मोदी सरकार के दावे और उनकी ज़मीनी हक़ीक़त पर विशेष सीरीज: ट्राइबल सब प्लान, एक ऐसा फंड है, जिसका इस्तेमाल खनन प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासी समुदायों के लिए किया जाना था, हालांकि आरटीआई से मिले जवाब बताते हैं कि इस राशि को खनन कंपनियों को बांटकर उनके विनाश की ज़मीन तैयार की जा रही है.
नई दिल्ली: योजना आयोग द्वारा सुझाई और भारत सरकार द्वारा अपनाई गई एक योजना है, ट्राइबल सब प्लान. यह एक ऐसा फंड है, जिसका इस्तेमाल खनन प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासी समुदायों के लिए किया जाना था.
सभी मंत्रालयों को अपने बजट का एक खास हिस्सा ट्राइबल सब प्लान में देना होता है. इस तरह पिछले कुछ सालों में इस फंड में सैकड़ों करोड़ रुपये जमा भी हुए, लेकिन वो पैसा कहां खर्च हुआ?
एक लाइन में कहें तो आदिवासियों के विकास के लिए आया पैसा उनके विनाश की जमीन तैयार करने में खर्च कर दिया गया.
आमतौर पर देश के आदिवासी क्षेत्रों में ही खनन के काम सर्वाधिक होते हैं. चाहे कोयला खनन की बात हो या किसी अन्य खनिज की. भारत सरकार खनन से होने वाली समस्याओं और इसकी वजह से विस्थापित होने वाले आदिवासी समुदाय की सहायता के लिए ट्राइबल सब प्लान नाम से ये योजना बनाई थी.
ट्राइबल सब प्लान यानी टीएसपी को अब (योजना आयोग के भंग होने और नीति आयोग के बनने के बाद) शेड्यूल्ड ट्राइब कम्पोनेंट [Schedule Tribe Component] के नाम से जाना जाता है.
हमने आरटीआई के जरिए विभिन्न मंत्रालयों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर इस योजना के पैसों का कहां और किस तरह से इस्तेमाल किया गया. प्राप्त सूचना से पता चला कि कैसे आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित पैसे का इस्तेमाल ‘अन्य कामों’ में किया गया.
ये ‘अन्य काम’ भी इस तरह के हैं, जिससे आगे चल कर एक बार फिर से आदिवासियों का विस्थापन ही होगा या उन्हें अन्य समस्याओं से जूझना पड़ेगा. सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि ट्राइबल सब प्लान का मकसद क्या है?
योजना आयोग ने यह स्पष्ट रूप से बताया है कि ट्राइबल सब प्लान के तहत आवंटित पैसे का इस्तेमाल आदिवासियों (अनुसूचित जनजाति) के समग्र विकास के लिए करना है. इस पैसे से ऐसी योजनाएं बनाई जानी चाहिए, जिनसे आदिवासी समुदाय को सीधे तौर पर फायदा हो.
इसके लिए योजना आयोग ने कोयला मंत्रालय के लिए ट्राइबल सब प्लान के तहत बजट का 8.2 फीसदी और खान मंत्रालय के लिए चार फीसदी राशि तय किया था.
जाहिर है, दोनों मंत्रालय ने हर वित्तीय वर्ष में इस प्लान के तहत तय राशि जमा भी कराया लेकिन इसका इस्तेमाल कहां हुआ? क्या इन पैसों का इस्तेमाल सचमुच आदिवासी समुदायों के विकास के लिए हुआ?
2010-11 से 2017-18 के बीच दोनों मंत्रालय ने इस मद में कितना पैसा आवंटित किया, कितना पैसा खर्च किया और किस काम में खर्च किया? आरटीआई से मिले जवाब से जो सच हमारे सामने आता है, वो चौंकाने वाला है.
ये जवाब बताते हैं कि कैसे टीएसपी फंड को ऐसे कामों में लगाया गया, जो आदिवासियों के विकास की जगह उल्टे उनके विनाश का कारण बनेंगे. खुद कोयला मंत्रालय और खान मंत्रालय के आकड़े बताते हैं कि ट्राइबल सब प्लान का पैसा उन कामों के लिए इस्तेमाल हो रहा है, जो किसी भी कीमत पर आदिवासी विकास से जुड़े काम नहीं माने जा सकते हैं.
