35 सालों से न जीती गई भोपाल सीट पर दिग्विजय सिंह को उतारने के पीछे केंद्रीय नेतृत्व से अधिक मुख्यमंत्री कमलनाथ की मंशा बताई जा रही है. विश्लेषक मानते हैं कि दिग्विजय की हार या जीत से फायदा कमलनाथ का ही है. जीत दिग्विजय को दिल्ली पहुंचाएगी, जिससे राज्य की राजनीति में उनका हस्तक्षेप कम होगा और हार ज़ाहिर तौर पर उनका क़द कम कर देगी.
दिग्विजय सिंह, कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में कभी अर्श पर होते हैं तो कभी फर्श पर, फिर फर्श से उठकर वापस अर्श पर और फिर उसी तरह वापस फर्श पर.
बीते डेढ़ दशक से मध्य प्रदेश के इस पूर्व मुख्यमंत्री के साथ यही लुकाछिपी चल रही है. बीत वर्ष के अंत में संपन्न मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण से पहले तक वे कहीं सन्नाटे में गुम थे. फिर पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी ने ऐसी बाजी पलटी कि वे पार्टी की रणनीतियों के केंद्र बन गये. मतलब फर्श से फिर अर्श पर पहुंचे.
लेकिन अब मध्य प्रदेश की भोपाल लोकसभा सीट से उन्हें कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार बनाए जाने को भी इस कड़ी में अगले अध्याय के तौर पर देखा जा रहा है. उनके नाम की घोषणा को पार्टी के अंदर उनका कद कम किए जाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
ऐसा इसलिए क्योंकि मध्य प्रदेश का भोपाल लोकसभा क्षेत्र तीन दशक से भाजपा का मजबूत गढ़ बना हुआ है. दो ध्रुवीय (कांग्रेस बनाम भाजपा) राजनीति वाले प्रदेश की इस सीट पर कांग्रेस ने आखिरी बार 1984 में जीत दर्ज की थी.
तब से अब तक हुए आठ लोकसभा चुनावों में लगातार भाजपा जीतती आ रही है. प्रदेश में दस साल (1993 से 2003) कांग्रेस की सरकार रही, तब भी यह सीट भाजपा की ही झोली में गिरी. इस दौरान कांग्रेस ने यहां लगभग हर दांव खेला.
1991 में भारतीय क्रिकेटर रहे भोपाल नबाव घराने के मंसूर अली खां पटौदी को मैदान में उतारा. 1999 में पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे सुरेश पचौरी को आजमाया. इस सीट पर अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी को देखते हुए मुस्लिम कार्ड भी खेला.
बार-बार बदलकर मुस्लिम उम्मीदवार दिए, मंसूर अली खां पटौदी, आरिफ बेग, साजिद अली. 2014 में पीसी शर्मा को मौका दिया जो वर्तमान कमलनाथ सरकार में विधि एवं विधायी और जनसंपर्क मंत्री हैं. लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी.
हालांकि, दिग्विजय सिंह ने भोपाल सीट से चुनाव लड़ने का पार्टी का यह फैसला यह कहकर स्वीकार लिया कि पार्टी आलाकमान राहुल गांधी जहां से तय करेंगे, वे वहां से चुनाव लड़ेंगे.
मुझे कॉंग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गॉंधी जी व श्री कमल नाथ जी ने भोपाल का कॉंग्रेस उम्मीदवार बनाया मैं आभारी हूँ। उन्हें हार्दिक धन्यवाद। मुझे विश्वास है मैं उनके विश्वास पर खरा उतरूँगा।
— digvijaya singh (@digvijaya_28) March 28, 2019
लेकिन वास्तव में दिग्विजय की मंशा थी कि वे अपने गृह क्षेत्र के प्रभाव वाली सुरक्षित राजगढ़ सीट से ही सक्रिय चुनावी राजनीति में वापसी करें.जिसकी पुष्टि नाम की घोषणा होने से पहले सामने आया उनका बयान था.
