चम्पारन सत्याग्रह शताब्दी समारोह के शोर के बीच मन में सवाल उठता है कि नील की खेती करने वाले हाड़-मांस के असली किसान, उनका परिवार, उनसे जुड़े लोग आज कहां हैं?
हर तरफ़ चम्पारन की शताब्दी की धूम मची हुई है. अप्रैल 1917 को इस महीने पूरे 100 साल हो गए और एकाएक गांधी जब अभी ‘बापू या फिर पूरी तरह से ‘महात्मा’ भी नहीं हो पाए थे, ऐसे 48 वर्षीय – एक तरह से – जवांमर्द गांधी को लेकर अजब हंगामा है बरपा.
‘चम्पारन सत्याग्रह’ को लेकर दिल्ली से लेकर बिहार तक भांति-भांति के ‘आग्रह’ हो रहे हैं; चम्पारन का ज़िक्र किए बिना नेतागणों को कल (तसल्ली) नहीं पड़ रहा है; पी.आर के नए-नए मौके ढूंढ़े जा रहे हैं, बनाए जा रहे हैं: ऐसा लगता है जैसे गांधी उस प्रेमी तुल्य हो गए हों, जिसके बारे में कैफ़ी आजमी ने लिखा था:
इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े,
हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े
किसी ‘महान घटना’ की शताब्दी को लेकर इस तरह का ‘ड्रामा’ हमारे देश में पहली बार नहीं खेला जा रहा है. याद आ रहा है वर्ष 2007 के अगस्त का वह दिन जब दिल्ली में हो रही बूंदाबांदी के बीच सन् सत्तावन (1857) का 150-साला जश्न मनाया गया था.
तमाम ढोल-नगाड़ों के बीच दूरदर्शन पर आया एक सीन अब भी याद है, जब एक वृद्ध बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ का कठपुतला लालक़िले की फ़सील पर यकायक नमूदार हुआ था, जिसको 15 अगस्त-वाले मैदान से कार्यक्रम का सूत्रधार पतंग की डोर से हरकत में ला रहा था.
इसी प्रकार अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में चम्पारन के नाम पर दिल्ली में एक नए कार्यक्रम की कड़ी जोड़ी गई- ‘स्वच्छाग्रह’ पर ज़ोर दिया गया, जिसके तहत हम सब हर प्रकार की गंदगी, ग़लाज़त, व्यक्तिगत और सामाजिक कचरे के निर्मूलन पर कटिबद्ध होने के लिए प्रतिबद्ध किए गए.
जहां तक बिहार का सवाल है, चम्पारन तो उनका है ही, इसलिए लाज़मी था कि 1917 में गांधी के मुज़फ्फ़रपुर और मोतिहारी आगमन को लेकर कार्यक्रम आयोजित किए जाएं, लेकिन जब मुज़फ्फ़रपुर के मशहूर लंगेट सिंह कॉलेज के एक शिक्षक 1917 के रूप में काठियावाड़ी पगड़ी पहने गांधी बनकर एक घोड़ागाड़ी में मोतिहारी के लिए तैयार एक विशेष ट्रेन पकड़ने पहुंचे, तो वहां उनकी मुठभेड़ एक अन्य सजे-धजे ‘महात्मा गांधी’ से हो गई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि एक केंद्रीय मंत्री और स्थानीय सांसद ने ख़ास दिल्ली से एक अभिनेता को उसी विशेष ट्रेन पकड़ने के लिए पहले से ही आमंत्रित कर रखा था. स्थानीयता पर कई मायने में ‘केंद्रीय’ हावी हो गया. इसके अलावा भी एकत्रित भीड़ को कुछ और भी देखने को मिला.
दिल्ली वाले अभिनेता साहब के सिर के बाल नदारद थे, कानों पर वही ट्रेडमार्क ‘गांधी चश्मा’ था, हाथ में एक अच्छी-ख़ासी प्रताड़ित कर देने वाली लाठी और साथ ही भागवत गीता की एक प्रति.
