राष्ट्रवाद और सैन्य बलों को चुनाव प्रचार में घसीटकर उनका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश मतदाताओं को आकर्षित करने की गारंटी नहीं है और इसका उलटा असर भी हो सकता है. चुनाव की तैयारी कर रहीं पार्टियों की रणनीति देखते हुए यह साफ़ हो रहा है कि कोई भी अपनी निर्णायक जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है.
लोकसभा चुनाव की ओर बढ़ते हुए मोटे तौर पर दो तरह के विचार उभर कर आ रहे हैं. पहला यह है कि भारतीय जनता पार्टी बाकी दलों की तुलना में मजबूत स्थिति में है.
न सिर्फ इसलिए कि इसका नेतृत्व वोट बटोरने वाले, असाधारण प्रतिभासंपन्न नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, जिनके प्रति बड़ी संख्या में आज भी लोगों की वफादारी और श्रद्धा बरकरार है, बल्कि इसलिए भी कि पुलवामा आतंकी हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद राष्ट्रवाद के ज्वार में भारतीय मतदाता उन्हें आखिरकार पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करनेवाले व्यक्ति के तौर पर वोट देंगे.
दूसरा विचार विपक्ष से, खासतौर पर कांग्रेस और इसके भ्रष्टाचार के कई पापों और चूकों से जुड़ा हुआ है. इसके मुताबिक कांग्रेस दिशाहीन और पतवारहीन जहाज के समान है जो खुद को प्रभावशाली ढंग से संगठित कर पाने में अक्षम है.
गौर करने लायक बात कि किस तरह यह गठबंधन बनाने के मौकों को किस तरह से हाथ से जाने दे रही है, दिल्ली में आम आदमी पार्टी और उत्तर प्रदेश में समाजवादी-बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन का हिस्सा बनने के प्रस्तावों को ठुकरा रही है.
साथ ही इसकी राज्य इकाइयां अपने संभावित सहयोगियों के खिलाफ खड़ी हुई हैं. किसी मजबूत गठबंधन की गैरहाजिरी में, भाजपा को जीत हासिल करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी.
ये दोनों बातें एक हद तक सही हैं. भाजपा गठबंधन बनाने में माहिर साबित हो रही है, भले ही इसके लिए उसे सीटों का समझौता क्यों न करना पड़े. बिहार और महाराष्ट्र इसका उदाहरण है. यहां तक कि इसने असम में असम गण परिषद को भी फिर से अपने पाले में कर लिया है, जिसने महज दो महीने पहले एनडीए से नाता तोड़ लिया था.
यह तेज निर्णय क्षमता और लचीलेपन को दिखाता है, जबकि कांग्रेस इन गुणों से महरूम दिखाई देती है. कागज पर देखें तो इससे भाजपा को अपने वोट कटने से रोकने में मदद मिलेगी, भले ही इसके लिए उसके पास लड़ने के लिए कम सीटें ही क्यों न बचे.
क्या एयरस्ट्राइक का राजनीतिक फायदा होगा?
इन धारणाओं की जांच किए जाने की जरूरत है. हालात इतने सरल और इतने तयशुदा नहीं हैं, जितने नजर आते हैं. अतीत में भारतीय चुनाव परिणामों ने सभी पूर्वानुमानों को अंगूठा दिखाने का काम किया है और मतदाता चुनाव पंडितों और विश्लेषकों को ही नहीं, हारने और यहां तक कि जीतनेवालों को भी चकित कर देने के लिए बदनाम रहे हैं.
2004 में जब हर सभी चुनावी सर्वेक्षण और विश्लेषक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा की असान जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे, मतदाताओं ने दिखाया कि ‘इंडिया शाइनिंग’ के जुमले पर उनका यकीन नहीं था.
इसने भाजपा को तो झटका दिया ही था, लेकिन यह कांग्रेस के लिए भी कम हैरान करनेवाला नहीं था, जिसने सबसे बड़े दल के तौर पर उभरने की कोई उम्मीद नहीं की थी.
इस बार कई भाजपा नेताओं ने कहा है कि एयरस्ट्राइक पार्टी को बड़ी जीत दिलाने में मदद करेगी. इसका अर्थ यह निकलता है कि बालाकोट से पहले नरेंद्र मोदी के पास शासन के मोर्चे पर दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था.
ऐसा लगता है कि पुलवामा, बालाकोट और विंग कमांडर अभिनंदन जैसे शब्दों का इस्तेमाल पार्टी को जीत की ओर लेकर जाएगा. दोस्ताना मीडिया और शोर मचा रहे ऑनलाइन अभियान भी यही ढोल पीट रहे हैं.
एक बार फिर विजयोल्लास का वातावारण है और भाजपा जो कुछ दिन पहले तक कि थोड़ी सी घबराई हुई दिख रही थी, एक बार फिर आत्मविश्वास से लबरेज दिख रही है.
देशभर में, कम से कम हिंदी पट्टी के राज्यों में तो जरूर, पार्टी के प्रचारकर्ता यही संदेश दे रहे हैं. लेकिन सवाल है कि क्या एयरस्ट्राइक का मतदाताओं पर ऐसा असर पड़ेगा कि वह नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लिए फायदेमंद साबित हो.