जिसमें उन्होंने कहा, ‘राज्यसभा में मेरा कार्यकाल 2020 तक है लेकिन फिर भी यदि पार्टी मुझे लोकसभा चुनाव लड़ाना चाहे तो मेरी पहली पसंद राजगढ़ लोकसभा सीट होगी. बाकी, पार्टी जहां से कहेगी, मैं वहां से चुनाव लड़ूंगा.’
लेकिन, फिर भी पार्टी ने उन्हें भोपाल से चुनाव लड़ाने का तय किया तो इसके पीछे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से अधिक मुख्यमंत्री कमलनाथ की मंशा बताई जा रही है.
भोपाल में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर बताते हैं, ‘दिग्विजय को कांग्रेस ने नहीं, कमलनाथ ने उम्मीदवार बनाया है. प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद बड़े नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई. जिसमें ऐसा परसेप्शन बना कि कमलनाथ कागजी मुख्यमंत्री हैं, सुपर सीएम तो दिग्विजय हैं इसलिए लगता है कि कमलनाथ ने दिग्विजय को निपटाने के लिए यह दांव चल दिया.’
इस बात के पक्ष में वे तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, ‘पहला बयान कमलनाथ का ही आया कि दिग्विजय सिंह को कठिन सीट से लड़ना चाहिए, न कि हाईकमान का. फिर दिग्विजय के भोपाल से लड़ने की घोषणा भी कमलनाथ ने की, न कि दिल्ली से की गई. इसलिए इसमें कमलनाथ का अहम रोल दिखता है. और ऐसा इसलिए क्योंकि दिग्विजय सिंह का सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप बढ़ गया था. अब दिग्विजय हारें या जीतें, फायदे में कमलनाथ ही रहेंगे. वे जीतते हैं तो दिल्ली पहुंच जाएंगे और भोपाल की राजनीति में उनका हस्तक्षेप कम होगा और हारने की स्थिति में उनका कद कम हो जाएगा. दोनों ही परिस्थितियों में कमलनाथ को लाभ है.’
गौरतलब है कि दिग्विजय का नाम भोपाल सीट से सबसे पहले कमलनाथ ने ही राहुल गांधी के सामने केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक में उठाया था. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने तर्क रखा था कि तीन दशक से हार रहे इंदौर, भोपाल, विदिशा जैसी सीटों को दिग्विजय ही जिता सकते हैं.
अगले ही दिन कमलनाथ ने अपने छिंदवाड़ा दौरे में पत्रकारों से चर्चा करते हुए दिग्विजय को सलाह दे डाली कि वे मुश्किल सीट से चुनाव लड़ें. उन्होंने कहा, ‘प्रदेश में तीन-चार सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस 30-35 साल से जीत नहीं पाई है. इनमें से किसी सीट से दिग्विजय को चुनाव लड़ना चाहिए. अब वे खुद तय करेंगे कि उन्हें कहां से उम्मीदवार बनना है.’
हालांकि, यह भी दिग्विजय सिंह ने तय नहीं किया. उन्होंने तो बस इस चुनौती को स्वीकार किया और ट्वीट में लिखा, ‘मैं राघौगढ़ की जनता की कृपा से 1977 की जनता पार्टी लहर में लड़कर जीतकर आया था. चुनौतियों को स्वीकार करना मेरी आदत है. जहां से भी मेरे नेता राहुल गांधी जी कहेंगे, मैं लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार हूं.’
इसके बाद के घटनाक्रम में दिग्विजय भोपाल से लड़ेंगे, यह तय कमलनाथ ने किया. दिग्विजय के नाम पर अंतिम मुहर 23 मार्च की रात लगी लेकिन दोपहर में कमलनाथ मीडिया से रूबरू हुए.