ये 1917 वाले 48 वर्षीय अधेड़ गांधी तो किसी मायने में न थे क्योंकि तब के गांधी अपनी आंखें और हाथ-पैर बिना किसी यंत्र या अवलंब के चारों तरफ़ चलाने में पूरी तरह सक्षम थे. 1917 के मोहनदास करमचंद गांधी को छोड़ ट्रेन 1940 वाले महात्मा गांधी को ही लेकर अपने गंतव्य मोतीहारी के लिए छूटी!
इसी प्रकार प्रांतीय सरकार द्वारा ‘चम्पारण (चम्पारन नहीं) सत्याग्रह शताब्दी 2017-18 के लोगो के रूप में भी चश्मा पहने एक वयोवृद्ध गांधी ही हैं: बदन अच्छी तरह से एक लंबी धोती से ढका हुआ, वक्षस्थल पर एक भारी-सी चादर. इस प्रतीकात्मक मूर्ति के दोनों हाथ एक-एक होनहार बालिका और बालक के कंधे पर हैं और इस पूरे चित्रण का आधार है, आज के परिवेश के उथल-पुथल को मानो दर्शाती हुई नीचे से उठती और फिर ठहराव का आभास दिलाती हुई लहरनुमा आकृति. ऐसा लगता है मानो पुरानी फिल्म ‘जागृति’ का वह देश-प्रेमी गाना पार्श्व में बज रहा हो:
हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के
अगर हम सरकारी कार्यक्रमों से हटकर नज़र दौड़ाएं तो चम्पारन की हमारी स्मृति (या विस्मृति) में यदि कोई इज़ाफ़ा हो रहा है, तो वह स्थानीय नायकों के संस्मरणों के आधार पर हो रहा है. इस सब गाजे-बाजे के बीच एक इतिहासकार के मन में सवाल उठता है: इन सब में चम्पारन में नील की खेती करने वाले हाड़-मांस के किसान, उनकी बड़ी-बूढ़ियां, बीवी-बच्चे कहां हैं?
ढूंढ़ने पर इनका हल्का-सा ख़ाका भी अख़बारों के पृष्ठों और इंटरनेट की ‘वेबसाइटों से उभरकर हमें अपनी पहचान नहीं कराता कि ‘मैं हूं चम्पारन के बनबिरवा, मुरली भरभरवा, महारानी भोपट, या फिर जगिरहा कोठी के पट्टी जसौली, लंकरिया या कथरिया गांव के निल्हों और उनके कारिंदों, गारद के अत्याचार से प्रताड़ित अमुक किसान, गाड़ीवान, चरवाहा या बेगारी काटता हुआ स्थानीय मजूरा’.
ये वे गुमनाम किसान थे, जो प्रचलित ‘तिनकठिया’ प्रथा के चलते अपने खेतों का सबसे उर्वरक हिस्सा देते हुए कोठियों की लगाई गई प्रणाली और धाराओं से बंधे कम-से-कम दो पीढ़ी या उससे भी ज़्यादा समय से वहां कार्यरत थे.
इनका शुमार न तो राजेंद्र प्रसाद, न ही गांधी की आत्मकथा में हुआ. और तो और न ही ये मौजूदा त्वरित परिचर्चाओं में ही नज़र आते हैं. लेकिन ये चम्पारन के किसान ही थे (और इनका भोगा हुआ यथार्थ- जो हर का होता है) जो नील की फसल उगाते, उसे काटकर बैलगाड़ियों पर लाद नीले-कोठियों पर ले जाते, उसके पौधों को घोटते, बड़े-बड़े हौदों में तरतीबवार बिछाते और फिर ‘सर-भन्ना’ (स्थानीय भाषा में सिर बथना) देने वाली क्वांर मास (सितंबर) की धूप में उन्हीं हौदों में कमर तक उतरकर नील-पौधों को पसाते और भली-भांति बोर और पीट-पाटकर नील-विर्निमाण प्रक्रिया को एक चरण और आगे बढ़ाते.
