भोपाल में कांग्रेस प्रत्याशी दिग्विजय सिंह और भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर के बीच मुकाबला इतना हाई प्रोफाइल हो गया है कि राज्य की अन्य सीटों पर चुनावी चर्चा ग़ायब हो गई है, जबकि प्रदेश में पहले चरण के मतदान में राज्य की राजनीति के लिहाज़ से महत्वपूर्ण कई सीटें शामिल हैं.
वर्तमान लोकसभा चुनावों में भोपाल लोकसभा सीट मध्य प्रदेश की ही नहीं, देश की सबसे चर्चित लोकसभा सीट बन जाने के बीच प्रदेश में पहले चरण का मतदान 29 अप्रैल को होने जा रहा है. यह लोकसभा चुनावों का चौथा चरण होगा, लेकिन मध्य प्रदेश में पहला चरण है.
इस दिन प्रदेश की कुल 29 लोकसभा सीटों में से राज्य की छह सीटों पर मतदान होने हैं. जिसमें महाकौशल क्षेत्र की चारों सीटें- जबलपुर, मंडला, बालाघाट और छिंदवाड़ा शामिल हैं. वहीं विंध्य क्षेत्र की सीधी और शहडोल हैं.
भोपाल में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी दिग्विजय सिंह और भाजपा से मालेगांव बम धमाके के आरोप में 9 साल जेल काटकर आईं प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बीच मुक़ाबला इतना हाई प्रोफाइल हो गया है कि राज्य की अन्य सीटों पर चुनावी चर्चा मुख्य पटल से गायब सी हो गई है. जबकि पहले चरण के मतदान में प्रदेश की राजनीति के लिहाज़ से महत्वपूर्ण छिंदवाड़ा, जबलपुर, सीधी की सीटें शामिल हैं.
इन सीटों पर मुख्यमंत्री कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह जैसे बड़े नामों का राजनीतिक भविष्य दांव पर है. कमलनाथ के लिए बेटे को जिताना उनकी साख़ का भी प्रश्न है.
इन छह में से पांच सीटों पर वर्तमान में भाजपा का क़ब्ज़ा है. केवल छिंदवाड़ा सीट कांग्रेस के पास है.
प्रदेश के विधानसभा चुनावों में सत्ता से विदाई के बाद भाजपा पर दबाव है इसलिए तीन सीटों पर नए चेहरों पर दांव लगाया है और दो सांसदों के टिकट काटे हैं.
शहडोल से सांसद ज्ञान सिंह की जगह कांग्रेस से हाल ही में भाजपा में आईं हिमाद्री सिंह को टिकट दिया है तो बालाघाट से सांसद बोध सिंह भगत को भी लाल झंडी दिखा दी गई है. उनकी जगह पूर्व विधायक ढाल सिंह बिसेन पर पार्टी ने दांव खेला है.
छिंदवाड़ा में पिछली बार भाजपा ने कमलनाथ के सामने चौधरी चंद्रभात कुबेर सिंह को उतारा था लेकिन इस बार जुन्नारदेव से विधायक रहे नत्थन शाह कवरेती को मौका दिया है.
इधर, भाजपा के उलट कांग्रेस प्रदेश की सत्ता पाने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज़ है. उसने अपने पिछले लोकसभा के उम्मीदवारों पर ही भरोसा दिखाया है.
सीधी से अजय सिंह, जबलपुर से विवेक तन्खा को इस बार भी टिकट मिला है. मंडला सीट से पिछली बार पार्टी ने ओमकार सिंह मरकाम को उतारा था. लेकिन वर्तमान में वे विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं.
इसी तरह बालाघाट से पिछली बार की प्रत्याशी हिना कावरे भी विधानसभा चुनाव जीतीं और विधानसभा की उपसभापति बनाई गईं. इसलिए मजबूरन कांग्रेस इन दोनों को फिर से दोहरा नहीं सकी.
प्रदेश में बहुमत से दो सीट दूर कांग्रेस ने विधायकों को टिकट न देने की भी नीति बनाई थी. इसी तरह शहडोल से भी पार्टी अपना प्रत्याशी दोहराना चाहती थी. उपचुनाव में उम्मीदवार रहीं हिमाद्री सिंह को फिर से उतारने वाली थी लेकिन हिमाद्री के पति नरेंद्र मरावी भाजपा में हैं. कांग्रेस ने हिमाद्री के सामने अपने पति को कांग्रेस में लाने की शर्त रख दी.
