बीते दिनों अयोध्या स्थित हुनमानगढ़ी मंदिर में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के जाने पर वित्त मंत्री अरुण जेटली सहित कई नेताओं ने सवाल उठाया है.
बीते 29 मार्च को अयोध्या में रोड शो के क्रम में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के वहां की हनुमानगढ़ी जाने को लेकर भारतीय जनता पार्टी और उसकी जमातों का बिफरना व बौखलाना समझ में नहीं आता.
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा हुड़दंग मचाकर उनकी पूजा-अर्चना में विघ्न डालना और वित्तमंत्री अरुण जेटली का यह पूछे बिना न रह पाना तो और भी नहीं कि हनुमानगढ़ी जाने के पीछे उनकी आस्था व विश्वास थे या राजनीति? अच्छी बात यह है कि जेटली का यह सवाल किसी जवाब की मांग नहीं करता.
उल्टे भाजपाई जमातों को इस प्रतिप्रश्न के सामने ला खड़ा करता है कि वे हिंदुत्व की कैसी पैरोकार हैं कि अपनी जमात के बाहर के किसी नेता का हिंदू होना बर्दाश्त या स्वीकार नहीं कर पातीं? जैसे ही वह कहीं अपनी आस्था प्रदर्शित करता है, क्यों उसे अनेक तरह के शक और शुबहों से घेरने लग जाती हैं?
क्या यह वैसे ही नहीं है जैसे वे अनेक देशवासियों की देशभक्ति पर अकारण भी शक किया करती हैं? क्या ऐसा इसलिए है कि आस्थाओं और विश्वासों की राजनीति के कीचड़ में खुद के आपादमस्तक लिप्त होने का अपराध उन्हें किसी की भी आस्था को राजनीति से इतर मानने ही नहीं देता?
क्यों ये जमातें यह पूछते हुए कि प्रियंका रामलला के दर्शन करने विवादित रामजन्मभूमि क्यों नहीं गईं, छिपा नहीं पातीं कि उनके इस सवाल के पीछे भी उनकी स्वार्थी राजनीति ही है?
तभी तो उनके इस सवाल के बाद आम लोग भी पूछने लगते हैं कि उनकी यह कैसी राजनीति है कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा रामजन्मभूमि पर भव्य राममंदिर निर्माण की रट लगाती नहीं थकती और सत्ता में आते ही सुर बदल लेती है?
जैसा कि भाजपा दावा करती है, अगर हिंदुत्व की स्वयंभू अलमबरदार के तौर पर उसका अपने घोषणा पत्र में राममंदिर निर्माण का वादा करना, फिर भूल जाना और सत्ता पा जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रामजन्मभूमि की ओर मुंह तक न करना राजनीति नहीं है तो प्रियंका का अयोध्या की हनुमानगढ़ी में मत्था टेककर आशीर्वाद लेना क्यों कर राजनीति हो सकता है?
खासकर जब यह किसी कांग्रेस नेता की पहली हनुमानगढ़ी यात्रा तक नहीं है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इससे पहले भी उक्त गढ़ी में अपनी हाजिरी दर्ज करा चुके हैं. हां, अगर ये दोनों की राजनीति की दो अलग-अलग शैलियां हैं तो क्या भाजपाई जमातें चाहती हैं कि इस मसले पर सिर्फ वही राजनीति करें और इसी कारण कोई और ऐसा करने लगता है तो उन्हें असुविधा होने लगती है?
जब तक देश में लोकतंत्र है, इसे क्यों कर स्वीकार किया जा सकता है? बहरहाल, हमें नहीं मालूम कि कांग्रेस की ओर से इन जमातों को कैसे जवाब दिया जायेगा? दिया भी जायेगा या नहीं.
लेकिन सच्चा जवाब तो सच पूछिए तो इस प्रति प्रश्न से ही जुड़ा हुआ है कि अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार रामजन्मभूमि और राम मंदिर की रट लगाने वाली भाजपाई जमातें अयोध्या की इस हनुमानगढ़ी तक जाने को कौन कहे, उसका नाम तक क्यों नहीं लेतीं?
