जब हिंदूवादी देश के सभी 18 करोड़ मुसलमानों को गोहत्यारा और सभी हिंदुओं को गोरक्षक घोषित कर चुके हों, ऐसे सांप्रदायिक पागलपन के माहौल में एक मुसलमान के ऊपर गाय के बछड़े का गिर जाना एक घटना तो है ही, एक बिंब,एक फैंटसी और एक प्रतीक भी है.
घटना इस प्रकार है. अप्रैल महीने का आख़िरी दिन था. सुबह आठ बजे का वक़्त था. दिन रविवार था. महानगर कोलकाता के तिलजला इलाके के मस्जिद बारी लेन में 43 वर्षीय अब्दुल मन्नान सब्जी खरीदने गया था.
जी हां, गोमांस नहीं, सब्जी, फिर से बता दूं सब्जी. सब्जी की दुकान एक चार मंजिला इमारत के नीचे थी. इमारत की ऊपरी मंजिल पर एक किरायेदार ने पता नहीं क्या सोचकर एक गाय पाल रखी थी.
छह महीने पहले उस गाय ने एक बछड़ा या हो सकता है, बछड़ी दी हो. अंग्रेजी में दोनो के लिए एक ही शब्द इस्तेमाल होता है- calf (यह ख़बर एक अंग्रेजी अखबार में छपी है). मान लें कि वह बछड़ा था, जो अब करीब 86 किलो का हो चुका था.
ज़ाहिर है कि वह कई दिनों से रस्सी तोड़कर आज़ाद होने की कोशिश कर रहा होगा और संयोग से उसका यह प्रयास उस दिन रंग लाया, जिस दिन अब्दुल मन्नान सब्जी खरीद रहा था.
मुश्किल से अपनी नई-नई हासिल आज़ादी को वह बछड़ा किसी इंसान को-खासकर अपने मालिक को- ख़बर लगने से पहले खोना नहीं चाहता था, इसलिए वह बहुत जल्दी में था.
वह आज़ाद होकर भागना–दौड़ना, उछलना-कूदना चाहता था, जो शायद उसे अब तक नसीब न हुआ हो. वह खूंटे की हदों से आज़ादी हासिल करने के इस एकदम नए और अप्रत्याशित सुख में रमना चाहता था, इसलिए छत पर बनी तीन फुट की दीवार लांघकर उसने सत्तर फीट नीचे छलांग मार दी थी.
वह आदमी होता और उसका इरादा आत्महत्या करने का नहीं होता तो शायद उसे मालूम होता कि इतने नीचे छलांग लगाने का मतलब मौत के सिवाय और क्या हो सकता है? तब वह शायद अपनी आज़ादी को सुरक्षित रखने का कोई और उपाय करता, कोई तरकीब निकालता.
ठीक है कि वह हिंदुओं की मां मानी जाने वाली गाय का बछड़ा था मगर ख़ुद तो हिंदू नहीं था या बेहतर हो, यो कहें कि इंसान नहीं था (वैसे आज़ादी का ख़्वाब इंसानों से भी ऐसी गलती कई बार करवा देता है.).
उसने इस तरह अपनी जान तो ले ही ली, साथ अब्दुल मन्नान की भी लगभग जान ले ली. इस ख़बर के छपने तक मन्नान जिंदा था, हालांकि उसकी टांगों में गहरे घाव लगे थे, उसकी हड्डी-पसलियां टूट गई थीं.
उसे सिर में भयानक चोट लगी थी मगर वह अस्पताल ले जाने तक जिंदा था और क्या पता उसकी ज़िंदगी बच ही गई हो. कोई अखबार उसके मरने-जीने की ख़बर अब क्यों छापेगा? अब क्या मतलब उसकी जिंदगी या मौत से? ऐसे लोग तो मरते-जीते ही रहते हैं.
संभव है कि उस बछड़े की मां को धूप-बरसात सह-सहकर भी छत पर खूंटे से बंधे रहने की आदत पड़ चुकी हो, हो सकता है कि वह आज़ादी क्या होती है, यह भी भूल चुकी हो.
ज़मीन पर मतलब-बेमतलब घूमने-भटकने (भले ही दुत्कारा, भगाया जाए) का आनंद क्या होता है, यह उसे याद न रहा हो या उसने भी आज़ाद होने की कोशिश की हो मगर उसमें इतनी ताकत नहीं रही हो कि वह अपना खूंटा तोड़ सके जबकि उसके छह महीने के 85 किलो वज़न के युवा बछड़े में भरपूर ताकत थी और वह आजाद हो गया.
अब्दुल मन्नान उसकी आज़ादी में न बाधक था, न सहायक था. जब आदमी ही आदमी के मन की बात नहीं जान सकता तो अब्दुल मन्नान को क्या पता कि छत पर एक बछड़ा बंधा है, जो अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा है और उसने संघर्ष करके जो ताज़ी-ताज़ी सफलता हासिल की है, वह बछड़े के साथ उस पर भी भारी पड़ने वाली है.
उस अब्दुल मन्नान पर जो अंकुरित मूंग और मूंगफली मिलाकर किसी स्कूल के सामने बेचकर अपना गुजारा चलाता था. न दोष बछड़े का था, न मन्नान का, न सब्जी बेचने वाले का, न अप्रैल महीने का और न उस रविवार का.
