वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली बता रहे हैं कि विपक्ष इस चुनाव का पहला राउंड हार चुका है. उसके लिए भाजपा को अंतिम राउंड में जीतने से रोकना बहुत कठिन है.
जैसा कि मैंने पहले कहा था कि विपक्ष इस चुनाव का पहला राउंड हार चुका है. चुनाव प्रचार शुरू हो चुका है तो मैं कहना चाहता हूं कि विपक्ष के लिए भाजपा को अंतिम राउंड में जीतने से रोकना बहुत कठिन है.
मैं यह मानने के कुछ कारण बताऊंगा और यह भी बताऊंगा कि इसका अर्थ यह नहीं है कि विपक्ष गायब हो जाना चाहिए.
पहला कारण तो यह है कि बालाकोट एयर स्ट्राइक से भाजपा मज़बूत शुरुआत कर चुकी है. इसने राष्ट्रवाद के मुद्दे को फ्रंट पर ला दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आक्रामक भाषण शैली पर यह बहुत भाता है.
इसकी नकल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी कर रहे हैं. चुनाव प्रचार में उन्होंने कहा कि हमारी सरकार में आतंकवादी बम और गोलियां खाते हैं.
छवि को मज़बूती देने के लिए वह आगे कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में हमने अपराधियों के सामने दो विकल्प रखे वे या तो जेल चले जाएं या दुनिया छोड़ दें.
कांग्रेस ने एयर स्ट्राइक के परिणाम पर संदेह जताकर मोदी को उन पर सैनिकों के अपमान का आरोप लगाने का मौका दे दिया है.
दूसरी बढ़त भाजपा के पास पैसा है. 2017 से 2018 के बीच इलेक्शन बाॅन्ड का 95 फीसदी भाजपा के पास आया है. इसके अलावा इस बात की जानकारी नहीं है कि उसने देश व विदेश से और कितना चंदा प्राप्त किया है.
हालांकि इसी सरकार ने एफसीआरए का इस्तेमाल करके एनजीओ के लिए विदेश से चंदा लेना बहुत कठिन बना दिया है, लेकिन राजनीतिक दलों को विदेश से धन लेने में कोई दिक्कत नहीं है.
यहां पर भी भाजपा ब्रिटेन, अमेरिका व अन्य देशों में स्थित अपने समर्थकों से वित्तीय मदद हासिल करने में आगे है.
तीसरी बढ़त देश भर में फैले आरएसएस कार्यकर्ता हैं. इस ताकत का इस्तेमाल अमित शाह के नेतृत्व में संगठन करता है. कई स्तरों वाला यह संगठन मतदान बूथ तक फैला है.
आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बताया कि संघ नेतृत्व मोदी के तरीकों से ख़ुश तो नहीं है, लेकिन उनके पास मोदी को खुली छूट देने के अलावा विकल्प भी नहीं है.
मोदी आरएसएस को लेकर सतर्क हैं और संघ के लोगों को ऊंचे पदों पर नियुक्त कर चुके हैं.
चौथी बढ़त विपक्ष के राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बनाने की विफलता है. अगर ऐसा होता तो वे वोटर को समझा सकते थे कि यह व्यावहारिक विकल्प है.
उत्तर प्रदेश में गठबंधन को लेकर संशय है. राजनीति को जानने वाले आश्चर्य जताते हैं कि सपा से जुड़े यादव बसपा प्रत्याशी को कैसे वोट देंगे, क्योंकि यादवों और दलितों में तो परंपरागत प्रतिद्वंद्विता है.
कांग्रेस भाजपा विरोधी वोट खींचकर दाेनों का काम बिगाड़ सकती है. हालांकि, इसके संकेत नहीं हैं कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में ख़राब स्थिति से उबर रही है.
प्रियंका गांधी से उम्मीद की जा रही थी, लेकिन उनकी गंगा यात्रा से कोई लहर उठी हो, ऐसा नहीं दिखता. ऐसा है तो फिर विपक्ष को गायब क्यों नहीं होना चाहिए?
पहली वजह है पूर्व और दक्षिण में मज़बूत क्षेत्रीय दलों की मौजूदगी, जो न तो घटे हैं और न ही दौड़ से बाहर हैं. उनके पास बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र में चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव और तमिलनाडु में स्टालिन हैं.
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन और बिहार में राजद गठबंधन ठीक-ठाक टक्कर देने की स्थिति में है. लेकिन, कांग्रेस के बारे में क्या? हाल के विधानसभा चुनाव के परिणामों ने यह तो साबित किया है कि कांग्रेस सभी जगहों पर चित नहीं हुई है.
हालांकि, राहुल ने लंबा और कीमती समय बेवजह मोदी का अपमान करने और राफेल को एक असफल चुनावी मुद्दा बनाने में बिता दिया.
अब आखिर में वह एक ऐसा मुद्दा लेकर आए जो हेडलाइन बनी. उन्होंने वादा किया है कि अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह देश के 20 फीसदी सबसे गरीबों को हर माह छह हज़ार रुपये देंगे. लेकिन, गरीब यह सोच कर चकित हो सकते हैं कि क्या कांग्रेस के सत्ता में आने की कोई उम्मीद है.
गरीब व छोटे किसानों ने मोदी की साल में छह हज़ार रुपये की योजना को ज़्यादा बेहतर माना है. विपक्ष को गायब होने से बचने के लिए यह याद रखना चाहिए कि चुनाव की सही भविष्वाणी नहीं की जा सकती और मोदी अपराजेय नहीं हैं.
पिछले कुछ सालों में राज्यों में हुए चुनाव में इतने अप्रत्याशित परिणाम आए हैं कि आम चुनाव को भी राज्य चुनावों की एक श्रृंखला के रूप में देखा जा रहा है.
मोदी और शाह की कोशिश इस चुनाव को बिना ग़लती के राष्ट्रीय बनाने की है. विपक्ष की रणनीति इसे राज्यवार लड़ने की होनी चाहिए.
(दैनिक भास्कर से विशेष अनुबंध के तहत प्रकाशित)