लोकसभा चुनाव: भाजपा हो या कांग्रेस दोनों के इर्द-गिर्द ही उत्तराखंड की राजनीति का पहिया राज्य बनने के दौर से घूम रहा है. चाल-चरित्र के मामले में दोनों में कोई भी बुनियादी फ़र्क़ न होने से अलग राज्य बनने के पीछे के सपने चकनाचूर होते चले गए.
पहाड़ों की पांच लोकसभा सीटों से केंद्र में बनने वाली किसी सरकार पर न पहले फ़र्क़ पड़ा न अब, लेकिन ऐसे मौसम में यहां के लोगों की ज़िंदगी में बदलाव की उम्मीदें हर बार की तरह हिलोरें ले रही हैं.
चुनावी शोर में भी यहां के ज़्यादातर लोगों को भरोसा जगा है कि पहाड़ों की बुनियादी समस्याओं, अस्पताल, शिक्षा, सड़क, रोज़गार, पलायन, विकास, भ्रष्टाचार, नदियों पर बांध, अवैध खनन के धंधों को लेकर केंद्र में बनने वाली नई सरकार पर नए सिरे से कुछ ठोस सोचने का दबाव बढ़ेगा.
क्या ऐसा वाकई हो पाएगा, इसके लिए बस टकटकी लगाकर इंतज़ार करने के अलावा और रास्ता नहीं. वोट भले ही 11 अप्रैल को पड़ेंगे लेकिन नतीजों के लिए दो माह का लंबा इंतज़ार लोगों को दिल थाम कर करना होगा.
भाजपा ने उत्तराखंड में भी विकास के बजाय चौकीदार, राष्ट्रवाद, सर्जिकल स्ट्राइक और ऐसे तमाम मुद्दे जिनका पहाड़ की जनता के दुख-दर्द से कोई वास्ता नहीं, इस चुनाव में जमकर उछाला है. चूंकि सेना और अर्धसैनिक बलों से रिटायर्ड लोगों के वोट लाखों की तादाद में हैं. इसमें भाजपा जुनून खड़ा करने का कोई मौका नहीं चूक रही.
हर जगह लोगों का एक वर्ग है जो इन हवाई मुद्दों में बहता हुआ दिख रहा है. यहां भाजपा यह नहीं बताती कि केंद्र व राज्य में एक ही पार्टी की सरकार बनाने के जिन वायदों के आधार पर 2014 से लेकर 2017 में वोट मांगे गए थे, उन्हें पूरा किया या नहीं.
विकास की पिच पर वोट मांगने का दांव भाजपा को उलटा दिख रहा है. सो जिस आधार पर पूरे देश में भावनाओं का गुबार भड़काया जा रहा है, उसी फॉर्मूले पर पहाड़ों में भी वोट पाने की होड़ है.
भाजपा हो या कांग्रेस दोनों के इर्द-गिर्द ही यहां की राजनीति का पहिया राज्य बनने के दौर से घूम रहा है. चाल-चरित्र के मामले में दोनों में कोई भी बुनियादी फ़र्क़ न होने से ही राज्य बनने की अवधारणा और सपने चकनाचूर होते चले गए.
पहाड़ों के विकास के मॉडल की बुनियाद पर चर्चा नहीं हो रही. चिंतन-मंथन के बजाय राज्य में डेढ़ दशक से सियासी अस्थिरता का दौर हावी रहा.
जो सरकार का मुखिया बना, उनकी पहली सुबह से लेकर देर रात तक का समय सरकार बचाने का जुगाड़ करने में लग गया. पहली निर्वाचित सरकार बनी तो सरकारी पद और लालबत्तियों की तादाद 300 से भी पार कर गई.
लाल बत्तियां विकास का मॉडल बन गईं और राज्य किस मक़सद के लिए बना उसकी सोच का उस सबका हश्र सामने है.
केंद्र में 2004 से 2014 तक कांग्रेस के नेतृत्व में भी सरकार 10 साल रही. उसकी ओर से भी इस हिमालयी क्षेत्र के संरक्षण के लिए कोई गंभीर सोच सामने नहीं आई.
