ग्राउंड रिपोर्ट: मध्य प्रदेश के ग्वालियर में पिछले साल 2 अप्रैल को ‘भारत बंद’ के दौरान हुए उपद्रव में राकेश टमोटिया और दीपक जाटव की गोली लगने से मौत हो गई थी.
2 अप्रैल 2018 को देश के उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम में किए गए संशोधन के ख़िलाफ़ विभिन्न दलित संगठनों ने ‘भारत बंद’ का आह्वान किया था. इस दौरान देश के कई हिस्सों में हिंसा हुई थी.
ऐसी ही एक हिंसा की घटना में मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में दो दलित युवकों की गोली लगने से मौत हो गई थी. 22 वर्षीय दीपक जाटव और 40 वर्षीय राकेश टमोटिया को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
घटना से संबंधित वीडियो भी सामने आए थे जिसमें उच्च जाति के युवक गोलियां बरसाते दिखाई दिए थे. जिसके आधार पर दोनों मामलों में कुल सात लोग मुख्यारोपी बनाए गए.
राकेश टमोटिया की मौत के मामले में महेंद्र सिंह चौहान, ऋषभ चौहान और ऋषि गुर्जर तो दीपक जाटव की मौत के मामले में राजा चौहान, लवली तोमर, आदित्य राणा, राजेश परमार, महेंद्र चौहान और ऋषभ भदौरिया पर आरोप तय किए गए.
लेकिन, घटना को सालभर बीतने के बाद भी आज दीपक और राकेश के परिवार इंसाफ के लिए आस लगाए बैठे हैं. मौत के बाद शासन-प्रशासन की ओर से किए गए वादे पूरे नहीं हुए हैं.
दो अप्रैल को घटना की पहली बरसी के मौके पर ‘द वायर’ ने दोनों पीड़ित परिवारों से मुलाकात की. इस दौरान उनका दर्द छलक आया. शासन से लेकर प्रशासन और राजनेताओं की अनदेखी से त्रस्त पीड़ित परिवारों ने जहां एक ओर न्याय की आस छोड़ दी है तो वहीं दूसरी ओर आरोपियों का खुला घूमना उनके दहशत में रहने का कारण बना हुआ है.
सबसे पहले हम एक अप्रैल की शाम पहुंचे थाठीपुर के भीम नगर स्थित मृतक राकेश टमोटिया के घर.
चूंकि दो तारीख को घटनाक्रम की बरसी थी इसलिए इस मौके पर कहीं फिर से शहर में कोई वैसी अनहोनी न घट जाए, प्रशासन ने हिंसा का केंद्र रहे थाठीपुर क्षेत्र में हजारों की संख्या में पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के जवान तैनात कर रखे थे.
यहां तक कि पीड़ित परिवारों के घर पर भी बााकायदा पुलिस की निगरानी थी. इस पर राकेश के भाई लाखन टमोटिया ने हमें बताया, ‘पुलिस को शक है कि कहीं हमारे घर में 2 अप्रैल को लेकर कोई मीटिंग या प्लानिंग न हो रही हो, इसलिए वे लगातार नजर बनाए हुए हैं. पिछले दो दिन से दिन में कई-कई बार चक्कर तो लगा ही देते हैं.
भीमनगर के अंदरूनी हिस्से में एक छोटी पहाड़ी पर संकरी गली में बने मिट्टी-पत्थर के मकान में राकेश के परिजन रहते हैं. करीब 100 वर्गफुट के एक कमरे में हमें सभी परिजनों के साथ बिठाते हुए लाखन कहते हैं, ‘आप ही बताइए कि क्या इस तरह यहां हम मीटिंग लेंगे शहर को अशांत करने के लिए.’
जब लाखन से वर्तमान हालातों पर बात की तो उन्होंने बताया, ‘भाई की मौत के बाद शासन-प्रशासन की ओर से कई घोषणाएं और वादे हुए. लेकिन कागज पर ही रह गए, जमीन पर नहीं आए.’