प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उनसे पूछा गया कि लोकसभा उम्मीदवारों की सूची कब तक जारी होगी. उन्होंने कहा, ‘सूची तो मेरी जेब में है. लेकिन यह घोषणा करता हूं कि दिग्विजय भोपाल से चुनाव लड़ेंगे. वे राघौगढ़ से ही लड़ते हैं तो यह जंचता नहीं है.’
थोड़ी ही देर बाद इस घोषणा पर दिग्विजय की प्रतिक्रिया ली गई. उन्होंने कहा, ‘पार्टी आलाकमान जहां से कहेंगे, वे वहां से चुनाव लड़ेंगे.’
कमलनाथ और दिग्विजय के बयानों के इस विरोधाभास ने संकेत दिया कि जहां भोपाल को लेकर दिग्विजय अनिश्चय की स्थिति में हैं तो कमलनाथ उन्हें वहीं से लड़ाने का तय किए बैठे हैं. मतलब कि कहीं न कहीं दोनों के बीच सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा है.
दिग्विजय के नाम की घोषणा के अगले ही दिन उनके बेटे और राज्य सरकार में मंत्री जयवर्द्धन सिंह ने एक ट्वीट किया, ‘अगर फलक को जिद है बिजलियां गिराने की, तो हमें भी जिद है वहीं पर आशियां बनाने की. सर्वत्र दिग्विजय, सर्वदा दिग्विजय.’ इस ट्वीट को भी पूरे घटनाक्रम से जोड़कर देखा गया.
अगर फलक को जिद है ,बिजलियाँ गिराने की
तो हमें भी ज़िद है ,वहि पर आशियाँ बनाने कीसर्वत्र दिग्विजय सर्वदा दिग्विजय। pic.twitter.com/CN5QEE2cQp
— Jaivardhan Singh (@JVSinghINC) March 24, 2019
अगर इन कयासों को सही भी मान लें कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा है और दिग्विजय को भोपाल से लड़ाया जाना उसी का नतीजा है तो ऐसी नौबत आखिर आई क्यों? वो भी तब जब विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण से लेकर बहुमत जुटाने तक में दिग्विजय कमलनाथ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे थे.
हुआ यूं कि सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल के गठन से लेकर सरकार की नीतियों तक में दिग्विजय सिंह का हस्तक्षेप शुरू हो गया था. जिसका उदाहरण है कि वे अपने बेटे जयवर्द्धन को नगरीय विकास जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय दिलाने में सफल रहे.
भतीजे प्रियव्रत को ऊर्जा मंत्री बनवाया तो अपने अन्य समर्थकों को भी महत्वपूर्ण मंत्रालय दिलाए. गोविंद सिंह को सामान्य प्रशासन विभाग और सहकारिता व पीसी शर्मा को जनसंपर्क और विधि जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय दिलवाए, विजयलक्ष्मी साधौ को भी चिकित्सा शिक्षा का जिम्मा मिला.
वहीं, सरकार को भी वक्त-बेवक्त वे आईना दिखाने लगे. फरवरी माह में खंडवा में गोहत्या के आरोप में तीन मुस्लिम युवकों को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) लगाकर जेल भेजा गया, जिसका दिग्विजय सिंह ने विरोध दर्ज कराते हुए कार्रवाई पर सवाल उठाए.
इसी तरह जिस मंदसौर गोलीकांड को भुनाकर कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में सरकार बनाई, उस गोलीकांड को विधानसभा में गृहमंत्री बाला बच्चन ने क्लीनचिट दे दी थी, जिस पर दिग्विजय ने मुखर विरोध दर्ज कराते हुए अपनी ही पार्टी की सरकार पर आरोप लगाए थे कि सरकार में भाजपा के नुमाइंदे बैठे हैं.
इसी तरह भाजपा सरकार में नर्मदा किनारे हुआ वृक्षारोपण घोटाला भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए अहम मुद्दा था. लेकिन वन मंत्री उमंग सिंघार ने विधानसभा में इस घोटाले पर भी शिवराज सरकार को क्लीनचिट थमा दी.