दोष अगर कोई था तो शायद उसका था, जिसने छत पर गाय बांधकर रखने का दुस्साहस किया था और जो शायद उस गाय-बछड़े को कभी नीचे उतारकर बाहर न ले जाता रहा हो.
उसका दोष तो रहा मगर उसका इरादा शायद बुरा न हो. किरायेदार के इस दुस्साहस के परिणामों का पता न मकान मालिक को रहा हो, न ख़ुद उस गोपालक को.
यह भी हो सकता है कि उसने छत पर गाय पालने की आज़ादी दादागिरी करके हासिल की हो या मकान मालिक खुद गोप्रेमी हो तो उसने छत पर गाय पालने को एक पुण्य कार्य समझकर इसे होने दिया हो.
संभव है कि वह किरायेदार उत्तर प्रदेश, बिहार या बंगाल के किसी गांव से आया हो, जहां उसके घर में गाय पाली जाती हो और उसने इस महानगर में भी यह प्रयोग करना चाहा हो.
हो सकता है कि वह गाय पर मचाए जा रहे इस हिंसक हल्ले के बीच गोप्रेमी बना हो. उसने गाय के नाम पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा को न्योतने की बजाय गोपालन का एक महानगरीय उदाहरण पेश करने की कोशिश की हो, ताकि लोग उसके उदाहरण से चाहें तो सीख सकें.
मान लो अगर घटना सिर्फ़ इतनी ही होती कि गाय का बछड़ा छत से गिरकर मर जाता तो शायद कोलकाता के स्थानीय अखबारों में भी. यह ख़बर नहीं छपती लेकिन उस बछड़े के साथ एक आदमी भी मरते-मरते बचा था, इसलिए उसका गिरना ख़बर बन गई.
संयोग कि वह आदमी- जो चपेट में आया- वह एक मुसलमान था, जो वैसे भी तथाकथित गोरक्षकों की चपेट में हैं, जबकि अब्दुल का न गाय बचाने से ताल्लुक था, न गाय को कथित रूप से मारने में, उसका ताल्लुक तो अपने परिवार के लिए रोटी जुटाने से था.
गाय के दूध का स्वाद तो शायद उसने कभी चखा भी न हो. बहरहाल गाज तो अंततः उस आदमी पर गिरेगी, जिसने गाय और उसके बछड़े को बिल्डिंग की छत पर पालने की कोशिश की थी. गाज उस पर गिरनी भी चाहिए.
वैसे गाज अगर उस पर गिरी होगी तो इसलिए भी गिरी होगी कि यह घटना कोलकाता की है, जहां हिंदुत्ववादी सरकार का शासन नहीं है. वहां एक ऐसी सरकार है, जो गाय के मुद्दे पर नफरत फैलाने का काम नहीं करती वरना अगर यह घटना उत्तर भारत में कहीं हुई होती तो शायद परिणाम कुछ और भी हो सकता था.
यह घटना यथार्थ तो है ही, यह आज के यथार्थ का एक मजबूत बिंब भी अनजाने ही बन गई है, जिसमें गाय जैसे प्यारे-सीधे जानवर का इस्तेमाल मुसलमानों की जान तक लेने के लिए किया जा रहा है.
यह एक प्रतीक भी है, जहां तथाकथित गोरक्षक भले ही दृश्य में नहीं हैं मगर उनका इरादा संयोग से दृश्य में है. यह घटना हमारे आज के सांप्रदायिक उन्माद को एक फैंटसी में बदलती हुई भी लगती है.
इसमें गाय है, बछड़ा है, मुसलमान है, मौत से करीबी भी है. फ़र्क़ इतना है कि इसमें बिना मारे बछड़ा मर जाता है, जबकि आदमी तत्काल तो बच जाता है. फ़र्क़ यह भी है कि यह घटना सांप्रदायिक उन्माद नहीं पैदा कर सकती, इसलिए एक तरह से हिंदुत्ववादियों के काम की नहीं है.
45 साल के एक आदमी के घायल होने या उसके संभावित रूप से मर जाने का असर उसके परिवार पर क्या हुआ होगा, यह देखना- सोचना ख़बर देने वालों का काम कभी रहा नहीं.
दिलचस्पी घटना में थी, जो कभी-कभी ही इस तरह घटती है. बहरहाल हम भी इसी परंपरा में इस पहलू को छोड़ते हैं. करोड़ों लोग पता नहीं कैसे रोज़-रोज़ त्रासदी झेलते हुए मर जाते हुए देखते-सुनते हैं, मन्नान भी तो उनमें से ही एक था.
और उस मूक प्राणी गाय के बारे में क्या सोचना, जिसका उसके साथ हर समय बंधा रहने वाला बछड़ा उससे हमेशा के लिए बिछुड़ चुका है. मूक प्राणियों के दुखों की कौन पड़ताल करता है, जो हम करें? अगर वह गाय अभी भी वहीं बंधी होगी तो वह अपना दुख किससे और कैसे बांटती होगी?
हम अपना दुख तो फिर भी बांट सकते हैं लेकिन गाय ऐसा कैसे करे? उसे शायद छत पर कुछ आवाजें सुनाई देती होंगी, जो उसके लिए पहले भी बेमतलब थीं, अब भी बेमतलब हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)