कांग्रेस का घोषणा-पत्र कम से कम इस अर्थ में बहुत सार्थक है कि तात्कालिक रूप से ही सही, देश के राजनीतिक विमर्श की दशा व दिशा बदलने के संकेत मिल रहे हैं.
कांग्रेस द्वारा गत मंगलवार को ‘जन आवाज’ शीर्षक और ‘हम निभायेंगे’ टैगलाइन के साथ जारी घोषणा-पत्र यों तो राजनीतिक दलों के आम घोषणा-पत्रों की तरह ऐसे वादों का पुलिन्दा भर ही है, जिनकी मार्फत उसने देशवासियों से अहद किया है कि उन्होंने उसकी बेदखली का 2014 का अपना फैसला वापस लेकर उसे फिर से जनादेश लायक समझा तो उसके पास उन्हें देने के लिए ये-ये खास चीजें हैं.
यह प्रायः हर चुनाव में प्रतिद्वंद्वी पार्टियों द्वारा अपनाई जाने वाली बेहद सामान्य-सी प्रक्रिया है. स्वाभाविक ही उसने ऐसी घोषणाएं भी की हैं, जो पहली नजर में ही सत्तासंघर्ष में आगे निकलने यानी मतदाताओं को रिझाने के उद्देश्य से की गई लगती हैं. लेकिन उन्हें लेकर उसके समर्थक और विरोधी दोनों जैसा हर्ष, विषाद और शोक जता रहे हैं, उसकी कल्पना खुद उसने भी नहीं की होगी.
कोई उन्हें व्यापक सामाजिक सुरक्षा वाले कल्याणकारी राज्य की पुरानी अवधारणा अथवा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-1 की ओर कांग्रेस की वापसी बता रहा है तो किसी से यह पूछे बिना नहीं रहा जा रहा कि मतदाताओं ने वाकई उसकी मुराद पूरी कर दी तो क्या वह देश की माली हालत के मद्देनजर असंभव से दिखने वाले अपने वादे पूरे करने के लिए जरूरी संसाधन जुटा पायेगी?
जवाब बहुत सीधा-सा है- नहीं जुटा पायेगी तो अपनी वैसी ही फजीहत करायेगी, जैसी 2014 के वादों को लेकर भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झेल रहे हैं. और कौन जाने, तब वह फिर से ‘पुनर्मूषकोभव’ की गति को प्राप्त हो जाये!
इस बीच कई ‘जानकार’ यह भी कह ही रहे हैं कि ये वादे संकेत हैं कि कांग्रेस सत्ता में लौटी तो नीति निर्धारण में नेशनल एडवायजरी काउंसिल सरीखे संविधान के दायरे के बाहर रहने वाले नीति निर्माताओं और सिविल सोसाइटी के लोगों का दखल बढे़गा.
इतना ही नहीं, जनता की शक्ति में अटूट विश्वास का दावा करने वाले कई महानुभावों को आम लोगों के ‘बिना कुछ किए धरे’ न्यूनतम आय गारंटी पा जाने से उनकी अकर्मण्यता बढ़ जाने का ‘भयानक अंदेशा’ भी सताने लगा है. फिर भी यह घोषणा-पत्र कम से कम इस अर्थ में बहुत सार्थक है कि इससे, तात्कालिक रूप से ही सही, देश के राजनीतिक विमर्श की दशा व दिशा बदलने के संकेत मिल रहे हैं.
याद कीजिए, इसके जारी होने से एक दिन पहले ही महाराष्ट्र के वर्धा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘विकास के महानायक’ का अपना 2014 वाला चोला उतार फेंका और हिंदुत्व के एजेंडे को आगे कर दिया था.
निस्संदेह, यह इस बात का अनौपचारिक ऐलान था कि उन्हें ‘चौकीदार चोर है बनाम मैं भी चौकीदार’ की खींचतान से बाहर निकलने के रास्ते की तलाश है, जिसे वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के गत चुनावों के जांचे-परखे श्मशानों व कब्रिस्तानों से गुजरकर ही पूरी करने वाले हैं.
ऐसे में कांग्रेस उबलकर या उछलकर जैसे भी ‘हिंदू-मुसलमान’ करने लगती तो ‘मोदी जी’ के मांगे बिना ही उनकी मुराद पूरी कर देती. अच्छी बात है कि उसने ऐसा करने से परहेज रखा और कई प्रेक्षकों की इस सीख की अनसुनी नहीं की कि उसे मोदी के आक्रामक हिंदुत्व या कि राष्ट्रवाद के ट्रैप में आकर आत्मघात नहीं करना चाहिए.
एक सवाल के जवाब में उसके अध्यक्ष राहुल गांधी का यह कहना कि देश में सब लोग हिंदू हैं और सभी को रोजी-रोजगार की जरूरत है, इसलिए डरे हुए प्रधानमंत्री को हिंदुत्व की आड़ में वास्तविक मुद्दों पर बहस से नहीं भागना चाहिए, एक तरह से ‘मोदी जी’ को राष्ट्रवाद व हिंदुत्व की तलवारों को फिर से म्यानों में डालने को मजबूर करना ही था.