विकास नहीं विनाश
आंकड़ों और आरटीआई दस्तावेज के मुताबिक, ट्राइबल सब प्लान का पैसा कोयला मंत्रालय ने कोयला कंपनियों (सीसीएल, एससीसीएल, एमसीएल) को आवंटित किया. इन कोयला कंपनियों ने आदिवासी कल्याण का काम करने की जगह उस पैसे का इस्तेमाल रीजनल एक्सप्लोरेशन, स्टोइंग, डिटेल्ड ड्रिलिंग और खदानों की सुरक्षा में कर दिया.
यहां रीजनल एक्सप्लोरेशन, डिटेल्ड ड्रिलिंग और कंजरवेशन सेफ्टी का सीधा संबंध खान/खनन का पता लगाने, खान की सुरक्षा आदि से है. जाहिर है, इन कार्यों का मकसद भविष्य में और अधिक खनन संभावनाओं की तलाश करना और माइंस का पता लगाना है.
जिस ट्राइबल सब प्लान का पैसा ट्राइबल समुदाय के विकास के लिए होना था, वही पैसा ट्राइबल समुदाय के लिए आगे और मुसीबत लाने का कारण बन रहा है.
वहीं, खान मंत्रालय के तहत आने वाली संस्था जिओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को 2010-11 से 2017-18 के बीच ट्राइबल सब प्लान के तहत 6621 लाख रुपये मिले थे. इस पैसे का खर्च उसने कोलकाता, नागपुर, जयपुर, हैदराबाद, लखनऊ और शिलॉन्ग क्षेत्र में खनिज भंडार का पता लगाने में कर दिया. इसके लिए उसने सर्वे और मैपिंग आदि किए, जिस पर यह पैसा खर्च हुआ.
26 फरवरी 2018 को कोयला मंत्रालय ने आरटीआई के जवाब में बताया कि मंत्रालय ट्राइबल सब प्लान के तहत राज्यों को फंड नहीं देता, बल्कि यह फंड सरकारी कोयला कंपनियों और सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट लिमिटेड (सीएमपीडीआईएल) को जारी किया जाता है.
साल 2011-12 से 2017-18 तक कोयला मंत्रालय ने इस मद में 205 करोड़ रुपये जारी किए. इस पैसे को कोयला कंपनियों और सीएमपीडीआईएल ने कोयले के भंडार का पता लगाने, खुदाई और खान संरक्षण और सुरक्षा से संबंधित कामों पर खर्च कर दिया.
सीएमपीडीआईएल से मिले जवाब के मुताबिक 2011-12 से 2017-18 के बीच प्रमोशनल रीजनल एक्सप्लोरेशन यानी कोयले के भंडार का पता लगाने के लिए कुल 41 करोड़ 59 लाख रुपये खर्च किए गए.
वहीं डिटेल्ड ड्रिलिंग के लिए कंपनी को 82 करोड़ 32 लाख रुपये मिले. सीएमपीडीआईएल ने टीएसपी के पैसे को छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और ओडिशा के 20 ब्लॉक में कोयले के भंडार का पता लगाने में खर्च कर दिया. बाकायदा, 14 ब्लॉक में कंपनी ने जिओग्राफिकल रिपोर्ट भी मुहैया करा दी. वहीं छह जगह अभी पता लगाने का काम किया जा रहा है.
सीएमपीडीआईएल ने डिटेल्ड ड्रिलिंग के लिए जारी टीएसपी के तहत आवंटित पैसे का उपयोग छत्तीसगढ़ के नौ ब्लॉक, ओडिशा के दो ब्लॉक और मध्य प्रदेश के चार ब्लॉक में किया.
ध्यान देने की बात यह है कि इन कामों में सीएमपीडीआईएल का वास्तविक खर्च कहीं अधिक था. मसलन, एक्सप्लोरेशन के लिए इसने कुल 122.87 करोड़ रुपये खर्च किए. लेकिन, इसी में उसने ट्राइबल सब प्लान के तहत आवंटित 41.59 करोड़ भी मिला दिए.