दिग्विजय सिंह ने कमलनाथ के मंत्री के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए कहा, ‘मैंने खुद छह महीने नर्मदा यात्रा की है. इस दौरान मुझे एक भी पौधा नहीं दिखा. मैं नर्मदा किनारे 3100 किलोमीटर पैदल चला हूं, वे कितना चले हैं?’
इसके बाद उमंग सिंघार ने दिग्विजय को पत्र लिखकर उनके बेटे जयवर्द्धन सिंह द्वारा सिंहस्थ घोटाले में पूर्व सरकार को दी गई क्लीन चिट को मुद्दा बनाया और कहा कि अगर आप सभी के साथ न्याय करते तो अच्छा होता.
उन्होंने दिग्विजय को नसीहत तक दे डाली थी कि दिग्विजय को प्रदेश में पार्टी कैसे मजबूत हो, इस पर सोचना चाहिए. एक अन्य मंत्री सज्जन सिंह वर्मा ने तो यह तक बयान दे दिया था कि दिग्विजय कमलनाथ सरकार के मंत्रियों के लिए एक प्रशिक्षण कैंप लगाएं.
इस पूरे विवाद ने कमलनाथ सरकार की खूब किरकिरी कराई थी. स्वयं कमलनाथ को ट्वीट के जरिए सफाई देने सामने आना पड़ा था. विपक्ष ने दोनों हाथों से मुद्दे को लपका.
नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने इसे संवैधानिक संकट के हालात ठहराते हुए कहा, ‘राज्य में संवौधानिक संकट जैसे हालात पैदा हो गए हैं क्योंकि मंत्रियों के बयानों पर सदन के बाहर सवाल उठाए जा रहे हैं.’
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार राज्य में ढाई मुख्यमंत्री की सरकार बताते रहे. कभी असल मुख्यमंत्री कौन है, ये सवाल करते रहे. तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर दिग्विजय को ‘सुपर सीएम’ बताकर कमलनाथ सरकार पर हमलावर रहे.
राजनीति के जानकार मानते हैं कि यही कारण रहे कि कमलनाथ ने दिग्विजय के पर काटने का सोचा. चुनाव समन्वय समिति के मुखिया पद से दिग्विजय की विदाई इस दिशा में पहला संकेत था क्योंकि इस पद पर विधानसभा चुनावों के दौरान दिग्विजय का काम सराहनीय रहा था, बावजूद इसके उन्हें हटाया जाना समझ से परे था.
इसके कुछ दिनों पहले एक और ऐसी घटना हुई जिसके कारण प्रदेश ही नहीं, देश भर की राजनीति में कमलनाथ की किरकिरी हुई. हुआ यूं कि दिग्विजय इंदौर में थे. शहर कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष विनय बाकलीवाल ने उनसे लोकसभा के टिकट की चर्चा की.
उसी वक्त कमलनाथ का फोन उनके पास आ गया. उन्होंने स्पीकर ऑन करके बातें करनी शुरू कर दी. दिग्विजय ने कमलनाथ से पूछा, ‘इंदौर से विनय को लड़वा दें.’ कमलनाथ ने कहा, ‘वो जीतने वाला कैंडिडेट नहीं है.’
यहां दिग्विजय ने कमलनाथ को बता दिया कि स्पीकर ऑन है तो कमलनाथ ने अपनी बात से पलटकर कह दिया कि विनय अच्छा कैंडिडेट रहेगा. यह बात मीडिया की सुर्खियां बनीं तो कमलनाथ की हर तरफ किरकिरी हुई. सरकार के मंत्री कमलनाथ के बचाव में उतरकर दिग्विजय के खिलाफ बोलने लगे.
इसे संयोग भी कहा जा सकता है कि इसी घटना के दो दिन बाद कमलनाथ ने मीडिया में दिग्विजय को मुश्किल सीट से चुनाव लड़ने की सलाह दे डाली.