क्या विदर्भ का किसान, विजयवाड़ा का छोटा कारोबारी, कोच्चि के मछुवारे या पश्चिम बंगाल का व्यापारी- यानी वे सब जो इस सरकार की आर्थिक नीतियों से प्रभावित हुए हैं- पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर भाजपा को वोट देंगे?
उन सब में वही देशप्रेमी दिल धड़कता है, लेकिन उन सबके सामने ज़िंदगी के असली मुद्दे हैं- कम होती आमदनी, बढ़ती लागत, बेरोजगारी- जिनका सामना उन्हें हर रोज करना पड़ता है.
एयरस्ट्राइक के बाद भाजपा नेताओं ने चारों तरफ जाकर सैकड़ों ‘आतंकवादियों’ को मार गिराने का दावा किया था, लेकिन जैसे-जैसे सवाल पूछे जाने लगे, इस दावे को वापस ले लिया गया. अब संघ परिवार के अपने विचारकों को ऐसा लगने लगा है कि क्या इसे चुनावों में वाकई भुनाया जा सकता है?
विपक्ष में दरार
विपक्ष के मोर्चे पर देखें तो कर्नाटक चुनाव के बाद एकजुटता के प्रदर्शन के कारण जगी एकता की उम्मीदें धुंधला गई हैं और आपसी दरारें उभरकर सामने आ गई हैं. महागठबंधन के पास कांग्रेस के लिए कोई वक्त नहीं है और ममता बनर्जी जैसे महत्पूर्ण नेता इससे अलग-थलग दिख रहे हैं.
हर किसी की अपनी महत्वकांक्षाएं हैं. फिर भी, ढीली-ढाली व्यवस्थाएं सही मौका देखकर ही अस्तित्व में आती हैं. यह भी हो सकता है कि किसी भी कीमत पर मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हराने की इच्छा रखनेवाली पार्टियों के बीच पर्दे के पीछे कई समझौते हों.
कुछ भी हो, हर क्षेत्रीय पार्टी के पास इतनी ताकत और सामर्थ्य है कि वह अपने राज्य में भाजपा को हरा सके. भाजपा को ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतनी की ज़रूरत होगी और एक अच्छे खासे आंकड़े तक पहुंचना होगा ताकि एक वास्तविक गठबंधन की सूरत में, नरेंद्र मोदी की दावेदारी पुख्ता हो सके.
यहां यह सवाल उठता है कि आखिर वह जादुई आंकड़ा कौन-सा है, जो मोदी की दावेदारी को सवालों से परे कर देगा और क्या इस आंकड़े तक पहुंचा जा सकता है?
इस सवाल के जवाब के तौर पर भी कई संभावित स्थितियों के कयास लगाए जा रहे हैं. इनमें भाजपा को अकेले 300 या उससे ज्यादा सीटें मिलने या उसके 125 सीटों तक सिमटकर रह जाने की अतिवादी स्थितियां भी हैं.
लेकिन ज्यादातर विश्लेषक इस बात पर एकराय हैं कि पार्टी को चुनावपूर्व सहयोगियों और बीजू जनता दल के नवीन पटनायक से लेकर तेलंगाना राष्ट्र समिति के केसी राव जैसे संभावित सहयोगियों का नेतृत्व करने के लिए कम से कम 180 सीटों की जरूरत होगी.
वास्तविक गठबंधन की सूरत में ये सारी पार्टियां सरकार में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा मांगेंगीं. सवाल है कि नरेंद्र मोदी की जैसी कार्यशैली है, उसको देखते हुए वे अहंकारी क्षेत्रीय क्षत्रपों के बेमेल गठबंधन का प्रबंधन कैसे कर पाएंगे? क्या उनके वरिष्ठ सहयोगी बगावत पर उतर जाएंगे?
मतदाता कई कारकों के आधार पर अपना मन बनाता है. एक तबका उनका है, जो आंखें मूंदकर एक पार्टी या एक खास नेता को वोट देते हैं, लेकिन आर्थिक मसले, क्षेत्र की तरक्की, शासन, गठबंधन और परंपरागत जाति और संप्रदाय की भी भूमिका अहम होती है.
अतीत में राम मंदिर और सांप्रदायिकता जैसे भावनात्मक मुद्दों ने भाजपा की जीत में मदद की और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सहानुभूति लहर ने राजीव गांधी को 400 से ज्यादा सीटें जीतने में मदद पहुंचाई. लेकिन अंत में सभी पार्टियों को गरीबी और विकास के मुद्दे पर आना पड़ता है.
यहां तक कि मोदी ने भी भ्रष्टाचार और अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने की बात की. राष्ट्रवाद और चुनाव प्रचार में सैन्य बलों को घसीटकर उनका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश मतदाताओं को आकर्षित करने की गारंटी नहीं है. और वास्तव में इसका उलटा असर भी हो सकता है.
हमें जल्दी ही पता चलेगा कि मतदाताओं ने किस तरह से फैसला किया, लेकिन चुनाव प्रचार में जाने की तैयारी कर रही पार्टियों की रणनीति को देखते हुए यह साफ हो रहा है कि कोई भी अपनी निर्णायक जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है.
भाजपा बालाकोट हमले की आग जलाए रखने की कोशिश कर रही है और विपक्षी पार्टियां आपसी समझौते करने में व्यस्त हैं और मतदाताओं ने दोनों की जान सांसत में डाल रखी है. चुनावी तराजू का कांटा अभी किसी तरफ निर्णायक ढंग से नहीं झुका है.
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