कोयला मंत्रालय की ही एक अन्य संस्था, ऑफिस ऑफ द कोल कंट्रोलर, कोलकाता, ने बताया कि ट्राइबल सब प्लान फंड सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड (सीसीएल), सिंगरेनी कोलरीज कंपनी लिमिटेड (एससीसीएल) और महानदी कोलफील्ड लिमिटेड (एमसीएल) को दे दिया गया.
इन सरकारी कोयला कंपनियों ने इस पैसे से झारखंड, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना में स्टोइंग और प्रोटेक्टिव वर्क जैसे काम कराए. स्टोइंग का सरल अर्थ है, खान को दबाव से सुरक्षित करना.
आरटीआई दस्तावेजों के मुताबिक, इन कार्यों पर सरकारी कंपनियों ने 2012-13 में 12 करोड़ 71 लाख, 2013-14 में 13 करोड़ 10 लाख, 2014-15 में 15 करोड़ 17 लाख, 2015-16 में 13 करोड़ 94 लाख, 2016-17 में 16 करोड़ 53 लाख और 2017-18 में 16 करोड़ 40 लाख रुपये खर्च किए.
सवाल है कि सैकड़ों करोड़ रुपये के ट्राइबल सब प्लान में ट्राइबल का विकास कहां है?
अन्य मंत्रालयों की स्थिति
यह सवाल उठना लाजिमी है कि अन्य मंत्रालय, जिन्हें टीएसपी फंड में पैसा देना है, वो इस पैसे का इस्तेमाल कहां कर रहे हैं और कैसे कर रहे हैं.
साल 2015 की कैग ऑडिट रिपोर्ट बताती है कि ऐसे राज्यों को भी टीएसपी फंड जारी किए गए जहां 2011 की जनगणना के मुताबिक आदिवासी जनसंख्या है ही नहीं.
साल 2010 में योजना आयोग ने कहा था कि यदि टीएसपी फंड का उपयोग नहीं हो पाता है, तो उसे जनजातीय मामलों के मंत्रालय को दे दिया जाए, ताकि मंत्रालय इस फंड का इस्तेमाल कर सके. लेकिन इस निर्देश पर भी आज तक कोई अमल नहीं हुआ है.
यब भी देखें कि पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान वस्त्र मंत्रालय द्वारा टीएसपी फंड का प्रबंधन कैसे किया गया है. इस मंत्रालय के हिस्से टीएसपी के लिए वार्षिक बजट का केवल 1.2 फीसदी निर्धारित है, लेकिन इसने वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान अपने बजट का 6.02 फीसदी आवंटित किया, जो कि 61.81 करोड़ के बराबर है.
इस राशि में से 30 करोड़ रुपये राष्ट्रीय हथकरघा विकास निगम को प्रदान किया गया. हमने आरटीआई के माध्यम से राष्ट्रीय हथकरघा विकास निगम से टीएसपी फंड के साथ किए गए खर्च के बारे में पूछा.
इस पर 26 जुलाई 2018 को दिए गए जवाब के अनुसार, यह जानकर हैरानी होती है कि उसे टीएसपी के तहत कोई फंड नहीं मिला है.
वहीं, सात अगस्त 2018 को कपड़ा मंत्रालय के विकास आयुक्त हथकरघा, के एक अन्य उत्तर में पुष्टि की गई है कि टीएसपी का संवितरण न केवल 2017-18 के लिए किया गया था, बल्कि 2012-13 के बाद से इस हेड (हैंडलूम) के तहत 115.59 करोड रुपये का वितरण किया गया है.
उन्होंने 13 अगस्त 2018 को एक अन्य उत्तर में यह भी लिखा कि टीएसपी के तहत ब्लॉक स्तरीय क्लस्टर विकास कार्यक्रम के लिए बजट आवंटन 2012-13 से केवल राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम के तहत ही हुआ. 2012-13 में 40 लाख रुपये केवल चार राज्यों में खर्च हुए.
साल 2013-14 के दौरान इसी अनुदान को बढ़ाकर 68.27 लाख कर दिया गया था और वित्तीय वर्ष 2013-14 की तुलना में 2017-18 में धीरे-धीरे यह घटकर 18.19 लाख रुपये हो गया.
वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान, नीति आयोग की वेबसाइट के अनुसार, 20 संगठनों को 1.47 करोड़ रुपये जारी किए गए थे, लेकिन आरटीआई के जवाब से खुलासा हुआ कि केवल चार संगठन को ही कुल 18.19 लाख रुपये का फंड मिला है.