समकालीन चित्रों में ऐसे ही कुछ किसान नंगे बदन, नंगे सिर नील हौदों में खड़े कार्यरत दिखाई देते हैं. साथ ही इस तमाम क्रियाकलाप पर अंकुश रखे हुए सोला-टोपी लगाए सफ़ेदपोश अंग्रेज़ सुपरवाइज़र और साथ चौकसी रखे हमारे अपने ही ग्रामीण तबक़े के लंठ-लठैत.
नील की खेती दुनिया भर में बन रहे सूती कपड़े की रंगाई से पूरी तरह से जुड़ी हुई थी. इसकी काश्त और नील रंग का उत्पादन देहातों में स्थित फैक्ट्रियों (कोठी) और नील के बागान के मालिक अंग्रेज़ ‘ज़मींदार’ पूंजीपतियों की गिरफ़्त में था. क्योंकि 1860 के बाद से उत्तरी-बिहार और ख़ासतौर पर चम्पारन में इनकी पूरी तरह पैठ थी, इसलिए एक प्रकार से वैश्विक कपड़ा उद्योग और चम्पारन के किसान एक-दूसरे पर पूर्णरूपेण निर्भर थे.
इस पारस्परिक रिश्ते में 19वीं सदी के आख़िरी दशकों में एक और आयाम तब जुड़ गया जब नवोदित राष्ट्र जर्मनी में रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा कृत्रिम नील रसायन का आविष्कार हुआ. इस खोज ने चम्पारन के खेतों से हज़ारों मील दूर जर्मनी में लगे रासायनिक नील कारख़ानों की चपेट में ले लिया.
विश्वभर में रसायन-नील के सस्ते होने से भारतीय नील के दामों में भारी गिरावट आ गई- बिहार के ‘निल्हों का ‘नील साम्राज्य’ डगमगाने लगा. इन साहेबान ने वही किया जो सरमाएदार हमेशा करते आए हैं. आर्थिक और राजनीतिक रूप से बलवान निल्हों ने बिहारी किसानों पर बाज़ार की मंदी का हर प्रकार से पूरा-पूरा असर डालना शुरू कर दिया.
किसानों को दिए गए दाम में कटौती, अधिक लाभदायक ईख या जौ जैसी फ़सलों की खेती पर उसी पुरानी नील-प्रणाली वाली शर्तों पर, इसके अलावा ‘शरहबेशी’ के तहत कोठी के लिए नील उगाने पर लगान की बढ़ोत्तरी या फिर भारी जुर्माना (तवान) देने पर ही नील से निजात.
नतीजन, न सिर्फ़ छोटे खेतिहर, वरन समृद्ध किसान भी नील कोठियों के बढ़ते हुए उत्पीड़न का अपनी रोज़मर्रा के जीवन में असर महसूस करने लगे. इसी प्रकार के स्थानीय परिप्रेक्ष्य में रूतबेदार किसान (जो सूद पर रूपया भी चलाता था, और जिसके दो पक्के घर भी थे) राजकुमार शुक्ल दक्षिण अफ़्रीका के ‘विजेता’ गांधी के पीछे लगकर, बमुश्किल उन्हें चम्पारन की स्थिति का आकलन करने ले ही आया. 20वीं सदी के पहले दशक से ही इलाक़े में निल्हों और किसानों के बीच तनाव बढ़ रहा था और एक बागान मालिक कृषक आक्रोश का शिकार भी हो चुका था.
स्थानीय अंग्रेज़ कमिश्नर के हिसाब से ऐसे वातावरण में गांधी जैसे एक ‘बाहरी’ आदमी का आगमन ‘नीले चम्पारन’ में रंग में भंग डालने के समान था. कमिश्नर मूरशेद का गांधी का चम्पारन से निष्कासित करने का ऑर्डर दर्शाता है कि किस प्रकार ब्रिटिश राज्य का एक साधारण ज़िला होने के बावजूद चम्पारन निल्हों की पूरी गिरफ़्त में था. जहां अंग्रेज़ अफ़सरान के लिए किसी ग़ैर-मक़ामी भारतीय का पैर भी रखना- चाहे वह दक्षिण अफ़्रीका का विजेता रहा गांधी ही क्यों न हो- पूर्णरूपेण असह्य था.