वे आगे कहते हैं, ‘मुकदमे में पुलिस ने जिन्हें अपराधी घोषित किया था, उन्हें गिरफ्तार करके जमानत पर छोड़ दिया. अब हमें अदालत से बार-बार गवाही के लिए बुलाते हैं. लेकिन गवाहों का कहना है कि आरोपी खुलेआम घूम रहे हैं, गवाही देने गए तो हमें परेशान करेंगे. वहीं, हमारे वकील का कहना है कि गवाही तो देकर आओ, तब मामले को आगे बढ़ाएं.’
साथ ही राकेश के परिजन कहते हैं कि सीधे तौर पर आरोपी हमसे संपर्क भले ही न करें लेकिन हमें दबाव में लाने के लगातार प्रयास हो रहे हैं. हम और हमारे गवाह कहीं जाते हैं तो चार-छह लोग इधर-उधर से हमें घेरकर चलने लगते हैं.
लाखन बताते हैं, ‘जैसे मैं नौकरी जाता हूं. मेरे पीछे दो-चार आदमी इधर-उधर से इकट्ठे होकर लग देते हैं. कोर्ट जाओ तो उनके आदमी चारों तरफ से घेर लेते हैं. कहते या करते कुछ नहीं, बस दहशत में रखना चाहते हैं. डराना चाहते हैं ताकि हम मामले से पीछे हट जाएं. मैंने इस संबंध में कई बार शिकायत की. कांग्रेस के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी आए थे, उनसे भी बोला कि हम पर इस तरह दबाव बनाते हैं. वे बोल गए कि जांच करवाएंगे लेकिन उन्होंने भी कुछ नहीं किया.’
इस बीच लाखन के छोटे भाई मंगल सिंह और उनके पिता नेतराम भी आ जाते हैं. हमारी बातें सुनकर मंगल कहते हैं, ‘हम किससे कहेंगे कि गवाहों को डर है. हम बेलदार आदमी हैं. अनपढ़ हैं. इतना भी नहीं जानते कि शिकायत करें कहां? थाने में कोई सुनवाई नहीं होती. सब उनके ही लोग भरे हैं. गोली चल रही थी, तब वे खुद साथ थे.’
दबाव की यह बात मृतक दीपक जाटव के परिजन और आस-पड़ोसी भी कहते हैं. 2 अप्रैल की सुबह हम दीपक के गल्ला कोठार स्थित घर उस समय पहुंचे, जब घर के ही सामने बने एक चबूतरे पर उनकी श्रद्धांजलि सभा का आयोजन था. जाटव बहुल इस बस्ती के काफी लोग उस सभा में जुट हुए थे.
सुरक्षा की दृष्टि से सामने ही पुलिस ने अपने कुछ जवान भी तैनात कर रखे थे. इस दौरान दीपक के पिता मोहन जाटव और उनके पड़ोसी महेश मंडेलिया ने हमें बताया, ‘कोर्ट जाओ तो वे हथियारबंद लोग आस-पास खड़े दिखते हैं. यह क्या किसी धमकी से कम है? इस तरह डरकर कौन गवाही देने जाएगा?’
वे कहते हैं, ‘राजा चौहान ने सरेआम गोलियां चलाईं. वीडियो मौजूद है. दीपक की मौत का यह साफ सबूत है. मीडिया ने भी देखा और शासन-प्रशासन की नजर में भी है. जब इतना बड़ा सबूत है तो गवाह की जरूरत नहीं होनी चाहिए. सीधा उस पर केस ठुके और सजा हो.’
‘पीड़ितों की पीड़ा नेताओं के लिए बस फोटो खिंचाकर अपनी राजनीति चमकाने तक ही सीमित है’
जब घटना घटी तब मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. लेकिन अब कांग्रेस सत्ता में है. कांग्रेस की बेरुखी से भी पीड़ित नाराज हैं.
दीपक की श्रद्धांजलि सभा में मौजूद शिवचरण लाल जाटव कहते हैं, ‘कांग्रेस से विधायक मुन्नालाल गोयल जीत गए. जब चुनाव था, तब वोट मांगने आए. दीपक खत्म हुआ तब सिंधिया आए. आश्वासन दे गए. तब प्रदेश में उनका शासन नहीं था. अब तो उनका शासन है. वे कुछ भी कर सकते हैं. छह महीने हो गए सरकार को बने लेकिन उन्होंने शक्ल तक वापस नहीं दिखाई.’
