साल 1913 में आज ही के दिन (03 मई) भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र प्रदर्शित की गई थी. इस मूक फिल्म को दादा साहेब फाल्के ने बनाया था.
एक संयोग था या आगत का संकेत! साल 1895 की 28 दिसंबर को लूमियर बंधु फ़्रांस के पेरिस शहर के ग्रैंड होटल के जिस कमरे में अपने नए फोटो मशीन को दिखा रहे थे, उसका नाम ‘इंडियन रूम’ था.
छह माह बाद मुंबई में चलती हुई फ़िल्मों का प्रदर्शन हुआ. कुछ दशकों बाद भारत वह देश बन गया जहां दुनिया में सबसे ज़्यादा फ़िल्में बनने लगीं.
पश्चिम में 1995 में सिनेमा के सौ साल पूरा होने के उत्सव आयोजित हुए थे. पांच साल पहले 2012 में हमने अपने सिनेमा के सौ साल का जश्न मनाया था.
हिंदुस्तान में सिनेमा का सौंवें साल की पहली तारीख़ कुछ भी हो सकती है. 4 अप्रैल, जब राजा हरिश्चंद्र के पोस्टरों से बंबई की दीवारें सजाई गयी थीं या 21 अप्रैल जब दादा साहेब ने यह फिल्म कुछ ख़ास दर्शकों को दिखाई, या फिर 3 मई, जब इसे आम जनता के लिए प्रदर्शित किया गया.
वैसे कई लोग सखाराम भाटवाडेकर उर्फ़ सावे दादा को भारतीय सिनेमा का जनक मानते हैं, जिन्होंने लूमियर बंधुओं को देखकर कैमरा ख़रीदा और आसपास की तस्वीरें उतारने लगे. इस तरह से दादा साहब फाल्के ने भी चित्र बनाये थे.
ख़ैर, सिनेमा की कोई जन्म-कुंडली तो बनानी नहीं है कि कोई एक तारीख़ तय होनी ज़रूरी है या फिर किसने कब क्या किया. सौ साल के अरसे के पूरा हुए पांच साल और बीत गए.
इस बीच सिनेमा बनाने और देखने-दिखाने के तौर-तरीके भी बहुत बदले. इन्हीं पांच सालों में सौ से पांच सौ करोड़ कमाने वाली फ़िल्मों के क्लब बनने लगे.
सिल्वर जुबली और प्लेटिनम जुबली जैसी संज्ञाएं तो कब की ग़ायब हो चुकी हैं. बहरहाल, इतिहास तो एक लगातार लिखी, पढ़ी और खंगाली जाने वाली शय है.
सिनेमाई इतिहास फ़िल्मों के नामों या अदाकारों, तकनीशियनों और अन्य ज़रूरी प्रतिभाओं के योगदान का लेखा-जोखा ही नहीं होना चाहिए, परदे और फ़्रेम के बाहर के वाक़्यातों को भी टटोला जाना चाहिए.
तो क्या इस तारीख़ में हम पाकीज़ा के गाने गुनगुनाते रहेंगे या फिर यह भी सोचेंगे कि ‘ट्रेजेडी क्वीन’ कही जाने वाली मीना कुमारी के साथ क्या ट्रेजेडी हुई होगी?
जब वे इस जहां से रुख़सत हुईं, तो पूरे चालीस की भी तो नहीं हुई थी! कई कामयाब फ़िल्मों की कामयाब नायिका के पास मरते वक़्त अस्पताल का ख़र्चा चुकाने के लिए भी पैसा न था.
कमाल अमरोही कहां थे? कहां थे धर्मेंद्र और गुलज़ार? क्या क़िस्मत है! जब पैदा हुई, तो मां-बाप के पास डॉक्टर के पैसे चुकाने के पैसे नहीं थे.
चालीस साल बंबई में उसने कितना और क्या कमाया कि मरते वक़्त भी हाथ खाली रहे! माहज़बीन स्कूल जाना चाहती थी, उसे स्टूडियो भेजा गया.
वह सैयद नहीं थी, इसलिए उसके पति ने उससे बच्चा नहीं चाहा और एक वह भी दिन आया जब उसे तलाक़ दिया गया.