नतीजतन हिमाद्री ने कांग्रेस छोड़ दी और भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं. मजबूरन कांग्रेस को भाजपा से विधायक रहीं प्रमिला सिंह पर दांव खेलना पड़ा.
मतलब कि यहां दो दल बदलुओं का आमना-सामना है.
वहीं, छिंदवाड़ा में भी प्रत्याशी बदलना इसलिए मजबूरी रही क्योंकि वहां से सांसद कमलनाथ अब राज्य के मुख्यमंत्री हैं. वे करीब चार दशक से इस सीट पर क़ब्ज़ा जमाए हुए थे. उन्होंने अब अपने बेटे नकुलनाथ को उतारा है.
हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव भी इन सीटों की तस्वीर बख़ूबी पेश करते हैं जहां भाजपा पिछले प्रदर्शन को दोहराती नज़र नहीं आ रही है और छिंदवाड़ा के साथ-साथ मंडला एवं शहडोल की सीटों पर अच्छे-खासे अंतर से पिछड़ गई है.
देखा जाए तो विधानसभा चुनावों में इन सीटों पर मुक़ाबला 3-3 की बराबरी पर आ गया है. भाजपा दो सीटों के नुकसान में नज़र आ रही है. वहीं बालाघाट और जबलपुर में भी बढ़त बहुत कम रह गई है.
2014 में भाजपा ने बालाघाट सीट 96041, जबलपुर 208639, मंडला 110469, शहडोल 241301, सीधी 108046 मतों से जीती थी जबकि कांग्रेस ने छिंदवाड़ा 116537 मतों से जीती थी.
लेकिन विधानसभा चुनावों में बालाघाट में भाजपा की बढ़त 64385, जबलपुर में 31833 रह गई है. बालाघाट में भाजपा ने उम्मीदवार भी बदला है. बोध सिंह भगत की जगह ढाल सिंह बिसेन को टिकट थमाया है, लेकिन यहां भाजपा का दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है.
बोध सिंह भगत बागी होकर निर्दलीय ही मैदान में उतर आए हैं और कई क्षेत्रों में भाजपा उम्मीदवार का खेल बिगाड़ते दिख रहे हैं. गौरतलब है कि प्रदेश में भाजपा से सत्ता छिनने का एक बड़ा कारण पार्टी के बागी नेता ही रहे थे.
भले ही भाजपा को विधानसभा में कांग्रेस से अधिक वोट मिले लेकिन बालाघाट लोकसभा के अंतर्गत आने वाली 8 में से केवल 3 विधानसभा सीट ही वह जीत पाई थी. 1996 से इस सीट पर भाजपा अजेय बनी हुई है.
जबलपुर का मुक़ाबला काफी हाई प्रोफाइल है. यहां से भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह और कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा मैदान में हैं. लेकिन जबलपुर में भाजपा ने विधानसभा चुनावों में अपना बड़ा जनाधार खो दिया है.
लोकसभा चुनाव 2014 में 2 लाख से अधिक वोटों की बढ़त घटकर 30 हज़ार रह जाना राकेश सिंह के माथे पर बल डालने के लिए काफी है. तब भाजपा क्षेत्र की आठों विधानसभा जीती थी लेकिन विधानसभा के नतीजे उसे 4-4 की बराबरी पर खड़ा करते हैं.
वैसे भी विधानसभा चुनावों में राकेश सिंह भाजपा के लिए अपने ही क्षेत्र महाकौशल में कोई कमाल नहीं दिखा पाए थे और भाजपा को पूरे क्षेत्र में बुरी हार झेलकर 2013 की तुलना में 10 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था. इसलिए इस बार उनकी साख दांव पर है.
वहीं, राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा जो कांग्रेस की लीगल सेल के अध्यक्ष भी हैं अगर इस बार हारते हैं तो यह उनके लिए भी झटका होगा. क्योंकि पिछले दिनों से वे प्रदेश में अपनी ही पार्टी की सरकार को आईना दिखाने का भी काम रहे हैं.
प्रदेश में किसानों की समस्याओं को लेकर उन्होंने ट्वीट के माध्यम से सरकार की कार्यशैली पर सवाल भी उठाए थे. वहीं, विवेक तन्खा के ज़रिये कांग्रेस से जुड़ने वाले और उनके खास आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे, आशीष चतुर्वेदी के सरकार के ख़िलाफ़ बगावती तेवर भी कहीं न कहीं पार्टी के स्थानीय नेतृत्व को खटक रहे होंगे इसलिए विवेक के लिए भी यह जीत अहम होगी.