महेश कहते हैं, ‘सरकार में हम खुद ही जाकर मिलें तो किससे मिलें? जो भाजपा में शामिल थे, अब वही कांग्रेस में हैं ज्यादातर. वे आकर केवल औपचारिकता पूरी करते हैं. मकसद वोट होता है. मदद की बारी आती है तो कोई सुनवाई नहीं होती.’
वे आगे कहते हैं, ‘जब हमारे साथ दुर्घटना हुई तो ये लोग आंसू बहाने आए. जब सरकार में पदस्थ हो गए तो स्वत: एक्शन लेना था. मतदाता ने आपको चुन लिया. उसकी समस्या आपकी नजर में है तो उस पर कार्रवाई क्यों नहीं? जीतकर आप वापस हमारे पास क्यों नहीं आए? मतलब कि केवल वोट लेने आए थे तब. अब उनका कोई प्रतिनिधि हमारे पास आए और बात करे. जिग्नेश मेवाणी भी आकर यही कह गए कि हम पावर में नहीं हैं.’
लाखन कहते हैं, ‘सिंधिया जी आए. साथ में उनके समर्थक आए. फोटो खिंचवाए. सिंधिया जी समर्थकों से कह गए कि जो भी परेशानी हो, इनकी मदद करना. सब चले गए. अब उन समर्थकों के पास जाते हैं तो कहते हैं कि हम देख लेंगे, बात कर लेंगे. तुम आगे-आगे मत फिरो, तुम्हें परेशानी होगी. ऐसा कहकर टहला देते हैं.’
जब राकेश की मौत हुई, उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी बेटी की शादी थी. लाखन बताते हैं, ‘तब सिंधिया जी बोलकर गए थे कि लड़की की शादी का सारा खर्च मेरी तरफ से होगा. हमने तब शादी स्थगित कर दी और इस साल 8 मार्च को समाज की सहायता से शादी की. सिंधिया का आश्वासन बस आश्वासन ही रह गया.’
उनके भाई मंगल सिंह कहते हैं, ‘नेता इतने आए, बस आश्वासन दे गए. आश्वासन देने से क्या होता है? खुलकर कोई नहीं बोला कि हम ऐसा करेंगे. सांसद नरेंद्र सिंह तोमर आए, कह गए कि कुछ करते हैं. सिंधिया आए वो भी कह गए कि हम देख लेंगे. उसके बाद दोनों का कुछ अता-पता नहीं. और भी बड़े-बड़े नेता आए. कोई भी अपना नंबर देकर नहीं गया. मदद की जरूरत पड़े तो सीधा उनसे कैसे संपर्क करें. वे बस अपनी राजनीति चमका गए.’
राकेश और दीपक, दोनों के ही परिवारों के सामने एक चुनौती यह भी है कि वह अदालती मुकदमे का खर्च कैसे उठाएं? हालांकि, शासन ने उस समय दोनों ही परिवारों को 4 लाख 12 हजार रुपये की सहायता राशि दी थी. लेकिन, उनके सामने प्रश्न यह है कि उस सहायता राशि से वे पुनर्वास करें या फिर मुकदमा लड़ें?
लाखन कहते हैं, ‘भीम आर्मी ने भी अपने किराए खर्च पर हमें दिल्ली बुलाया था. हम गए तो एक आंबेडकर की तस्वीर और एक ‘भारत बंद’ के दौरान शहीद हुए 11 दलितों की तस्वीर दी. अब एक बात बताइए कि भीम आर्मी इतना बड़ा कार्यक्रम चला रही है. उन्हें पता है कि हम परेशान हैं लेकिन वे बस कहते हैं कि आपकी लड़ाई लड़ रहे हैं. लड़ाई तो आप दिल्ली में लड़ रहे हैं. यहां कम से कम एक अच्छे वकील की तो व्यवस्था कर दो. यही दूसरे नेताओं का हाल है. कह देते हैं कि हम देख लेंगे और फलां वकील से बात कर लेंगे. वो आएंगे आपके यहां, लेकिन कोई नहीं आता.’