क्या सिनेमा के इतिहास में मीना कुमारी के लिए सजनी भोपाली का यह शेर भी दर्ज होगा:
तलाक़ दे तो रहे हो गुरूर-ओ-क़हर के साथ
मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ
क्या कोई इतिहासकार इस बात की पड़ताल करेगा कि मधुबाला मरते वक़्त क्या कह रही थीं? उसे तो तलाक़ भी नसीब नहीं हुआ.
उसके साथ ही दफ़न कर दिया गया था उसकी डायरी को. कोई कवि या दास्तानगो उस डायरी के पन्नों का कुछ अंदाज़ा लगाएगा?
अगर बचपन में वह भी मीना कुमारी की तरह स्टूडियो न जा कर किसी स्कूल में जाती, तो क्या होती उसकी क़िस्मत! बहरहाल वह भी मरी. तब वह बस छत्तीस की हुई थीं.
वक़्त में किसी मुमताज़ को संगमरमर का ताजमहल नसीब हुआ था, इस मुमताज़ के क़ब्र को भी मिस्मार कर दिया गया क्योंकि क़ब्रिस्तान में जगह कम हो रही थी.
शायद सही ही किया गया, देश में ज़मीन की कमी है, मुर्दों की नहीं. कभी इंटरनेट पर वह तस्वीर देखिएगा, जब पृथ्वीराज कपूर उनकी क़ब्र पर झुके खड़े हैं. कलेजा मुंह को आ जाएगा.
कवि विद्रोही एक कविता में पूछते हैं: ‘क्यों चले गए नूर मियां पकिस्तान? क्या हम कुछ भी नहीं लगते थे नूर मियां के?’
मैं कहता चाहता हूं कि माहज़बीन और मुमताज़ भी पकिस्तान क्यों नहीं चली गयीं, शायद बच जातीं, जैसे कि नूरजहां बचीं.
तभी लगता है कि कहीं से कोई टोबा टेक सिंह चिल्लाता है- ‘क्या मंटो बचा पकिस्तान में?’ मंटो नहीं बचा.
लेकिन सभी जल्दी नहीं मरते. कुछ मर-मर के मरते हैं. सिनेमा का पितामह फाल्के किसी तरह जीता रहा, जब मरा तो उसे कंधा देने वाला कोई भी उस मायानगरी का बाशिंदा न था.
उस मायानगरी को तो उसके बाल-बच्चों की भी सुध न रही. कहते हैं कि यूनान का महान लेखक होमर रोटी के लिए तरसता रहा, लेकिन जब मरा तो उसके शरीर पर सात नगर-राज्यों ने दावा किया.
हिंदुस्तान के सिनेमाई नगर-राज्यों ने फाल्के की तस्वीरें टांग ली हैं. पता नहीं, लाहौर, ढाका, सीलोन और रंगून में उसकी तस्वीरें भी हैं या नहीं.
दस रुपये में पांच फिल्में सीडी में उपलब्ध होने वाले इस युग में फाल्के का राजा हरिश्चंद्र किसी सरकारी अलमारी में बंद है.
एक वाक़या सुनिए. मई, 1939 में मुंबई में भारतीय सिनेमा का सिल्वर जुबली मनाया जा रहा था. इस मौक़े पर सभी वक्ताओं ने जी भर के दादा साहेब फाल्के के योगदान को सराहा, सिनेमा के लिए उनके समर्पण की बात की और उनकी उपलब्धियों को बार-बार गिनाया.
जब सभी बोल चुके, पृथ्वीराज कपूर खड़े हो गए. माइक पकड़ा और कहने लगे, ‘फ़िल्मी दुनिया के मेरे दोस्तों, जिस महान व्यक्ति की प्रशंसा अभी आपने इतनी देर तक सुनी, भारतीय सिनेमा का वह पिता वहां बैठा हुआ है. देखिए!’ यह कहते हुए उन्होंने मंच पर पीछे सिर नीचे किए बैठे दादा साहेब फाल्के की ओर इशारा किया.
इस आयोजन में दादा साहेब ने बड़े दुख और उदासी से कहा था कि मेरी बेटी सिनेमा ने मुझे भुला दिया है और चमक-दमक की चकाचौंध में ख़ुद को खो दिया है.