इन संभावनाओं से इतर वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘ऐसा कहना कि यह फैसला उनकी मर्जी के खिलाफ या थोपा गया है, तथ्यात्मक नहीं है. क्योंकि बात दरअसल यह है कि दिग्विजय के पास दो ही विकल्प थे, राजगढ़ और भोपाल. राजगढ़ से वे लड़ते तो सवाल उठता कि यहां सारे पद एक ही परिवार तक क्यों सीमित हैं? एक ही व्यक्ति को क्यों? चाचौड़ा से उनके भाई लक्ष्मण सिंह विधायक हैं, राघौगढ़ से उनके बेटे जयवर्द्धन तो खिलचीपुर से भतीजे प्रियव्रत सिंह विधायक हैं. तीनों ही विधानसभा सीट राजगढ़ लोकसभा क्षेत्र में आती हैं.’
वे आगे कांग्रेस की रणनीति पर बात करते हुए कहते हैं, ‘कांग्रेस की लोकसभा में रणनीति है कि जो भी उसके मजबूत चेहरे हैं उन्हें मैदान में उतारा जाए. दूसरी बात कि कांग्रेस के जो भी क्षेत्रीय क्षत्रप हैं, सिंधिया हैं, दिग्विजय या बाकी कोई भी, तो उनके लिए संकेत है कि आपका इतना नाम है, इतने समर्थक हैं तो अपना पराक्रम दिखाइए. इसलिए दिग्विजय के लिए इस सीट को चुना गया जिस पर कि कांग्रेस तीन दशक से हार रही है. ये एक मुश्किल चुनौती है. दिग्विजय इसे जीत लेते हैं तो साबित हो जाएगा कि उनका प्रदेश में प्रभाव है. हारते हैं तो प्रदेश की राजनीति से भी उनकी विदाई हो जाएगी.’
हालांकि, दिग्विजय सिंह की बातें खुद-ब-खुद इशारा करती हैं कि फैसला उन पर थोपा गया है. गुरुवार को मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा कि मैं राजगढ़ से लड़ना चाहता था. राहुल गांधी को बताया था. लेकिन कमलनाथ चाहते थे कि मैं कठिन सीट से लड़ूं. जब उनसे पूछा गया कि कमलनाथ ने आपको उलझा दिया? तो वे पहले हंसे, फिर बोले – यही मेरा जवाब है.
एक पक्ष यह भी
बहरहाल, भोपाल के स्थानीय पत्रकार एसएम अल्तमस का नजरिया है कि इस बार विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के बीच हार-जीत का अंतर बहुत कम रह गया है. इसलिए कांग्रेस इस मौके को भुनाना चाहती है और किसी बड़े चेहरे को मैदान में उतारकर उस अंतर को पाटने के प्रयास में है और दिग्विजय सिंह इस रणनीति में बलि के बकरा बनाए गए हैं.
आंकड़ों पर निगाह डालें तो अल्तमस की बात में भी दम नजर आता है. भोपाल लोकसभा क्षेत्र में आठ विधानसभाएं आती हैं. पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा ने इन आठों विधानसभाओं को जीता था. उसे 3,70,696 मतों से जीत हासिल हुई थी. लेकिन 2018 विधानसभा चुनावों के नजरिए से देखें तो जीत का अंतर महज 63517 रह गया है.
वहीं, भाजपा आठ में से केवल 5 विधानसभा जीत पाई है. 2018 के विधानसभा चुनावों की 2013 के विधानसभा चुनावों से तुलना करें तो तब आठ में से 7 सीटें भाजपा जीती थी. उसे कांग्रेस से 2,53,771 मत अधिक मिले थे.
यानी कि हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में करीब 1,90,000 मत भाजपा से छिटके हैं. इसलिए दिग्विजय के चेहरे को भुनाकर कांग्रेस 35 साल बाद किसी करिश्मे की उम्मीद में है.
