अगले पांच साल भारत को हमेशा के लिए बदल सकते हैं

अगर नरेंद्र मोदी वापस सत्ता में आते हैं, तो अगले पांच सालों की तस्वीर ज़्यादा क्रूर और निर्मम होगी.

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New Delhi : Citizens hold placards during a silent protest " Not in My Name " against the targeted lynching, at Jantar Mantar in New Delhi on Wednesday. PTI Photo by Shahbaz Khan(PTI6_28_2017_000201a)

अगर नरेंद्र मोदी वापस सत्ता में आते हैं, तो अगले पांच सालों की तस्वीर ज़्यादा क्रूर और निर्मम होगी.

New Delhi : Citizens hold placards during a silent protest " Not in My Name " against the targeted lynching, at Jantar Mantar in New Delhi on Wednesday. PTI Photo by Shahbaz Khan(PTI6_28_2017_000201a)
2017 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुआ ‘नॉट इन माय नेम’ प्रदर्शन (फोटोः पीटीआई)

जब इंदिरा गांधी ने अचानक जून 1975 से लागू आपातकाल की समाप्ति के साथ ही जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा की तो देश आश्चर्यचकित रह गया. क्योंकि इससे पहले तक इस बात का कोई संकेत नहीं था कि आपातकाल हटा दिया जाएगा और लोगों को यकीन नहीं था कि लोकतंत्र फिर से बहाल होगा.

विपक्षी नेताओं को जेल से मुक्त कर दिया गया और मीडिया से प्रतिबंध हटा दिया गया. मीडिया को उसके ‘हथियार’ वापस मिल गए. नेता योजना बना रहे थे कि कांग्रेस से किस तरह लड़ाई लड़ी जाए, युवा पूरे उत्साह में थे. आजादी की एक नई फिज़ा को महसूस किया जा रहा था.

ये चुनाव बेहद महत्वपूर्ण थे, जिसमें श्रीमती गांधी को यह दिखाना था कि भारत अपने लोकतंत्र पर किसी तरह के हमले को स्वीकार नहीं करेगा और मौलिक अधिकारों का हनन करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. विभिन्न राजनीतिक दल एक साथ आए, अपने मतभेदों को अलग रख एक संयुक्त मोर्चा बनाने की शपथ ली.

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चल रहे जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया, उस वक्त उन्होंने कहा कि नेताओं पर जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए वे संयुक्त मोर्चा से अलग नहीं रह सकते.

उसके बाद क्या हुआ हम सब जानते हैं, लेकिन उस महत्वपूर्ण पल सभी ने चुनाव, विशेष तौर पर इस चुनाव के महत्व को समझा. कांग्रेस की जीत ने आपातकाल को वैध साबित कर दिया होता और भारत को बुनियादी तौर पर बदल दिया होता.

जैसे हम जानते ही हैं, 2019 के चुनाव भी भारत को हमेशा के लिए बदल देने की क्षमता रखते हैं. पिछले पांच वर्षों में न केवल व्यक्तियों या समुदायों के बीच अप्रत्याशित घृणा और कट्‌टरता बढ़ी, बल्कि भारत के उदारवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर भी लगातार हमले हुए.

इनमें वे मजबूत संस्थान भी शामिल हैं जो देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं. उन संस्थानों पर कड़े से कड़े प्रहार किए गए, बावजूद इसके वे अब तक बने हुए हैं क्योंकि उनकी नींव बहुत मजबूत थी. लेकिन अब अगला हमला नींव पर होगा, जिससे एक ‘न्यू इंडिया’ बनेगा, एक ऐसा भारत, जो इस समय के भारत के मौलिक स्वरूप से बिल्कुल अलग होगा.

कभी-कभी यह याद रखना मुश्किल होता है कि महज आधे दशक पहले भारत क्या था. बेशक वह एक स्वर्णिम युग बिल्कुल भी नहीं था, बल्कि देश में छोटी से लेकर बड़ी समस्याओं की कोई कमी नहीं थी, लेकिन यह ऐसा समय नहीं था, जब किसी नागरिक को बोलने, खाने या किसी ‘गलत’ धर्म या जाति से होने के चलते उसके घर से बाहर निकालकर हत्या कर दी जाती हो.

पांच साल पहले तक देश में कोई ‘एंटी-नेशनल’ नहीं था, इसलिए तो बिल्कुल नहीं कि वो सत्ता पक्ष के विचारों का समर्थन नहीं करता. किसी पत्रकार को ‘प्रेस्टिट्यूट’ कहकर गाली नहीं दी गयी और निश्चित ही न ही किसी पूर्व प्रधानमंत्री पर यह आरोप लगा कि उसने मौजूदा सत्ता को हराने के लिए पाकिस्तान के साथ मिलकर साजिश रची.

इन सबके बीच सबसे दुखद बात यह थी कि इस तरह के बयान और आरोप ट्रोल करने वालों ने नहीं बल्कि मंत्रियों के द्वारा दिए गए. यह वास्तव में किसी भी तरह की समझदारी के पूरी तरह खत्म होने जैसा था.

Narendra Modi Mission Shakti Announcement TV Reuters
27 मार्च 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्र को संबोधित करते हुए मिशन शक्ति के बारे में बताया गया. (फोटो: रॉयटर्स)

भारतीय मीडिया ने यूपीए सरकार की जमकर आलोचना की, खासकर यूपीए-2 के आखिरी दो-तीन सालों में. यह मनमोहन सिंह सरकार को बदनाम करने और साथ ही साथ नरेंद्र मोदी को एक विकल्प के रूप में प्रचारित करने का एक सतत अभियान लग रहा था.