लोकतंत्र में कोई भी लड़ाई जीतने का सबसे अच्छा तरीका उसके मोर्चों के निर्धारण में निर्णायक होना ही है और कहना होगा कि कांग्रेस ने इसमें बाजी मार ली है.
भाजपा के ‘हिंदू-मुसलमान’ के चक्कर में जो महिलाएं, दलित, वंचित, गरीब, किसान अरसे से राजनीति और साथ ही सत्ता-विमर्श से निष्कासन झेलते आ रहे हैं, वे उसके अंदर जगह पायेंगे तो उनका और साथ ही देश का कुछ तो भला होगा ही होगा. रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा की वांछित गारंटियां कुछ तो उनके नजदीक आएंगी ही.
याद कीजिए, 2014 में भाजपा के घोषणा पत्र में भी ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसी कई बड़ी-बड़ी बातें थीं. उसने अल्पसंख्यकों को समान अवसर, बुलेट ट्रेनों के जाल, खाद्य सुरक्षा, रिटेल में एफडीआई की मुखालफत, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे और काले धन के खात्मे, हर एक के खाते में पंद्रह लाख रुपये डालने और हर साल दो करोड़ नौकरियों के सृजन जैसे अनेक लोकलुभावन वादे किए थे.
अब वह उन्हें लेकर जवाब नहीं दे पा रही तो कांग्रेस क्या गलत कह रही है कि उसने अपने घोषणा पत्र में उन्हीं मुद्दों को सर्वाधिक प्राथमिकता दी है, जो जनता की जरूरतों से जुड़े हैं और जिनकी मोदी राज में उपेक्षा होती आई है? उसका ऐसा करना ढकोसला है, जैसा कि ‘मोदी जी’ कह रहे हैं, तो भी चाय पर चर्चा से तो बेहतर ही है कि देशवासियों की आय पर चर्चा हो.
यहां कांग्रेस के वादों को एक-एक कर दोहराने का कोई हासिल नहीं है क्योंकि आप उनसे वाकिफ हैं. बताने की बात यह है कि राहुल ने दावा किया है कि अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में उन्होंने एक भी ऐसा वादा नहीं किया है, जिसे न निभाया हो.
जाहिर है कि वे जताना चाहते हैं कि उनके वादे भाजपा के 2014 के वादों की तरह उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के जुमले नहीं हैं. बेहतर होता कि भाजपा और मोदी उन्हें गलत सिद्ध करने की चुनौती का सामना करते. लेकिन वे कांग्रेस के वादों को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ द्वारा सुझाए गए, खतरनाक और देश तोड़ने वाले करार देकर ही चुप हो जा रहे हैं.
उन्हें सबसे ज्यादा ऐतराज कानून की किताबों से राजद्रोह की उस धारा को ही खत्म कर देने के वादे पर है, जो हमारे दमनकारी औपनिवेशिक शासकों के वक्त से चली आ रही है और जिसकी आड़ में मोदी सरकार ने विगत पांच सालों में न सिर्फ अपने विरोधियों का भरपूर उत्पीड़न किया, कई प्रकार के उद्वेलन भी पैदा किए और फैलाए हैं.
उन्हें कुख्यात आफस्पा यानी आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट में संशोधन का कांग्रेसी वादा भी नहीं सुहा रहा, जिसे लेकर अप्रतिम गांधीवादी लौह महिला इरोम शर्मिला ने दुनिया का सबसे लंबा अनशन किया और अच्छे दिनों के वादे पर प्रधानमंत्री बन जाने के बाद ‘मोदी जी’ को पत्र लिखा कि वे खुद को सम्राट अशोक की भूमिका में ढालकर भारतीय राष्ट्र-राज्य को अहिंसा का उनके जैसा अभ्यास करा दें, तो वाकई अच्छे दिन आ जाएंगे.
उन्होंने लिखा था, ‘मोदी अशोक की तरह अहिंसा के हथियार से राज करें और देश के पूर्वोत्तर के अशांत घोषित क्षेत्रों में सशस्त्र बलों को ‘यौन भोग व हत्याओं के असीमित अधिकार’ देने वाले 1958 के आफस्पा को हटाकर उनके अत्याचार के शिकार हो रहे चार करोड़ से ज्यादा नागरिकों का पूर्ण मनुष्योचित गरिमा व आत्मसम्मान के साथ रह पाना सुनिश्चित करें.’
विडंबना देखिए कि पहले तो ‘मोदी जी’ उनके लिए अशोक नहीं बन सके और अब कांग्रेस बनने की सोच रही है तो उन्हें देश टूटने का खतरा महसूस हो रहा है. वे माॅब लिंचिग के खिलाफ कानून बनाने के उसके वादे पर भी खफा हैं. फिर भी उन्हें यह समझना गवारा नहीं कि देश की टूट के अंदेशे माॅब लिंचिंग रोकने से नहीं उसे होने देने से बढ़ते हैं.
कई लोग पूछ रहे हैं कि क्या ये वादे कांग्रेस के लिए गेमचेंजर साबित होंगे? इसका उचित जवाब मतदाता ही दे सकते हैं. लेकिन साफ दिखता है कि वे गांव-गरीब और किसान के साथ महिलाओं और बेरोजगारों वगैरह को चुनावी चिंताओं के केंद्र में ले आए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)