भारत सरकार यूं तो कहती है कि आतंकवादी कहीं छिपा हो वह उसे निकाल लाएगी, लेकिन इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्री का कहना था कि क्यों सरकार आगे की अदालत में इस फैसले के ख़िलाफ़ अपील करे? जिसे करना हो करे, सरकार क्यों करे? इससे क्या फायदा होगा?
समझौता एक्सप्रेस हमले में सारे अभियुक्तों को छोड़ दिए जाने के अदालती फैसले के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि भारत में दहशतगर्दी के शिकार मुसलमान किस अंतरराष्ट्रीय मंच पर गुहार लगाएं कि उनके लिए इंसाफ हासिल करने के लिए दुनिया भर की सरकारें भारत सरकार को पाबंद करें?
खासकर इस फैसले में न्यायाधीश के यह कहने के बाद कि जांच एजेंसी ने सबसे कारगर सबूत सामने पेश नहीं किए, गवाहों को मुकर जाने दिया गया और इस तरह अभियुक्तों को पर्याप्त सबूत के बिना रिहा करने के अलावा कोई चारा न था.
पाकिस्तान में इस फैसले के खिलाफ उन परिवारों ने विरोध प्रदर्शन किया है जिनके आत्मीय इसमें मारे गए थे या ज़ख़्मी हुए थे. उन्होंने इंसाफ की गुहार लगाई है. लेकिन वह तो भारत के हाथ में है. भारत सरकार ने, जो दहशतगर्दी के खिलाफ समझौताविहीन युद्ध की बात करती है क्या रुख अपनाया?
वह यूं तो कहती है कि आतंकवादी कहीं छिपा हो वह उसे निकाल लाएगी, लेकिन इस मामले में उसके गृह मंत्री ने पूछा कि क्यों सरकार आगे की अदालत में इस फैसले के खिलाफ अपील करे? जिसे करना हो करे, सरकार क्यों करे? इससे क्या फायदा होगा?
जब उनसे यह पूछा गया कि आखिर इस हमले के पीछे कौन है, यह भारत के लिए जानना ज़रूरी नहीं, उन्होंने उससे भी भयानक बात कही. कहा कि कई बार पता नहीं चलता, क्या करें? आगे और दबाव डालने पर उन्होंने आतंक के बारे में अपने निजी विश्वास का सहारा लिया, ‘ऐसे आतंकवादी हमलों के पीछे पाकिस्तान का हाथ होता है.’
जांच एजेंसियों की पड़ताल से प्राप्त सूत्र एक ओर, भारतीय जनता पार्टी की सरकार के गृह मंत्री का निजी विश्वास एक ओर! हमला हुआ, लोग जो मुसलमान थे और अधिकतर पाकिस्तानी थे, मारे गए लेकिन हमलावर कौन थे, यह जानने में भारत सरकार वक्त ज़ाया नहीं करना चाहती.
फिर इस घटना के शिकार पाकिस्तानी कहां जाएं? भारत का रुख उन्हें मालूम है. फिर क्या वे जेनेवा की अदालत में जाएं? भारतीय मुसलमान भी इस हमले के शिकार हुए थे.
अभी उस हिंसा की बात नहीं कर रहे जो रोजाना अलग-अलग रूपों में मुसलमानों के खिलाफ जाहिर होती रहती है, स्कूलों, सार्वजनिक स्थलों, राजनीति, सिनेमा आदि हर जगह. इस हिंसा में कई बार उन्हें शारीरिक ज़ख्म लगते हैं, प्रायः वे मन पर घाव सहते हुए बड़े होते जाते हैं.
यह मानते हुए कि उनके साथ के हिंदू ऐसे ही हैं, नहीं बदलने वाले. आखिर इस मुल्क में वे ज्यादा हैं, उनकी हरकतों को बर्दाश्त करना स्वभाव में शुमार हो जाता है.
मुसलमान मांएं अपने बच्चों को समझाती हैं कि अगर कोई उन्हें बेइज्जत भी करे तो अपमान के घूंट पीकर रह जाएं, जवाब न दें. राजनीतिक नेता खुलेआम उनकी आबादी बढ़ने को राष्ट्र के लिए ख़तरा बताते हैं, लेकिन वे सुनकर खामोश रहने को बाध्य हैं.
कभी यह पूछ सकते कि आखिर एक देश के जायज़ निवासियों की आबादी का बढ़ना उसके अस्तित्व के लिए क्यों ख़तरा है? ऐसी भाषाई, मनोवैज्ञानिक हिंसा की जाने कितनी शक्लें हैं! हम लेकिन अभी इसकी बात नहीं कर रहे. हम अभी खुद को सिर्फ उन चंद घटनाओं तक सीमित रख रहे हैं, जिन्हें दहशतगर्द ठहराने में किसी को कोई उज्र (आपत्ति) न होगा.
ऐसी घटनाएं जिनमें तुरंत जानें चली जाती हैं और जो बच जाते हैं, उनके मन पर जीवन भर के लिए एक आतंक बैठ जाता है. पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुआ हमला आतंकवादी था, इसमें किसी को शक न होना चाहिए. इसकी जिम्मेदारी एक संगठन ने ली इसलिए इसके स्रोत को लेकर भी कोई शक न रहा.
समझौता एक्सप्रेस पर हमले को दहशतगर्दी माना जाए या नहीं? अजमेर शरीफ में हुए हमले को दहशतगर्दी माना जाए कि नहीं? मालेगांव में हुए हमले को दहशतगर्दी माना जाए या नहीं? हैदराबाद की मक्का मस्जिद पर हुए हमले को दहशतगर्दी माना जाए या नहीं?