इसके बाद वह हुआ जिसकी कमिश्नर साहब को उम्मीद न थी. 100 साल पहले, 18 अप्रैल 1917 को मोतिहारी के एक इजलास में एक अधेड़ गांधी ने स्थानीय एसडीएम के सामने एक नवीन व दृढ़ सिद्धांत प्रतिपादित किया था. विधि और सरकार के वर्चस्व को सिर-आंखों पर लेते हुए गांधी ने दो टूक, पर विनम्र शब्दों में उनपर थोपी गई दफ़ा 144 का सविनय उल्लंघन करते हुए ख़ुद को यथोचित दंड का भागीदार क़रार दिया.
साथ ही चम्पारन की प्रजा का मन राजनीतिक तौर पर प्रदूषित करने के सरकारी इल्ज़ाम को पूरी तरह ख़ारिज करते हुए, चम्पारन न छोड़ने का ऐलान किया. उन्हीं के शब्दों में, ‘मैं नील प्रश्न की तरतीबवार जानकारी हासिल करने चम्पारन आया हूं और यथासंभव सरकारी अफ़सरान और बागान मालिकों की सहर्ष सहायता लेते हुए इस कार्य को शांतिमय ढंग से अंजाम दूंगा.’
इसके साथ और इसके बाद, घिसे-पीटे पर यहां आवश्यक शब्दों में- चम्पारन में इतिहास मानो अपने कालचक्र में एक नए तरीक़े से घटित होने लगा. उर्दू के मशहूर कवि ‘मीर’ के शब्दों में-
‘वो बज़्म में आए, इतना तो ‘मीर’ ने देखा,
फिर उसके बाद चराग़ों में रौशनी न रही’
बिहार के गर्वनर (छोटे लाट) को सुचारू रूप से एक कमेटी बैठानी पड़ी, जिसमें अफ़सरान और नील बागानों के प्रतिनिधियों के अलावा गांधी को किसान नुमांइंदे के रूप में एक ख़ास मुक़ाम दिया गया. लेकिन इससे परे 1917 बिहार की सबसे अहम घटना गांधी और उनके सहकर्मियों के सामने सैकड़ों-हज़ारों किसानों के अपने भोगे हुए यथार्थ के बारे में बयानात थे.
अनगित किसान निल्हे साहबान की परवाह किए बग़ैर गांधी को ढूंढ़ते हुए मोतिहारी और बेतिया में हज़ारीमल की विशाल धर्मशाला में उमड़ पड़े. और यह केवल किसी महानुभाव के दर्शन-हेतु नहीं ही नहीं था. हालांकि गांधी को दिन में एक-आध बार ख़ुद को इन किसानों के सामने पेश करना पड़ता था.
नई बात यह थी कि ये सब किसानगण, बूढ़ी बेवाएं, जवान मर्द, गाय-बकरी चराते छोटे-छोटे बच्चे अपनी-अपनी आपबीती और विपदा को दो टूक शब्दों में बयान कर रहे थे. और यह सब बयानात गांधी के आदेशानुसार बाक़ायदा जिरह और अर्धयाचिका रीतिनुसार उसी समय गांधी के सहकर्मियों (राजेंद्र प्रसाद वकील, बाबू बृजराज किशोर, भूतपूर्व काउंसलर, गोरखपुर से आए विंध्यवासिनी प्रसाद इत्यादि) द्वारा सुचारू रूप से लिपिबद्ध भी किए जा रहे थे.
और क्योंकि गांधी स्थानीय भाषा भोजपुरी नहीं समझ पा रहे थे, इसलिए ज़रूरी था भावपूर्ण बयानात का अंग्रेजी में अनुवाद. संयोगवश, नौ मोटी जिल्दों में कलमबंद की हुई ये आवाज़ें आज भी मौजूद हैं. अगूंठा-निशानों और बमुश्किल कैथी लिपि में लिखे किसानों के हस्ताक्षरों सहित.