साल भर बाद, 23 जुलाई, 1940 को चेन्नई में अपने अंतिम सार्वजनिक संबोधन में फिर कहा, ‘मुझे कई कारणों से लगता है कि उद्योग को जिस सही दिशा में यात्रा करनी थी, वैसा नहीं हो रहा है.’
ख़ैर, ये तो कुछ ऐसे लोग थे जो जिए और मरे. कुछ या कई ऐसे भी हैं जिनके न तो जीने का पता है और न मरने का.
नज़मुल हसन की याद है किसी को? लखनऊ का वही नज़मुल, जो बॉम्बे टॉकीज़ के मालिक हिमांशु रॉय की नज़रों के सामने से उनकी पत्नी और मायानगरी की सबसे खूबसूरत नायिका देविका रानी को उड़ा ले गया था.
एस मुखर्जी की कोशिशों से देविका रानी तो वापस हिमांशु रॉय के पास आ गयीं, लेकिन नज़मुल का उसके बाद कुछ अता-पता नहीं है.
मंटो-जैसों के अलावा और कौन नज़मुल को याद रखेगा! ख़ुद को ख़ुदा से भी बड़ा क़िस्सागो समझने वाला मंटो दर्ज़ करता है: ‘और बेचारा नज़मुल हसन हम-जैसे उन नाकामयाब आशिक़ों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो गया, जिनको सियासत, मज़हब और सरमायेदारी की तिकड़मों और दख़लों ने अपनी महबूबाओं से जुदा कर दिया था.’
और फिर महान इतालवी फ़िल्मकार रोबर्तो रोज़ेलिनी और सोनाली दासगुप्ता का प्यार! ‘रोज़ेलिनी अफ़ेयर’ के नाम से ख्यात इस दास्तान में बिमल रॉय के एक सहयोगी और फ़िल्मकार हरिसाधन दासगुप्ता की पत्नी अपने पति और बड़े बेटे को छोड़ रोज़ेलिनी के साथ चली जाती हैं.
रॉय की पत्नी ने नेहरू से शिकायत की. सोनाली का पासपोर्ट रोकने की कोशिश हुई, पर फिर भी मामला बन गया. नेहरू ने भी मदद की.
मीडिया की नज़रों से बचने के लिए मक़बूल फ़िदा हुसैन की पत्नी बन कर सोनाली दिल्ली आईं और फिर यूरोप पहुंची. दिलीप पडगांवकर ने पूरी किताब लिख दी, पर कहानी पूरी नहीं कही.
मंटो होता तो क्या लिखता परवीन बॉबी के बारे में? बाबूराव पटेल कैसे लिखते भट्ट साहेब के बारे में? वही बाबूराव पटेल जिन्होंने ‘फ़िल्मइंडिया’ के पन्नों पर बेबाकी से सिनेमा और सियासत पर लिखा.
इस पत्रिका के बिना 1940-50 के दशक के ‘सुनहरे’ दौर की महागाथा कभी मुकम्मल नहीं हो सकती है. किसी नायिका को उसकी मां के कमरे में उनके जाने की ज़िद्द को दर्ज़ करने वाले अख़्तर-उल ईमान कास्टिंग काउच को कैसे बयान करते?
है कोई व्ही. शांताराम जो अपनी हीरोइनों के ड्रेसिंग रूम में अपने सामने कपड़े उतार के खड़े हो जाने का ज़िक्र करे?
जॉन एलिया याद आते हैं- क्या हुए वो सब लोग कि मैं /सूना सूना लगता हूं. इतिहास फ़रेब के आधार पर नहीं लिखे जाने चाहिए. इतिहास संघ लोक सेवा आयोग के सिलेबस के हिसाब से नहीं बनने चाहिए.
इतिहास की तमाम परतें खुरची जानी चाहिए. वह कोई ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ ब्रांड का नेशनल अवार्ड नहीं है जिसे दर्जन भर लोग नियत करें. पांच पीढ़ियों को मुहब्बत सिखाने वाले सिनेमा को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए.
किसी और मिज़ाज में मजाज़ लख़नवी ने यह शेर कहा होगा. मैं इसे सिनेमा के लिए पढ़ता हूं-
इस बज़्म में तेग़ें खेचीं हैं, इस बज़्म में सागर तोड़े हैं
इस बज़्म में आंख बिछाई है, इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)