ये आंकड़े रोजगार सृजन की दिशा में मोदी सरकार के लक्ष्य की वास्तविक स्थिति बताती है. इसी आरटीआई जवाब से यह भी स्पष्ट है कि, 2014-15 के बाद से किसी संगठन ने फंड उपयोग प्रमाणपत्र नहीं भेजा है.
आठ अगस्त 2018 को एक अन्य आरटीआई के जवाब से यह भी सामने आया कि ‘हैंडलूम वीवर्स कॉम्प्रिहेंसिव वेलफेयर स्कीम’ के तहत, टीएसपी फंड को लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन और आईसीआईसीआई लोम्बार्ड, मुंबई के लिए जारी किए गए थे ताकि अनुसूचित जनजाति बुनकरों को हेल्थकेयर बीमा सुविधा दी जा सके.
लेकिन, यहां भी आंकड़े परेशान करने वाले हैं. साल 2013-14 में बीमा कवरेज के लिए 1.61 करोड़ रुपये जारी की गई थी और वहीं 2017-18 में इसे घटाकर 32 लाख रुपये कर दिया गया.
यह स्पष्ट रूप से दो चीजों को इंगित करता है. एक तो ये कि अंतिम लाभार्थियों की संख्या में भारी कमी आई है और दूसरा यह कि लगभग 80% लाभार्थी या तो बेरोजगार हो गए हैं या योजना से बाहर कर दिए गए हैं.
साल 2015-16 से बजट प्रावधान में घोषित व्यापक हथकरघा क्लस्टर विकास योजना के संबंध में सूचना मिली कि टीएसपी के तहत कोई धनराशि आवंटित नहीं की गई है.
यह स्पष्ट रूप से जनजातीय समुदायों के प्रति केंद्र सरकार की उदासीनता को दर्शाता है. सबसे दिलचस्प जवाब सेंट्रल वूल डेवलपमेंट बोर्ड का था.
इसने 2010-11 से 2017-18 तक टीएसपी फंड से सात करोड़ प्राप्त किए थे और किसी व्यक्ति को नहीं, बल्कि संस्था को ही 6.63 करोड़ रुपये वितरित किए. लेकिन, उन्होंने बताया कि वे उन संस्थाओं का कोई रिकॉर्ड नहीं रखते हैं, जिसे टीएसपी फंड वितरित किया गया था.
आदिवासी विकास मंत्रालय की भूमिका
इस देश में एक आदिवासी विकास मंत्रालय भी है. सवाल है कि इस मंत्रालय के मंत्री क्या कर रहे हैं? वह भी तब, जब इस मंत्रालय को इन सभी तथ्यों की जानकारी है.
साल 2015 में इसी मंत्रालय ने सवाल उठाया था कि टीएसपी फंड का इस्तेमाल अन्य कामों में क्यों किया जा रहा है? लेकिन ऐसा लगता है कि मंत्रालय की आपत्ति के बाद भी उस पर ध्यान नहीं दिया गया और यह काम अब तक जारी है.
जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, कुल 37 मंत्रालय व विभागों को टीएसपी का फंड दिया जाता है और 289 योजनाएं टीएसपी में शामिल हैं. लेकिन पैसा कहां खर्च हो रहा है, ये सबसे बड़ा सवाल है.
अब सरकार यह कह सकती है कि टीएसपी को कोई संवैधानिक या कानूनी सुरक्षा प्राप्त नहीं है, इसलिए इसकी राशि को अन्य कामों में खर्च किया जाता है.
लेकिन क्या यह नैतिक कृत्य माना जा सकता है? जिस काम के लिए फंड आवंटित हो, योजना बनी हो, उस योजना का और उस फंड का इस्तेमाल ठीक उसके उलट किया जाए, तो इसे क्या कहेंगे, नैतिक अपराध या भ्रष्टाचार?
(मोदी सरकार की प्रमुख योजनाओं का मूल्यांकन करती किताब वादा-फ़रामोशी का अंश विशेष अनुमति के साथ प्रकाशित. आरटीआई से मिली जानकारी के आधार पर यह किताब संजॉय बासु, नीरज कुमार और शशि शेखर ने लिखी है.)
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