मंगल बीच में कहते हैं, ‘भाई साहब! सच तो यह है कि जो अनपढ़ है उसे बेवकूफ बनाने के लिए सब राजनीति चल रही है. बस ये है कि सबने मामला अंतरराष्ट्रीय बना लिया लेकिन हमें कोई लाभ नहीं हुआ. लड़ हम अकेले ही रहे हैं.’
मंगल के मुताबिक, आरोपियों के नामी वकीलों के सामने एक अच्छा वकील खड़ा करने लायक उनके पास पैसा नहीं है. वे कहते हैं, ‘हमारा वकील इतना जानकार नहीं है. बस हमारे समाज और रिश्तेदारी के हैं तो कम खर्च में कोर्ट की कार्रवाई निपट जाती है. ऊपर से मामला जाति-पाति का है तो हर वकील पर भरोसा नहीं कर सकते. आपने तो देखा ही होगा कि ‘भारत बंद’ के दौरान हिंसा के आरोप में जिन दलितों को पकड़ा गया था, उनकी पेशी के समय वकीलों ने उन पर हमला कर दिया था. अब कैसे हम किसी वकील पर भरोसा कर लें? इतने बड़े-बड़े नेता हमसे मिलने आए, यही किसी वकील का इंतजाम करा लेते. लेकिन…’
मायूसी में वो यहीं अपनी बात खत्म कर देते हैं.
लाखन बताते हैं, ‘सच्चाई यह है कि कोई भी वारदात होती है तो यहां के स्थानीय नेता टपक पड़ते हैं. उस वारदात के जरिए अपने रोजी-रोटी का जुगाड़ चालू करके नेतागिरी चमकाते हैं.’
शासन-प्रशासन के किए वादे अब तक पूरे नहीं हुए
मोहन जाटव का कहना है कि पोस्टमार्टम के समय ही प्रशासन ने बंदूक के लाइसेंस और सरकारी नौकरी का भी मौखिक तौर पर वादा किया था. लेकिन अब तक उन वादों को भी नहीं निभाया है. हमारे बार-बार चक्कर काटने के बाद वे लाइसेंस को तैयार हुए लेकिन बार-बार कभी चुनावी आचार संहिता, तो कभी त्योहार की कहकर टाल देते हैं. सरकारी नौकरी पर तो बात ही नहीं करते.
वहीं, मामले में मोहन जाटव का मार्गदर्शन कर रहे एक स्थानीय नेता रामअवतार जाटव कहते हैं कि शासन ने 4 लाख 12 हजार रुपये का मुआवजा जरूर दिया है लेकिन वादा मुख्यमंत्री सहायता कोष से भी मदद का दिया था, लेकिन वह मदद अब तक नहीं मिली है.
शिवचरण कहते हैं, ‘मंदसौर के किसान आंदोलन के दौरान जान गंवाने वालों को एक-एक करोड़ की मुआवजा राशि दी गई. हमने भी यही मांग की लेकिन हमें 10 प्रतिशत भी नहीं मिला.’
वहीं, मंगल सिंह बताते हैं, ‘नौकरी और बंदूक के लाइसेंस के अलावा सरकारी आवास योजना का मकान भी देने का कहा था. पोस्टमार्टम के वक्त कलेक्टर साहब ने कहा था. लेकिन, लिखित में कुछ नहीं दिया. अब वादा याद दिलाने जाएं तो बंगले पर भी नहीं घुसने देंगे चौकीदार हमें.’
महेश कहते हैं, ‘सत्ता से हमारा संपर्क नहीं हैं इसलिए हम बेझिझक कोई बात कह ही नहीं पाते. जिनकी सत्ता से यारी होती है, उनकी सुनवाई हाल होती है. हमारा कोई प्रतिनिधि ही नहीं बैठा वहां. हम बस चिल्लाते रहते हैं जो बस कुत्तों की तरह भौंकना है जिसे लात भी मार दी जाती है.’
