कई मीडिया संस्थानों ने प्रसिद्ध अंतरिक्ष विज्ञानी शिवथानु पिल्लई की हीलियम-3 पर दी गई जानकारी को ठीक से समझे बिना ही प्रसारित किया. विज्ञान से जुड़ी कोई ख़बर देते समय तथ्यों को लेकर सतर्कता बरतना बेहद ज़रूरी है.
20 अप्रैल 2017 को लाइव मिंट अख़बार ने प्रकाशित किया कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए चांद पर हीलियम-3 के ख़नन की योजना बनायी है. पर इसरो का ऐसा कोई इरादा नहीं है. यहां तक कि अगर हमें यह लगता है कि उन्होंने ऐसी योजना बनाई भी थी, तब भी यह कहना जल्दबाजी ही होगी. दुनियाभर में कहीं भी ऊर्जा के उत्पादन में हीलियम-3 के इस्तेमाल की न तो कोई तकनीक मौजूद है और न ही इससे जुड़ी क़ानूनी और सैन्य बाधाओं को पूरी तरह से समझा गया है.
रिपोर्ट में विख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक शिवथानु पिल्लई द्वारा फरवरी 2017 में नई दिल्ली में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के कल्पना चावला अंतरिक्ष नीति संवाद कार्यक्रम के दौरान की गयी टिप्पणियों का ज़िक्र किया गया है. सम्मेलन में भाग लेने वाले लोगों का कहना हैं कि पिल्लई ने यह ज़रूर कहा था कि चांद से हीलियम-3 का खनन संभव है – लेकिन उन्होंने इसरो की ऐसा करने की योजना के बारे में कोई बयान नहीं दिया था.
एक प्रतिभागी ने बताया, ‘वे प्रौद्योगिकीय परिदृश्य का वर्णन कर रहे थे. उन्होंने एक सदी से मौजूद प्रौद्योगिकी की समीक्षा की और इसे वर्तमान समय से जोड़ा. इसके बाद उन्होंने भविष्य की संभावनाओं की एक झलक दी.’
वेब पर मौजूद कई स्रोतों के मुताबिक, हीलियम-3 कथित तौर पर ‘स्वच्छतर’ परमाणु संलयन के लिए एक मूल्यवान ईंधन है. हालांकि, परमाणु संलयन (परमाणुओं का आपस में जुड़ना या फ्यूज़न) को ड्यूटेरियम और ट्राइटियम के परमाणुओं के होने के बावजूद, जो कि हाइड्रोजन के आइसोटोप हैं और कहीं अधिक आसानी से संलयित हो सकते हैं, धरती पर प्राप्त नहीं किया जा सका है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स, बेंगलुरु के एक वरिष्ठ प्रोफेसर जयंत मूर्ति ने द वायर को बताया, ‘हालांकि यदि हीलियम-3 का पर्याप्त मात्रा में खनन और किफायती दरों पर परिवहन किया जा सके, तो यह फ्यूज़न एक आकर्षक विकल्प हो सकता है, पर मुख्य समस्या प्रौद्योगिकीय है. ड्यूटेरियम-ट्राइटियम फ्यूज़न की तुलना में हीलियम-3 फ्यूज़न में बहुत अधिक तापमान की आवश्यकता होती है जो कि वर्तमान संलयन अनुसंधान का आधार है. अत: चांद से हीलियम-3 खनन करने की योजना बनाने से पहले प्रौद्योगिकी के बेहतर होने की प्रतीक्षा करना अधिक विवेकपूर्ण होगा.’
उन्होंने बताया कि अभी तक कोई वाणिज्यिक संलयन रिएक्टर नहीं थे, भले ही इन्हें प्राप्त करने के प्रयासों के आशाजनक परिणाम रहे हों. उदाहरण के लिए नेशनल इग्निशन फैसीलिटी, कैलिफोर्निया, इनर्शियल कंटेनमेंट फ्यूज़न (जड़ता परिरोधन संलयन) को प्राप्त करने के करीब है. दूसरी ओर, कई करोड़ डॉलर की लागत से बनने वाले इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर प्रायोगिक रिएक्टर (आईटीईआर), फ़्रांस (जिसमें भारत ने भी निवेश किया है), को इसके चुंबकीय परिरोधन रिएक्टर (मैग्नेटिक कनफाइनमेंट रिएक्टर) में ज्यादा सफलता नहीं मिली है. न ही इसे हीलियम-3 के साथ काम करने के लिए डिज़ाइन किया गया है.
लेकिन फिर भी, प्रौद्योगिकीय अवरोध ने सभी को नहीं रोका है. दुनिया भर के सार्वजनिक और निजी उद्यमों ने चांद पर खनन में दिलचस्पी दिखायी है- या तो हीलियम-3 के लिए या चांद पर मौजूद पानी के लिए और संभवत: एक उपयुक्त रिएक्टर बनने तक हीलियम-3 के भंडारण के लिए. हीलियम का यह आइसोटोप पृथ्वी पर उपलब्ध नहीं है क्योंकि यह सूर्य के द्वारा उसकी सौर वायु में उत्सर्जित होता है, हमारा चुंबकीय क्षेत्र इसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से रोकता है. चंद्रमा की ऐसी कोई ढाल नहीं है और इसलिए माना जाता है कि इसकी सतह सदियों से हीलियम-3 अवशोषित कर रही है.