रशीद कहते हैं, ‘जिस राजगढ़ सीट से दिग्विजय टिकट चाहते थे, वहां उनके सबसे बड़े वोट बैंक पिछड़े वर्ग के मतदाता हैं और ग्रामीण भोपाल में भी पिछड़े बहुमत में हैं. भोपाल में मुस्लिम मतदाता भी ज्यादा है. अगर दिग्विजय पिछड़ों का समर्थन पा लेते हैं तो उनकी नैया पार हो जाएगी. करीब 4 लाख पिछड़े वोट हैं. आधे भी मिल जाते हैं तो वे सीट निकाल सकते हैं. क्योंकि 2 लाख एससी-एसटी वोट और 3 लाख मुस्लिम वोट का झुकाव भी उनके पक्ष में रह सकता है.’
बहरहाल, इस बात से सभी इत्तेफाक रखते हैं कि दिग्विजय का भविष्य दांव पर लगा है और कहीं न कहीं प्रदेश में पार्टी की अंदरूनी राजनीति में दिग्विजय को भोपाल मिला है.
बहरहाल, प्रश्न यह भी है कि मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण से लेकर सरकार के गठन तक कमलनाथ के सारथी और संकटमोचक बने दिग्विजय से कमलनाथ के ये मतभेद क्या भविष्य में कमलनाथ की सरकार के संकट में पड़ने पर उनके लिए भारी साबित होंगे?
इस पर गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘कमलनाथ के लिए सरकार बनाने से अब चार महीने मुख्यमंत्री रहने तक हालात बदले हैं. जब सरकार बनी तब कमलनाथ एक दिन के मुख्यमंत्री थे. इन चार महीनों में कमलनाथ ने अपना इतना आधार खड़ा कर लिया कि किसी पर निर्भर न रहें. कोई भी मुख्यमंत्री पूरे कार्यकाल किसी पर निर्भर रहे, ऐसा नहीं होता. कमलनाथ राज्य की राजनीति से इतने परिचित नहीं थे, इसलिए शुरूआती दौर में स्थापित होने के लिए उन्हें दिग्विजय का सहारा लगा. चार महीने में अब उन्होंने सब सीख लिया. मतलब कि दिग्विजय को जितना निचोड़ना था, कमलनाथ ने निचोड़ लिया. अब दूध से मक्खी की तरह बाहर निकालना चाहते हैं.’
वहीं, अब दिग्विजय सिंह अपनी साख बचाने के लिए हर संभव कोशिश में जुटे हैं. वे संघ पर भी हमलावर हो रहे हैं, खुद को हिंदू बता रहे हैं तो अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल की गलतियों पर माफी भी मांगते नजर आ रहे हैं.
संघ से उन्होंने पूछा है कि संघ सांस्कृतिक संगठन है तो मुझसे बैर क्यों? मैं भी तो हिंदू हूं. गौरतलब है कि दिग्विजय सिंह को संघ की आंखों में सबसे ज्यादा खटकने वाला कांग्रेसी नेता माना जाता है.
वहीं, सरकारी कर्मचारियों के होली मिलन समारोह में वे प्रदेश के सरकारी कर्मियों से अपनी 15 साल पुरानी गलती की माफी मांगते नजर आए.
उन्होंने कहा, ’15 साल हो गए, होली का मौका है. कोई भूल-चूक हो गई हो तो माफ करना.’ गौरतलब है कि 2003 के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने बयान दिया था कि चुनाव प्रबंधन से जीते जाते हैं. कर्मचारी और अन्य वर्गों के वोटों से नहीं.
परिणामस्वरूप वेतन भत्ते, दैनिक वेतन भोगी कर्मियों को हटाना, सरकारी कर्माचरियों की छंटनी से नाराज कर्मचारी इस बयान के बाद और बिदक गये थे और दिग्विजय को सत्ता गंवानी पड़ी थी. ऐसा दिग्विजय स्वयं स्वीकारते भी हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)