अपनी छोटी-छोटी रूदादों और कहानियों को हल्के स्वरों में ही सही, उस सौ साल पहले घटित इतिहास के अनूठे साक्ष्यों के रूप में हमें आज भी निमंत्रण दे रही हैं, मानो कह रही हों, छोड़ो इन सरकारी शताब्दी समारोहों में प्रदत्त प्रसादों को, ‘आओ मेरी ओर- रउआ सुनी हमार बतिया’ (स्थानीय बोली में सुनो हमारी बात)
तो सुनिए दुघई राय की 80 वर्षीय विधवा मां का बयान, ‘शरहबेशी के बाद मेरा पुराना लगान 16 रुपये से बढ़ाकर 26 रुपये कर दिया गया. मैंने पहले का लगान कोरट (कोर्ट) में जमाकर दिया था. मेरा एक ही बेटा है, और वह भी अक़्ल से कमज़ोर है. लगान जमा कर देने के बाद भी कोठी ने मेरे ऊपर दावा ठोंक दिया गया. मामला कोरट में है, फिर भी एक दिन कोठी के कारिंदे और अमला, रामजी राय के साथ मेरे घर पर आ धमके और घी और दही बांध देने को कहा. कोठी के गारद भी उनके साथ थे. सब मिलकर मेरे बेटे को पीटने लगे, और जिलेदार ने बेचारे की छाती पर लकड़ी का हेंगा रखकर उसपर बल देने की धमकी दी, इस पर मैं फूट-फूटकर रोने लगी, हाथ-पैर जोड़ने लगी और वहीं 27 रुपये लगान के अदा कर दिए. मटुक सिंह को अपना खेत बेचकर 27 रुपये तो कोठी को गए, लेकिन उन लोगों ने केवल 24 रुपये ही मेरे खाते में दर्ज किए, बाकी 3 रुपये सिपाही और दूसरे अमला डकार गए.’
किसान माखन राय की बूढ़ी मां ने 23 अप्रैल 1917 को मोतिहारी में राजेंद्र प्रसाद को भी इसी प्रकार की ज़ोर-ज़बर्दस्ती का क़िस्सा सुनाया, जो आज भी भारत के प्रथम राष्ट्रपति के हाथ से लिखे अंग्रेज़ी अनुवाद में मौजूद है, ‘जब पिछले सुक (शुक्रवार) को पियादे हमारे घर आए, तो पहले तो मेरे बेटे की बांह धर घसीटते हुए घर से बाहर ले गए, फिर उसके हाथ पीछे बांध उसे बुरी तरह पीटा. मैं तो अन्दर जांते में गेहूं पीस रही थी. मैं घर में अकेली औरत हूं, बेटे की हाय-दुहाई सुनकर मैं बाहर निकली और उसे न पीटने की गुज़ारिश करने लगी. मुझे पीछे धकेलते हुए उन लोगों ने मुझसे दो रुपये की मांग की, जब घर से निकालकर मैंने दो रुपये दिए तब वे सब वहां से चले गए’.
कोठी के अमला-सिपाहियों का आतंक ऐसा था कि जब कभी भी उनकी गाज किसी किसान पर गिरती तो रुपये-पैसे के अलावा घर में जो कुछ भी हाथ लगता उसे उठा ले जाते. महारानी बोपट गांव के यहां महाबीर कोइरी के घर से पिपरा/जगिरहा के धुली राय और जद्दू राउत लठैत पांच मन हल्दी उठा ले गए.
हाल यह था कि घर की रोज़मर्रा की चीज़ें जैसे बर्तन-भांडे, लुग्गा-साड़ी भी पियादे लोग उठा ले जाते. पढ़िए 50 वर्षीय फड्डी मियां, जो उस समय स्थानीय कोठी से लोहा ले रहे लोमराज सिंह के असामी थे, का यह बयान.