यहां तक कि अन्य लोगों ने भी परमाणु संलयन के लिए पूरी तरह से हीलियम-3 के उपयोग करने के निर्णय पर सवाल उठाए हैं. इसकी सबसे मुखर आलोचना प्रख्यात भौतिकविद् फ्रैंक क्लॉज़ ने अगस्त 2007 को फिजिक्स वर्ल्ड में लिखे अपने लेख में की है. उन्होंने लिखा है कि आईटीईआर के टोकामक जैसे रिएक्टर में – एक खोखले डोनट के आकार में चुंबकीय क्षेत्रों द्वारा हल्के परमाणु रोके जाते हैं, 150 मिलियन डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म किए जाते हैं, ताकि उन्हें प्लाज्मा में बदलकर संलयित किया जा सके – ‘ड्यूटिरियम, ट्रीटियम से अभिक्रिया की तुलना में हीलियम-3 के साथ 100 गुना धीमी अभिक्रिया करता है.’ इसलिए, जैसा कि मूर्ति ने कहा है, रिएक्टर को वर्तमान में प्लान किए जा रहे तापमान से कहीं अधिक तापमान तक पहुंचने की जरूरत है. क्लोज़ ने यह कहते हुए अपना लेख समाप्त किया, ‘चांद पर हीलियम-3 की कहानी मेरी नज़र में सिर्फ चांदनी है.’
इसके अलावा कानूनी बाध्यता भी है. अंतरिक्ष कानून के विशेषज्ञ एवं एडवोकेट अशोक जी.वी. के अनुसार, चांद पर खनन ‘बेहद जोखिम भरा’ है. उन्होंने बताया कि इस विषय पर एकमात्र विधिक दस्तावेज़ बाहृय अंतरिक्ष संधि (ओएसटी) है. यह कई शर्तों के अधीन किसी अन्य ग्रह/उपग्रह पर खनन की अनुमति देता है. उदाहरण के लिए, इसरो को अपना काम शुरू करने से पहले अपनी योजना सभी हितधारकों को बतानी होगी और उन लोगों से भी परामर्श करना होगा जिनके कार्यकलाप इसरो के इस कार्य द्वारा प्रभावित हो सकते हैं.
और कुल मिलाकर, जैसा कि अशोक बताते हैं, ‘पारंपरिक रूप से अंतरिक्ष यात्रा करने वाले देशों ने यह तर्क दिया है कि जो विशेष रूप से ओएसटी द्वारा निषिद्ध नहीं है, उसकी अनुमति है. भारत जैसे सीमित संसाधन वाले देशों ने तर्क दिया है कि जिसे विशेष रूप से ओएसटी द्वारा अनुमति नहीं दी गई है, वह निषिद्ध है. इन दोनों नजरियों के बीच भ्रम का यह परिणाम हुआ कि ओएसटी को दुरुस्त करने की मांग उठी है.
इनमें से किसी का भी उद्देश्य इसरो की चंद्रमा यात्रा की योजनाओं को हतोत्साहित करना नहीं है. फिलहाल तो अभी खनिज उत्खनन के बजाए उपग्रह के बारे में जानने के लिए ही बहुत कुछ है. जैसा कि मूर्ति ने कहा, ‘चांद पर जाना अपने आप में एक वजह है- इसे किसी अन्य कारण की आवश्यकता नहीं है’
लाइवमिंट की यह ख़बर ऑनलाइन प्रकाशित होने के कुछ ही समय बाद, इंडिया टीवी ने इसे अपनी एक रिपोर्ट में इस्तेमाल किया जहां इसमें किसी भी तरह का बदलाव नहीं था. वास्तव में, अन्य किसी प्रकाशन से पूर्व भारत-एशियाई समाचार सेवा (आईएएनएस), जो कि एक समाचार समूह एजेंसी है, ने 19 फरवरी, 2017 को एक लेख प्रकाशित किया था, जिसमें इसी तरह का दावा किया गया था : कि पिल्लई ने कहा है कि चांद से हीलियम -3 का निष्कर्षण इसरो के लिए एक ‘प्राथमिकता कार्यक्रम’ था और यह एजेंसी 2030 तक खदान, परिवहन और पदार्थ का उपयोग करने के लिए प्रयास करेगी. इस संस्करण को फाइनेंशियल एक्सप्रेस, इंडिया टुडे, टाइम्स ऑफ इंडिया, एनडीटीवी के द्वारा भी लिया गया.
आईएएनएस ने एक बार एक खोखला दावा प्रकाशित किया था कि अल्बर्ट आइंस्टीन का ‘सापेक्षता का सामान्य सिद्धांत (जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी)’ गलत है. विज्ञान की रिपोर्टिंग में नकली और खोखली ख़बरें देना बिल्कुल ग़लत है और यह बात तब ज़्यादा गंभीरता से ली जानी चाहिए कि इन चार प्रकाशनों की संयुक्त रूप से ट्विटर पर फॉलोइंग 23 मिलियन से अधिक है.
पिल्लई की टिप्पणियों के गलत अर्थ निकाले जाने की एक वजह इसरो की चुप्पी और उसके जनसंपर्क का कम होना भी है. यदि इसरो इस तरह कहानियों को संज्ञान में लेते हुए उनका खंडन करते हुए अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं करता है, तो ऐसी कहानियों का वायरल हो जाने में कोई आश्चर्य नहीं है.
लाइवमिंट की ख़बर के लेखक से इस विषय में अब तक संपर्क नहीं हो सका है. उनकी प्रतिक्रिया मिलते ही इस लेख को अपडेट किया जाएगा.
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. हिंदी में अनुवाद डॉ. परितोष मालवीय द्वारा किया गया है.