चुनावी बातें: मौजूदा दौर में जब चुनाव का वास्तविक ख़र्च करोड़ों में होता है, इस बात की कल्पना भी मुमकिन नहीं कि कोई निर्धन प्रत्याशी ख़ाली हाथ चुनाव के मैदान में उतरेगा और जीत जाएगा, पर 1967 में ऐसा हुआ था.
आज के हालात में तो खैर, जब लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा सत्तर लाख रुपयों तक जा पहुंची है, वह भी सिर्फ कागजों में होती है और चुनाव का वास्तविक खर्च लाखों नहीं, करोड़ों में होता है, इसकी कल्पना भी मुमकिन नहीं कि कोई निर्धन प्रत्याशी खाली हाथ चुनाव मैदान में उतरेगा और जीत जाएगा.
लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब प्रत्याशी बिना कुछ भी खर्च किए और कई बार बिना वोट मांगे ही चुनाव जीत जाते थे. हां, मतदाताओं द्वारा गलत कामों की पैरवी से क्षुब्ध होते तो चुनाव का टिकट ठुकराने से भी नहीं हिचकिचाते थे.
आइये, आज आपको देश की राजनीति की कुछ ऐसी ही भुला दी गई शख्सियतों की बाबत बताते हैं.
1967 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया द्वारा प्रवर्तित गैरकांग्रेसवाद के दौर में उनकी जन्मस्थली को समाहित करने वाली अकबरपुर (सुरक्षित) सीट पर कांग्रेस नेता पन्नालाल का कब्जा था.
गैरकांग्रेसवादी शक्तियों ने उन्हें चुनौती देने के लिए सर्वस्वीकार्य उम्मीदवार की तलाश शुरू की तो वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टांडा निवासी बीए तक पढ़े दलित कार्यकर्ता रामजीराम पर खत्म हुई.
लेकिन उनकी उम्मीदवारी में दो बड़ी दिक्कतें थीं. पहली यह कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हो रहे थे और विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में भाकपा प्रत्याशियों से प्रतिद्वंद्विता कर रहे अन्य गैरकांग्रेसी दल लोकसभा के लिए उसी के प्रत्याशी का समर्थन या प्रचार करने को तैयार नहीं थे.
दूसरी यह कि रामजीराम के हाथ एकदम खाली थे. पहली समस्या का तोड़ तो रामजीराम को रिपब्लिकन पार्टी का प्रत्याशी बनवाकर निकाल लिया गया, जिस पर किसी को ऐतराज नहीं था.
लेकिन दूसरी समस्या ज्यादा विकट थी. जैसे-तैसे चंदा करके उनके लिए नामांकन पत्र खरीदा गया. मित्रों व शुभचिंतकों से उन्हें कचहरी तक पहुंचने का किराया भी मिल गया.
लेकिन ‘पापी पेट’ को भी इसी समय आड़े आना था. कागजी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद कहा गया कि पर्चा भरने चलें तो वे बोले, ‘भूख के मारे मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा. क्या करूं, घर में खाने को कुछ था ही नहीं, सो बिना खाए ही निकल पड़ा.
इस पर वहां उपस्थित कुछ वकीलों ने उन्हें चाय-नाश्ता करवाकर खड़े होने लायक बनाया. बाद में उनके समर्थन में थोड़े बहुत पर्चे व पैम्फलेट वगैरह भी छपे, लेकिन जिसे चुनाव प्रचार कहते हैं, वह लगभग न के बराबर हुआ.
विधानसभा चुनाव के गैरकांग्रेसी प्रत्याशियों ने मतदाताओं को अपने साथ उनका चुनावचिह्न भी बता दिया और इसी को बहुत मान लिया गया.
मतदान के बाद, और तो और, खुद रामजीराम को भी उम्मीद नहीं थी कि वे जीतेंगे. लेकिन मतगणना में उन्होंने कांग्रेस के पन्नालाल को 3426 वोटों से हरा दिया. उन्हें 99198 वोट मिले और पन्नालाल को 95672.
अर्थाभाव के चलते जीतने के बाद सांसद के तौर पर उनका दिल्ली जाना भी मुश्किल था. न बदन पर ढंग के कपड़े थे और न जेब में किराया.
एक कम्युनिस्ट साथी के अनुग्रह से इस सबका इंतजाम हुआ तो साधारण कद-काठी और वेशभूषा के चलते सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें अवांछित समझकर लोकसभा में घुसने से ही रोक दिया!
तब उन्हें अपनी जीत का प्रमाणपत्र दिखाना और बताना पड़ा कि वे भी सांसद हैं! इम्पीरियल होटल में उनके ठहरने की व्यवस्था की गई तो उन्होंने कहा कि यहां तो वे अपने खर्चे पर चाय तक नहीं पी सकते!
बाद में रिपब्लिकन पार्टी के एक अन्य सांसद जो 15, जनपथ में रहते थे, उन्हें इस शर्त पर अपने साथ ले गए कि जब वेतन मिलेगा तो वे भी खर्चे में हिस्सा दे देंगे!
चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिए न जाने के बावजूद जीते
पर्चा भरने के बाद अपने चुनाव क्षेत्र में प्रचार के लिए न जाने के बावजूद जीतने वाले नेताओं में एक नाम स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद का भी है, जो बाद में देश के पहले शि़क्षामंत्री बनाए गए.
1952 के लोकसभा आमचुनाव में मौलाना आजाद उत्तर प्रदेश की रामपुर सीट से प्रत्याशी थे. उनके खिलाफ हिंदू महासभा के बिशनचंद सेठ चुनाव लड़ रहे थे.
बिशनचंद का चुनाव प्रचार तो धुंआधार चल रहा था, लेकिन देश भर में कांग्रेस के प्रचार की जिम्मेदारी सिर पर होने के कारण मौलाना अपने मतदाताओं के बीच जाने का समय ही नहीं पा रहे थे.
बहुत हाथ-पांव मारने और कन्नी काटने के बाद भी वे सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार का वक्त खत्म होने से पहले रामपुर नहीं जा सके. जब पहुंचे तो घर-घर जाकर प्रचार करने का समय ही बचा था. पर सीमित समय में वे इस तरह कितने घरों में जा पाते?
फिर भी कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई. मतगणना हुई तो मौलाना 59.57 प्रतिशत वोट पाकर खासी शान से जीते. उन्हें 1,08,180 वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी हिंदू महासभा के बिशनचंद को महज 73,427 वोट.
जीतने वाले की भी जमानत जब्त!
दूसरे पहलू पर जाएं तो आज की पीढ़ी को यह भी अकल्पनीय ही लगेगा कि कोई उम्मीदवार चुनाव तो जीत जाए, लेकिन अपनी जमानत जब्त होने से न बचा पाए?
लेकिन उत्तर प्रदेश की जिस आजमगढ़ लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव इन दिनों भारतीय जनता पार्टी के निरहुआ से दो-दो हाथ करने वाले हैं, उसकी सगड़ी पूर्वी विधानसभा सीट पर 1952 में हुए पहले चुनावी मुकाबले में तेरह उम्मीदवारों के बीच मतों के व्यापक बिखराव के कारण ऐसा हो गया था.
उस चुनाव में विधानसभा क्षेत्र के कुल 83,378 मतदाताओं में से 32,378 ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था और कांग्रेस के प्रत्याशी बलदेव उर्फ सत्यानंद ने 4969 मत पाकर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय शम्भूनारायण को 621 मतों से हराया था.
बलदेव चुनाव तो जीत गए थे लेकिन चूंकि उन्हें कुल हुए मतदान का 15.35 प्रतिशत ही प्राप्त हुआ था, इसलिए उनकी जमानत जब्त होने से नहीं बच पाई थी.
दरअसल इस चुनाव में पहली बार जनप्रतिनिधित्व कानून की सबसे बड़ी विसंगति सामने आई थी.
नियमानुसार प्रत्याशी को जमानत बचाने के लिए कुल वैध मतों का छठा भाग प्राप्त करना जरूरी है जबकि चुनाव जीतने के लिए अपने प्रतिस्पर्धियों से ज्यादा मत पाना ही पर्याप्त है.
वह छठे भाग तो क्या किसी भी भाग से कम हो सकता है. अपनी जमानत गंवा चुका व्यक्ति वास्तव में अपने चुनाव क्षेत्र के कितने लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और उसका सांसद या विधायक बने रहना कितना सम्मानजनक है, इस पर आज तक विचार नहीं किया गया.
वोटरों से खफा होकर चुनाव का टिकट ठुकराया!
एक और अकल्पनीय बात करें तो आजकल नेता टिकट न मिलने पर तोड़-फोड़ पर उतर आते और अपनी दलीय निष्ठा तक बदल लेते हैं, लेकिन बिहार के समाजवादी नेता शिवशंकर यादव ने 1977 में जनता पार्टी की लहर में भी उसका टिकट लेने से इनकार कर दिया था.
इसलिए कि 1971 के लोकसभा चुनाव में खगड़िया लोकसभा सीट का सांसद बनने के बाद का उनका अनुभव कुछ ‘अच्छा’ नहीं रहा था.
ज्ञातव्य है कि शिवशंकर यादव 1971 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव चिह्न पर देश भर में विजयी कुल तीन प्रत्याशियों में से एक थे.
पाकिस्तान से युद्ध में मिली ऐतिहासिक विजय और बंगलादेश के अभ्युदय की लोकप्रियता के रथ पर सवार तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की आंधी ने पार्टी के बाकी सारे प्रत्याशियों की किस्मत में शिकस्त लिख डाली थी.
मगर 1977 की जनता लहर में शिवशंकर यादव से खगड़िया से फिर से चुनाव लड़ने को कहा गया तो उनका उत्तर था- न मैं टिकट लूंगा और न ही चुनाव लड़ूंगा. सांसद होने का क्या मतलब, अगर मतदाता आपके पास गलत कामों की पैरवी कराने आने लगें? एक बार की सांसदी में ही मैं ऐसे कामों की पैरवी से इनकार करते-करते तंग आ चुका हूं. मेरी अंतरात्मा इस तरह आगे और तंग होते रहने की इजाजत नहीं देती.
कहते हैं कि शिवशंकर यादव का निधन हुआ तो उनके पास केवल सात रुपये थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)