‘जब मैं घर पहुंचा तो पता चला कि मेरी ग़ैर-मौजूदगी में मेरे घर का काफ़ी सामान पड़हू लोहार के लोहारे में उठा कर रख दिया गया है और वहीं एक पाकड़ के पेड़ के नीचे कोठी के कारिदें बैठे हुए हैं. 2 पसेरी (क़रीब 10 किलो) धान तो मुझे मिल गया. मगर रोज़मर्रा की और चीज़ें, जिनमें 2 लोटे, 1 छीपा (थालीनुमा एक बर्तन), 1 जनानी धोती, 2 कुरते और दो गमछे हमारे घर से गायब हैं. पड़ोसी ग़रीब मियां को भी दो जनानी धोतियों से इसी तरह हाथ धोना पड़ा था.’
फिर शकूर जोलाहा के 11 साल के बेटे अफ़दर, जो गांव में चरवाही करता था, उसका बयान, ‘मेरे पास 3 और 20 (23) गौवें (गायें) हैं, जिनको चराने के एवज में गांववाले हर साल मुझे अनाज देते हैं. एक दिन फागुन के आसपास गांव की परती में दोस्त, युसूफ़ और तुलसी के साथ गौवें चरा रहा था. कोठी के देवराज सिंह हमारे पास आया और हुक़ुम दिया कि अपनी सब गोरु-बछड़ू यहां से राजकुमार शुक्ल के खेत में फसल चरने को छोड़ आओ. हम वहां से भाग गए. शुक्लाजी के खेत में मसूरी दाल और तिस्सी की फसल खड़ी थी. सब गौंवे मिलाकर सौ से अधिक रही होंगी. अगले दिन फिर कोठी के सिपाही आए और हमारी गायें ले जाकर उसी खेत में चरने को छोड़ दीं. हमारे मना करने पर हमें खूब गालियां भी दी. उस दिन उन्होंने 3 बजे से शाम तक उस खेत में गौवें चरने को छोड़ दी. और गोरखपुर के विंदवासिनी प्रसाद, जो बयान लिखने में हाथ बंटा रहे थे, उनके सवाल के जवाब में अफ़दर ने कहा, ‘अभी 12 बजे हैं, 3 इसके बाद बजेगा.’ इस बच्चे की गवाही की पुष्टि अफ़दर के अलावा उसके साथी यूसुफ़ और दोस्त के अंगूठे के निशान से की गई, जो आज भी उस कागज़ पर मौजूद हैं.
वर्तमान के बदलते परिवेश में यह बात सटीक लगती है कि ये सब बयानात और वेदनापूर्ण गवाहियां आजकल साबरमती आश्रम में तरतीबवार लिपिबद्ध की जा रही हैं. इस कार्यक्रम की समाप्ति पर ‘चम्पारन’ पर हमारी समझ कुछ और पैनी हो सकेगी. जोखिम उठाते हुए, इनमें से तीन बयानात का इस लेख में अंग्रेज़ी से वापस भोजपुरी में अनुवाद किया गया है. उम्मीद है कि इस इस क्रिया से हम कुछ हद तक चम्पारन के किसानों के शब्द, वेदना, उद्गार उनकी ही भाषा में समझ पाने में सक्षम हो सकेंगे.
और एक आख़िरी बात, ‘आज जब गांधी की हर व्यक्तिगत चीज़- क्या चश्मा, क्या लाठी- एक और रूपक एक और आख्यान में विलीन होती दिखती हैं, अंततः बची रह जाएगी गांधी की उस आख़िरी दिन लगाई घड़ी, जो उनके जीवन संदेश की सदा याद दिलाती रहेगी. याद रहे कि उनकी कमर से लटकी वो जेबघड़ी आज भी 30 जनवरी, 1948 की शाम के 5 बजकर 17 मिनट पर रूकी हुई है, जब ‘हे राम’ कहते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए थे. और कुछ नहीं तो यह घड़ी ही हमें याद दिलाती रहेगी कि हम सब ने गांधी और उनके काल के साथ क्या किया.
शाहिद अमीन इतिहासकार हैं.