उत्तर प्रदेश से इस अंचल को अलग कर हिमालयी विकास की संरचना तैयार करने के बारे में भाजपा या कांग्रेस ने आपस में मिल बैठकर कोई साझा चिंतन किया हो इसकी ऐसी कोई मिसाल बहुत ही कम मिलती है जिसे लेकर नेताओं व यहां के भाग्य विधाताओं के बारे में लोगों का भरोसा और आदर उमड़ पड़ा हो.
वस्तुत: उत्तराखंड राज्य बनने के बावजूद यहां की सियासत का चरित्र नहीं बदल सका. सामाजिक व भौगोलिक पृष्ठभूमि ही ऐसी है कि उत्तर प्रदेश व बाकी पड़ोसी राज्यों के साथ यहां की राजनीति का पहिया घूमता नहीं दिखा.
त्रासदी कहें या विडंबना कि राज्य तो बना क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल पर, अलग राज्य का एक प्रचंड आंदोलन जिसने यूपी ही नहीं उत्तर भारत और केंद्र की सरकार को इस क़दर हिलाकर रख दिया कि एक और पर्वतीय राज्य बनाने के अलावा कोई उपाय ही नहीं बचा.
राज्य बनने के बाद भी कांग्रेस व भाजपा जैसी पार्टियों के चंगुल से जनमानस बाहर इसलिए नहीं निकला क्योंकि पहाड़ के लोगों की तक़दीर बदलने और अलग राज्य आंदोलन में मुख्यधारा में होने के बावजूद क्षेत्रीय पार्टी या उसके नेताओं को इस भरोसे के क़ाबिल लोगों ने नहीं समझा कि उन्हें माटी के लाल समझकर बागडोर दी जाए.
आख़िर तेलंगाना भी तो छह साल पहले बना. वहां राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक दूसरी बड़ी पार्टियां साफ़ हो गईं. तेलंगाना राज्य आंदोलन की कमान संभालने वाली पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को लोगों ने 2018 में ऐसा भारी जनादेश दिया कि कांग्रेस, भाजपा व दूसरे प्रमुख दलों के छक्के छूट गए.
उत्तराखंड के साथ ही झारखंड भी बना तो आज भी क्षेत्रीय-राष्ट्रीय गठबंधनों में शामिल रहे इस क्षेत्रीय दल के इर्द-गिर्द वहां की राजनीति घूमती दिख रही. ऐसा उत्तराखंड में क्यों नहीं हुआ यह हर कोई अपनी चमक और साख खो चुके उत्तराखंड क्रांतिदल से पूछता है.
राज्य बनने के बाद सुविधा और शॉर्ट कट की राजनीति ने सबसे ज़्यादा अहित उत्तराखंड के उन लोगों के साथ किया जो इस आस में थे कि राज्य की सियासत में पर्वतीय लोगों की आवाज़ पहले से ज़्यादा बुलंदी से सुनी जाएगी. लेकिन धनबल की राजनीति ने सारे सपने चकनाचूर कर दिए.
भाजपा व कांग्रेस मुद्दों पर न तो कभी टिके और ना ही वायदों की कसौटी पर कभी खरे उतरे. यहां की अहम संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिकरण ने सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाया.
हर प्रदेश के विकास के मॉडल की नींव राज्य की राजधानी की भौगोलिक स्थिति पर बहुत कुछ निर्भर करती है. ख़ासतौर पर पर्वतीय प्रदेशों की.
शासन, प्रशासन और सरकारी मशीनरी को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने का ईमानदारी से किसी ने सोचा नहीं. जैसे कि किसी स्टेशन से रेलगाड़ी गलत पटरी या उलटी दिशा की ओर जाएगी तो उससे मंज़िल पर सही सलामत पहुंचने का मुगालता पालना ही बेमानी है.
पहाड़ में राज्य बनने के बाद यहां के लोग जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, वह कभी चुनावी मुद्दे नहीं बने. दोनों ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने इस बात को एक तरह से मन में गांठ बांधकर मान लिया कि यहां पहाड़ों का वोटर हर बार चुनावी लहर के उन्माद में बहकर वोट डालता है.
जैसा कि 2004 के चुनाव में हुआ. मोदी लहर की आंधी में उत्तराखंड की पांचों सीटें भाजपा की झोली में चली गईं.
मार्च 2017 के विधानसभा चुनाव यूपी के साथ यहां भी हुए तो दो तिहाई से ज़्यादा सीटें जीतकर भाजपा ने इतिहास तो रचा लेकिन जनता का आकांक्षाओं को पूरा करने में सरकार बुरी तरह नाकाम रही.