सरकार की आलोचना करने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन जबसे मोदी ने सत्ता संभाली थी तो मीडिया की वह भावना गायब हो गई. अब मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया न केवल मुखर रूप से मोदी का समर्थन करता है, बल्कि विपक्ष को कमजोर करने में अपनी पूरी ताकत लगा रहा है.

जो लोग निष्पक्ष पत्रकारिता- संतुलन, उद्देश्य, निष्पक्षता, दोनों पक्षों के रुख को सामने रखने का दिखावा कर रहे हैं, वे इसे इस तरह कर रहे हैं जिससे सबसे ख़राब व्यवहार को स्वीकार्यता मिल जाती है.

विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक संगठनों से जुड़ा हर संस्थान जो या तो सीधे सरकार के नियंत्रण में हैं या सरकार की फंडिंग पर निर्भर हैं, उन पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण हो गया है, कहीं कुछ में गुपचुप तरीके से,  कहीं धड़ल्ले से, कुछ संस्थानों को फंड वापस लेने की धमकी के साथ और कुछ के प्रशासनिक घुसपैठ करके यह काम किया गया है.

ज्यादातर मामलों में सरकार द्वारा नियुक्त किए गए लोग औसत सरकारी कर्मचारी या उनके खेमे वाले थे, जिनमें कोई खास बौद्धिकता नहीं थी.

इसमें ज्यादा आश्चर्य नहीं है कि दक्षिणपंथी सिद्धांतों पर चल रहे हिंदुत्ववादी संघी इतिहास के बजाय कॉन्सपिरेसी थ्योरी, मनगढ़ंत पौराणिक कथाओं के जरिए एक विशेष वर्ग के प्रति घृणा लिए आगे बढ़ रहे हैं. इतिहास, विज्ञान, अर्थशास्त्र यहां तक कि कला में औपचारिक शिक्षा का न होना एक अभिशाप रहा है.

इनमें ‘अतीत में हुई गलतियों को ठीक करने’ की धुन सवार है. अतीत से इनका आशय स्वतंत्रता के बाद के समय से भी हो सकता है, जब जवाहरलाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण किया और उस मिथकीय अतीत से भी, जब भारतवर्ष एक ‘सोने की चिड़िया’ था. जब इनके मुताबिक, लोग बिना मुस्लिम हमलवारों के डर के अपनी जातियों और सामाजिक ओहदे के अनुरूप शांति और भाईचारे से रहते थे.

किसी संस्था पर नियंत्रण करने का प्रयास करना और गोमांस खाने के नाम पर किसी मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या कर देना उस सामाजिक संतुलन को फिर से बनाए रखने और राम राज्य को वापस लाने की दिशा में ही इनका एक और कदम है.

आधुनिक लोकतंत्र को एक विदेशी आयात के रूप में देखा गया और कहा गया कि इसे उखाड़ने का समय आ गया है. जब भाजपा के सदस्य कहते हैं कि संविधान को बदल दिया जाएगा, तो इसका मतलब है कि वे ऐसा करने का इरादा रखते हैं. या जब कोई नेता, सांसद यह कहता है कि अगर नरेंद्र मोदी जीतते हैं, तो यह आखिरी चुनाव होगा तो उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए. यही सब कुछ उन्हें बताया गया है और यह हो सकता है.

ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी पार्टी के जीतने से चीजें फौरन बदल जाएंगी. चुनाव परिणाम जो भी हों, भारतीय व्यवस्था में घुस चुका जहर इतनी जल्दी खत्म नहीं होगा. अन्य दलों ने भी संस्थानों की रक्षा के लिए कोई मजबूत प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है, और न ही वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर पूरी तरह से विश्वास रखते हैं.

मीडिया इस कदर बिक चुका है कि उसमें सुधार की उम्मीद करना नामुमकिन है- जब तक कि वो अपनी एक पेशेवर वॉचडॉग की भूमिका में नहीं आ जाता, वह इस आत्मघाती रास्ते पर चलता रहेगा और भारतीय लोकतंत्र से जुड़ी किसी भी गंभीर चर्चा से बाहर हो जायेगा. और राजनीतिक दल, विशेष रूप से विपक्ष और सरकार में भी अचानक से संसद के प्रति अपना रवैया नहीं बदलने वाले.

लेकिन एक अंतर भी है. पिछले पांच वर्षों से जो हो रहा है, उसका दोबारा होना भारतीय लोकतंत्र के और फिर धीरे-धीरे भारत के विनाश का सबब बनेगा. फिर हमने अब तक जो कुछ भी देखा है, वह किसी ट्रायल की तरह लगेगा- असली तस्वीर क्रूर और निर्मम होगी. इसे किसी भी कीमत पर रोकना होगा.

बेशक जनता पार्टी का प्रयोग दुर्घटना साबित हुआ, लेकिन इसने लंबे समय तक आपातकाल जैसे फैसलों को रोकने का काम किया. अब वही स्थिति पैदा हो गई है. शांति, सद्भाव, सुरक्षा और सभी के लिए फायदेमंद व समावेशी अर्थव्यवस्था चाहने वाले व्यक्ति के तौर पर हमें अगले पांच साल नहीं, अगले पांच दशक और उससे आगे के बारे में सोचना होगा.

यह इस पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि वह आने वाली पीढ़ियों को बचाए. अब हुई एक गलती हमें लंबे समय तक के लिए भारी पड़ सकती है.

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