इन सारे हमलों में एक बात समान थी. ये मुसलमानों के धार्मिक स्थलों और उनकी इबादत के ख़ास दिन किए गए थे. यानी इनका मकसद साफ था, मुसलमान जहां, जिस वक़्त बड़ी तादाद में हों उनको निशाना बनाना. उनकी जान लेना और जो बच जाएं, उनके मन में असुरक्षा की भावना भर देना.
आतंकवादी हमले की परिभाषा भी तो यही है. उसका लक्ष्य सिर्फ वे नहीं होते जो सीधे उसकी चपेट में आते हैं. उसका उद्देश्य कहीं बड़े समुदाय में दहशत भरना होता है इसलिए वह एक अलग और कहीं अधिक बड़ा अपराध भी माना जाता है.
इन सारे हमलों के बाद आदतन भारत की पुलिस और जांच एजेंसियों ने इंडियन मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा आदि संगठनों के इनके पीछे होने का शक जताया. पहली गिरफ्तारियां मुसलमानों की ही हुईं.
वह तो मालेगांव हमले के समय महाराष्ट्र के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे के नेतृत्व में गठित आतंक विरोधी दस्ते की सावधान पड़ताल थी, जिससे यह मालूम हुआ कि इसके लिए जिम्मेदार मुसलमान नहीं, कुछ हिंदू ही थे जो एक खास विचारधारा और संगठन से जुड़े थे.
समझौता एक्सप्रेस का मामला इससे भी संगीन था क्योंकि उसमें निशाने पर सिर्फ मुसलमान न थे, बल्कि ज्यादातर पाकिस्तानी मुसलमान थे. यह भारत-पाकिस्तान के बीच अमन की कोशिश को पटरी से उतार देने की साज़िश थी, इसलिए और भी गंभीर अपराध है.
हरियाणा पुलिस के अधिकारी विकास नारायण राय ने पेशेवर दक्षता का परिचय देते हुए हमले में इस्तेमाल किए गए सामान के स्रोत का पता करते हुए इतनी जानकारी हासिल कर ली कि इसमें एक विशेष संगठन से जुड़े लोग थे जिसे आप हिंदुत्ववादी कह सकते हैं.
धीरे-धीरे जांच से उजागर हुआ कि इन सारे हमलों के पीछे एक ही तरह के लोग हैं. कुछ नाम सामने आए, वे गिरफ्तार हुए. असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित के नाम आज मशहूर हैं. अभिनव भारत नामक संगठन का नाम हमें पता चला जिससे ये जुड़े थे.
यह मालूम हुआ कि यह सब कुछ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं को पता था, इन लोगों को उनका सक्रिय आशीर्वाद और सहयोग भी था. इंद्रेश कुमार का नाम आया जिन्होंने एक हमले के लिए दो मुसलमान भी मुहैया कराए.
असीमानंद ने मजिस्ट्रेट के आगे कबूलनामा दर्ज करवाया. बाद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के सत्ता में आते ही वे इससे मुकर गए यह कहकर कि यह उनसे जबर्दस्ती लिखवाया गया था.
लेकिन इसके काफी बाद कारवां पत्रिका की पत्रकार को दिए लंबे इंटरव्यू में उन्होंने किसी जबर्दस्ती की बात से इनकार किया. उस इंटरव्यू से यह साफ़ है कि किस तरह इस देश में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का संगठन का एक बड़ा जाल है.
सेना का एक अधिकारी इसका हिस्सा था, यह जानकर देश में किसी को सदमा नहीं पहुंचा. अपनी सरकार के आने के बाद वे भी मुक्त हुए. इस साजिश में अगर शिरकत नहीं, तो उसकी जानकारी और उसके लिए संरक्षण जिस व्यक्ति ने दिया, वह हर विश्वविद्यालय द्वारा बुलाया जाता है.
वह मुसलमानों को राष्ट्रवादी बनाने के राष्ट्रीय कार्य में जो लगा है, इससे किसी को कोई उलझन भी नहीं होती. महाराष्ट्र की सरकारी वकील रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि नई सरकार के आने के बाद उन पर राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने मुक़दमे को कमज़ोर करने के लिए दबाव डाला. वे इससे अलग भी हो गईं.
इस बात के उजागर होने पर क्यों अदालत को इस ओर ध्यान नहीं देना चाहिए था? क्यों एनआईए जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने अपनी साख को एक राजनीतिक विचारधारा के लिए दांव पर लगा दिया? अब इस देश के लोग आगे उस पर कैसे भरोसा करें?
जो अदालत किसी हिंसक घटना में शामिल होने के सबूत की नहीं, शक़ की बिना पर लोगों को उम्रकैद देती है, वह अपने आगे पूरे मामले को कमजोर किए जाते निरुपाय देखती रहती है और भारत के मुसलमान यह सब कुछ देखते रहने को अभिशप्त हैं!
लेकिन समझौता एक्सप्रेस हमले में भारत सरकार के रुख के चलते अब यह पता चल गया है कि वह खुद आतंकवादियों को संरक्षण दे रही है. इससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी साख घटी है. जैसा ज्योति मल्होत्रा लिखती हैं, आरोप की उंगली अब भीतर खुद अपनी ओर मुड़ गई है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)