सरकारी ख़ज़ाने की लूट, भ्रष्टाचार, बेलगाम नौकरशाही, भ्रष्टाचार के मामलों में दोहरे मानंदड और दूरदराज़ के गांवों की अनदेखी. शासन चलाने में कोई पारदर्शिता नहीं. हर काम के लिए निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के बजाय सरकारी बाबुओं पर निर्भरता.
पांच लोकसभा सीटें, लेकिन हर सीट के अपने समीकरण
उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल सीट भाजपा आलाकमान के गले की फांस बन गई. हार जीत के नतीजे तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे लेकिन चुनाव प्रचार में बीजेपी के हाथ-पांव फूल गए. सब लोग सवाल करते दिखे कि आख़िर पांच बार भाजपा के टिकट पर सांसद रहे मेजर भुवन चंद्र खंडूड़ी के पुत्र मनीष यहां से चुनाव लड़ने क्यों उतर आए.
हर कोई इस बात को जानता है कि भाजपा ने जिन वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा की उनमें जनरल खंडूड़ी भी थे. सितंबर 2018 में रक्षा मामलों को संसदीय समिति से हटाए जाने का औचित्य क्या था जबकि संसद का कार्यकाल कुछ ही माह का बचा था.
उनकी संसदीय सीट पर पार्टी के भीतर कई दावेदारों के होर्डिंग 2014 के आम चुनावों के बाद से ही गढ़वाल क्षेत्र में लगने आरंभ हो गए थे. तथाकथित भावी सांसदों के होर्डिंग भाजपा में किसकी शह पर लग रहे थे.
बहरहाल पौड़ी सीट पर मुक़ाबला रोचक है. यहां तीरथ सिंह रावत जैसे ज़मीनी कार्यकर्ता की अहमियत पहली बार भाजपा आलाकमान को पता लगी. तीरथ को जनरल खंडूड़ी का सबसे विश्वसनीय नेता माना जाता है. आख़िरी क्षणें में खंडूड़ी के बेटे के ख़िलाफ़ उन्हीं की विरासत संभालने वाले को उतारना भाजपा की मजबूरी बन गई थी.
नैनीताल से हरीश रावत के मैदान में उतरने से भाजपा के पसीने छूटे हुए हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में रावत दो सीटों पर चुनाव हारने के बावजूद उत्तराखंड में कांग्रेस का सबसे मजबूत और कद्दावर चेहरा हैं. रावत सियासी दांवपेचों के माहिर हैं. कांग्रेस में भितरघात के बावजूद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट के मुकाबले हरीश रावत हर मामले में भारी हैं लेकिन सामाजिक-धर्मिक ध्रुवीकरण के सहारे भाजपा आखिर तक पूरा दम लगाए हुए है.
अल्मोड़ा सुरक्षित सीट पर कांग्रेस के प्रदीप टम्टा का सीधा मुक़ाबला केंद्रीय राज्य मंत्री अजय टम्टा से है. दोनों ही चेहरों में मुक़ाबला रोचक है. प्रदीप 2014 में यहां से चुनाव हार गए थे. उनके सामने हार का बदला लेने की कड़ी चुनौती है.
टिहरी लोकसभा सीट में महारानी माला राज्य लक्ष्मी के ख़िलाफ़ कांग्रेस ने राज्य कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह जैसे दमदार उम्मीदवार को सोच समझकर उतारा.
देहरादून का बड़ा शहरी क्षेत्र टिहरी लोकसभा का हिस्सा है. शहरों में भाजपा मजबूत वोट बैंक के सहारे पर है. लेकिन छात्र राजनीति से आए प्रीतम सिंह को देहरादून के चकराता, विकासनगर और सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों से भरपायी की आस बंधी हुई है.
हरिद्वार लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार रमेश पोखरियाल निशंक की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. वे सबसे मज़बूत उम्मीदवारों में गिने जा रहे हैं.
सामाजिक समीकरणों के हिसाब से भाजपा इस सीट को भले ही सबसे सुरक्षित सीट मान रही है लेकिन सारा दारोमदार यहां मतदान के प्रतिशत पर निर्भर करेगा. निशंक का मुक़ाबला यहां कांग्रेस के अंबरीश कुमार से है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)