उन्हें इस मामले में भी कांग्रेस या प्रियंका गांधी से आगे दो कदम आगे बढ़ जाने से किसने रोक रखा है? किसी ने नहीं तो क्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना समेत पांच राज्यों की विधानसभाओं के गत चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान को वनवासी, गिरिवासी, वंचित और दलित वगैरह करार दिया तो भी उनकी इस गढ़ी की कतई कोई चर्चा नहीं की?
कहीं इसलिए तो नहीं कि उसने देश के आजाद होने के पहले ही अपनी व्यवस्था में लोकतंत्र और चुनाव का अपनी तरह का अनूठा और देश का संभवतः पहला प्रयोग कर रखा है, अभी भी उसे सफलतापूर्वक संचालित करती आ रही है और लोकतंत्र से पुराने बैर के कारण इन जमातों को यह बात अच्छी नहीं लगती?
इसी बैर के कारण तो कहा जाता है कि चुनाव लड़ते वक्त दिए जाने वाले उनके प्रत्याशियों द्वारा दिए जाने वाले शपथपत्रों में प्रदर्शित हो जाता हो तो हो जाता हो, वे अन्यत्र कहीं लोकतांत्रिक आचरण करती नहीं नजर आतीं. देश के लोकतंत्र के तहत खुद को मिली सुविधाओं को भी, कहते हैं कि वे लोकतंत्र के खात्मे के लिए ही इस्तेमाल करने का इरादा रखती हैं.
इसीलिए वे अपने पितृपुरुषों में से एक नानाजी देशमुख के इस कथन को भी याद रखने की जरूरत नहीं समझतीं कि इस देश की लोकतांत्रिक यात्रा अब इतनी लंबी हो चुकी है कि वह राजतंत्र के युग में पीछे लौटकर किसी राजा का राज्य स्वीकार नहीं करने वाला, भले ही वह अयोध्या के राजाराम का राज्य हो, सम्राट अशोक का या फिर अकबर का.
नानाजी देशमुख कहते थे कि चूंकि देशवासियों के लिए अब रानियों के पेट से जन्म लेने वाले सारे राजाओं के राज बेस्वाद हो चुके हैं, वे एक दिन उन्हें भी सबक सिखाकर ही मानेंगे जो देश के लोकतंत्र को भी राजतंत्र का लबादा ओढ़ाने के फेर में हैं.
दूसरे पहलू पर जाएं तो अमेठी से अयोध्या के बीच के अपने रोड शो में प्रियंका ने बार-बार कहा कि यह लोकसभा चुनाव देश के संविधान और लोकतंत्र बचाने का अवसर है और भाजपा व नरेंद्र मोदी के राज में इन दोनों के ही खतरे में होने के कारण इसका सदुपयोग किया जाना बहुत जरूरी है.
ऐसे में उनका अयोध्या की हनुमानगढ़ी जाना बहुत स्वाभाविक था, क्योंकि उसके द्वारा देश में संविधान लागू होने के बहुत पहले ही अपनी व्यवस्था में अंगीकार किया गया लोकतंत्र हमारे महान लोकतंत्र की बड़ी प्रेरणा है.
यूं यह भी एक तरह से स्वाभाविक ही है कि प्रियंका द्वारा इस अलक्षित प्रेरणा को आगे किया जाना लोकतंत्र को लजाने वाली घृणा की राजनीति के अलमबरदारों को रास नहीं आ रहा. आए भी कैसे, अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति के अनुरूप इस गढ़ी के निर्माण में अवध के नवाबों का उल्लेखनीय योगदान रहा है और इन अलमबरदारों का इस संस्कृति के संरक्षण का कोई इतिहास नहीं है.
‘द वायर हिंदी’ के पाठक गत 22 मार्च को प्रकाशित एक लेख पढ़कर इस संबंधी ढेर सारे तथ्यों से वाकिफ हैं और उन्हें फिर से दोहराने का कोई अर्थ नहीं हैं.
इसलिए इतना भर जान लेना पर्याप्त होगा कि अयोध्या की हनुमानगढ़ी ने 18वीं शताब्दी की समाप्ति से बीस पच्चीस साल पहले ही वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र का जीवनदर्शन के तौर पर इस्तेमाल शुरू कर दिया था. वह भी अलिखित या अनौपचारिक रूप से नहीं, बाकायदा संविधान बना और लागू करके.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)