इस सबके बीच परिवारों को अपनी सुरक्षा की भी चिंता खाए जाती है. मंगल का कहना है कि हम मजदूर चौक पर मजदूरी के लिए खड़े होते हैं. कोई भी आकर काम पर कहीं भी बुलाकर ले जा सकता है. हमें पता नहीं होता कि कहां जा रहे हैं. बेलदार आदमी हैं, सुरक्षा रख नहीं सकते और घर पर बैठकर खा नहीं सकते.
राकेश की मौत के मामले में मंगल सिंह भी स्वयं गवाह हैं. वे पुलिस की कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हुए आरोप लगाते हैं कि उनके पढ़े-लिखे न होने का फायदा उठाकर पुलिस ने उनके बयानों के साथ छेड़छाड़ की है. जो बोला था, वो लिखा ही नहीं और हमसे बयानों पर साइन करा लिए. एक-दो आरोपियों के नाम हटा दिए हैं. यह बात हमें तब पता चली जब वकील ने हमें केस फाइल पढ़कर सुनाई. अदालत में फिर गवाही होगी तो हम इस बात को उठाएंगे.
जब हम राकेश के परिजनों से बात कर रहे थे., उसी दौरान गश्त पर पुलिस आकर दरवाजा खटखटा गई. इस पर परिजनों ने फिर दोहराया कि वे देखने आ रहे हैं कि कहीं मीटिंग तो नहीं चल रही. लाखन बोले, ‘जैसे ही कोई घटना होती है, वे यहीं आते हैं कि कहीं कोई मीटिंग तो नहीं चल रही. मैं सुबह आठ बजे का निकलता हूं. रात 9 बजे घर पहुंचता हूं. बचे समय में किससे मीटिंग लूंगा…’
मंगल कहते हैं, ‘हम सब मजदूर आदमी हैं. कहां तोड़-फोड़ जैसे काम करेंगे. अपना पेट पालने से ही फुर्सत नहीं.’
बहरहाल, हर ओर से निराश राकेश के परिजन केस आगे लड़ने में खुद को असमर्थ पाते हैं और कहते हैं कि मजदूर आदमी हैं, रोज कमाते हैं, खाते हैं. बच्चों को पालें कि इधर-उधर घूमते फिरें.
राकेश के पिता नेतराम घर के हालातों पर बात करते हुए कहते हैं कि 70 साल की उम्र में मां घर-घर बर्तन साफ करने जाती है. बड़ी मुश्किल से गुजारा हो रहा है.
मंगल कहते हैं कि केस थोड़ा-बहुत चलेगा चल जाएगा. वरना आगे जाकर खत्म ही करना पड़ेगा. हम इतने सक्षम नहीं कि उन लोगों से टकराव ले सकें. लेकिन पीछे हटते हैं तो समाज यही कहेगा कि कुछ ले-देकर हमने अपने भाई की जान का सौदा कर दिया. इसलिए समाज की एक मीटिंग मीडिया के सामने लेकर अपनी अक्षमता की घोषणा कर देंगे. पिताजी के पास जितने पैसे थे, वे लगा चुके. जो 4 लाख 12 हजार की राशि मिली, वह भाभी (राकेश की पत्नी) ने अपने भविष्य के लिए रखी है.’
बहरहाल, दीपक के भाई राजेंद्र जाटव बताते हैं कि आरोपियों को जब जमानत मिली थी, उसके कुछ ही दिनों बाद उन्होंने हमारे इलाके गल्ला कोठार में आकर आसमानी फायर किए थे. जिसकी हमने शिकायत भी दर्ज करा रखी है. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है.’
इस पर मोहन कहते हैं, ‘कभी-कभी तो लगता है कि हमें बस्ती ही छोड़नी पड़ेगी.’ अंत में वे कहते हैं, ‘हमारा बच्चा मर गया और अब तक देखा जाए तो गुनाहगार जेल भी नहीं पहुंचे हैं. गिरफ्तारी दर्शाकर जमानत ले आए.’
मामले के संबंध में हमने ग्वालियर पुलिस अधीक्षक नवनीत भसीन और कलेक्टर अनुराग चौधरी से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)