकी राय को फैसले की तरह अंतिम और बाध्यकारी मानेगी.

लेकिन 1994 में निरर्थक और अनावश्यक बताते हुए उसे बिना जवाब दिए वापस कर दिया. यह कहकर कि अयोध्या तो एक तूफान है जो गुजर जायेगा, लेकिन उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा और सम्मान से समझौता नहीं किया जा सकता.

साफ है कि वह छिपा नहीं सका कि यों जुआ पटककर सवाल का जवाब इसलिए नहीं दे रहा क्योंकि अपनी गरिमा व सम्मान से समझौते के अंदेशे से आक्रांत है.

इसीलिए उसने यह सफाई भी दी कि सवाल को निरर्थक और अनावश्यक बताकर वह भारत के राष्ट्रपति का अनादर नहीं कर रहा. वह उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखता है और उनकी जगजाहिर धर्मनिरपेक्ष साख के प्रति सम्मान व्यक्त करता है. उसने यह भी कहा था कि केंद्र सरकार बातचीत के एक मंच के रूप उसका इस्तेमाल करना चाहती थी, जिसके वह विरुद्ध था.

सवाल है कि यदि उस वक्त वह अपना इस्तेमाल बातचीत के लिए मंच के रूप में किए जाने के विरुद्ध था तो अब तुरंत या कि जनभावनाओं के आधार पर फैसले के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तमाम दबावों के बीच अपनी निगरानी में मध्यस्थता क्यों करा रहा है?

अगर इसके पीछे खुद फैसला देने का खतरा उठाने से बचने का इरादा है तो यह बहुत गंभीर बात है.

प्रसंगवश, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंड पीठ की जिस तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर, 2010 को विवादित भूमि के स्वामित्व का फैसला करते हुए उसे तीन बराबर भागों में बांट देने का फैसला सुनाया था, उसके एक सदस्य जस्टिस एसयू खान ने इस खतरे को इस रूप में महसूस किया था.

उन्होंने कहा था, ‘यहां 1500 वर्ग गज जमीन का एक टुकड़ा है, जहां देवता भी गुजरने से डरते हैं. यह अनगिनत बारूदी सुरंगों व लैंड माइंस से भरा हुआ है. हमें इसे साफ करने की जरूरत है. कुछ भले लोगों ने हमें सलाह दी है कि कोशिश भी मत करो. हम भी नहीं चाहते हैं कि किसी मूर्ख की तरह जल्दबाजी करें और खुद को उड़ा लें. बावजूद इसके हमें जोखिम तो लेना ही है. किसी ने कहा है कि जीवन में सबसे बड़ा जोखिम होता है कि मौका आने पर जोखिम ही न लिया जाए. एक बार देवताओं को भी इंसानों के आगे झुकने के लिए मजबूर किया गया था. ये एक ऐसा ही मौका है. हम सफल हुए हैं या नाकाम रह गए हैं? अपने केस में कोई जज नहीं हो सकता है.’

ऐसे में यकीनन, सबसे बड़ा सवाल वही है, जो शीतला सिंह पूछ रहे हैं: अगर न्यायालय भी किसी विवाद के बोझ या उसके फैसले के खतरों व अंदेशों से यों आक्रांत महसूस करने लगेंगे तो नागरिकों के न्याय पाने के संवैधानिक अधिकार का क्या होगा?

इस सवाल का जवाब देने से पहले याद कर लेना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि पहले सर्वोच्च न्यायालय को अपना फैसला सुनाने दीजिए, फिर हम अपनी भूमिका निभायेंगे यानी कानून बदलकर उसे पलट देंगे.

यह अलग बात है कि वे ऐसा कर सकते हैं या नहीं, लेकिन इससे समझा जा सकता है कि इस देश में न सिर्फ अयोध्या बल्कि अन्य विवादों में भी पीड़ितों के लिए न्याय पाना लगातार कितना कठिन होता जा रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)