स्थानीय पत्रकार बताते हैं, ‘क्षेत्र में करीब दो-ढाई लाख ब्राह्मण मतदाता हैं. विवेक तन्खा स्वयं कश्मीरी पंडित हैं. उन्हें इन मतदाताओं के सहारे जीत की उम्मीद है.’ 1996 से ही इस सीट पर कांग्रेस का खाता नहीं खुला है.
बात करें सीधी सीट की तो पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेटे और पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के लिए यह चुनाव करो या मरो की स्थिति वाला है. वे पिछले दो चुनाव हार चुके हैं.
2014 में इसी सीट से लोकसभा का तो 2018 में अपनी पारंपरिक सीट चुरहट से विधानसभा का. वर्तमान में पार्टी में उनके पास कोई ख़ास पद भी नहीं है. अब एक हार उनके राजनीतिक भविष्य पर पूर्णविराम लगा सकती है.
यहां से भाजपा ने सांसद रीति पाठक को ही वापस दोहराया है. लेकिन रीति का स्थानीय स्तर पर पार्टी के अंदर ही विरोध हो रहा है. उनको टिकट मिलने के विरोध में ज़िलाध्यक्ष स्तर के कई पार्टी पदाधिकारी पार्टी छोड़ चुके हैं.
स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार शिव नारायण त्रिपाठी बताते हैं, ‘रीति पाठक अपने कार्यकाल में स्थानीय मुद्दों पर काम नहीं कर पाई हैं. इसलिए भाजपा यहां राष्ट्रवाद के सहारे है. जबकि कांग्रेस के अजय सिंह वोट पाने के लिए अपने पिता की विरासत पर फोकस किए हुए हैं. स्थानीय मुद्दे छोड़ना भाजपा को भारी पड़ सकता है. ऊपर से पार्टी की अंदरूनी गुटबाज़ी भी कांग्रेस को फायदा पहुंचाती दिख रही है.’
हालांकि भाजपा के लिए राहत यह हो सकती है कि विधानसभा चुनावों में वह अपनी लोकसभा वाली बढ़त बनाए रखने में क़ामयाब रही है और करीब 1,11,777 मतों से आगे रही. साथ ही क्षेत्र की 8 में से 7 विधानसभाओं पर क़ब्ज़ा जमाया.
अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित शहडोल सीट के दलबदलू बनाम दलबदलू के रोचक मुक़ाबले में पलड़ा किसका भारी रहेगा?
हिमाद्री भाजपा प्रत्याशी हैं और पिछले लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार थीं. उनकी माता (राजेश नंदिनी) और पिता (दलबीर सिंह) कांग्रेस से यहां के सांसद भी रह चुके हैं.
वहीं, कांग्रेस उम्मीदवार प्रमिला भाजपा से विधायक रही हैं. शुरुआती तौर पर हिमाद्री मजबूत दिख रही थीं लेकिन अब कांग्रेस बढ़त में हैं और कारण टिकट कटने के बाद भाजपा के मौजूदा सांसद ज्ञानसिंह की नाराज़गी है. वे लगातार पार्टी विरोधी बयान दे रहे हैं और भाजपा प्रत्याशी का विरोध करते हुए पार्टी के इस कृत्य को अपनी राजनीतिक हत्या क़रार दे रहे हैं.
शिवनारायण के मुताबिक लीड में तो कांग्रेस है लेकिन शहरी युवा में राष्ट्रवाद और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रधानमंत्री आवास योजना को लेकर भाजपा के प्रति झुकाव है. कांग्रेस क़र्ज़माफ़ी को मुद्दा तो बना रही है लेकिन वह भी पूरी तरह हो नहीं सकी है.
बगावत के साथ-साथ भाजपा के लिए सिर दर्द यह भी है कि विधानसभा चुनावों में वह इस सीट पर 21,710 मतों से पिछड़ गई है. जबकि पिछला लोकसभा चुनाव 2,41,301 मतों से जीती थी.
विधानसभा की 8 में से 7 सीटें उसके खाते में आई थीं. लेकिन अब दोनों ही दल 4-4 की बराबरी पर हैं. इस सीट पर लगातार भाजपा का जनाधार गिरता जा रहा है. 2016 में हुए लोकसभा उपचुनाव में उसकी बढ़त गिरकर 57000 रह गई थी और विधानसभा में तो वह पिछड़ ही गई.
मंडला में 5 बार के सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते के सामने भी चुनौतियों का अंबार है. 8 विधानसभा सीट वाली इस लोकसभा में भाजपा विधानसभा चुनावों के दौरान 6 पर पिछड़ गई है.
जहां पिछला चुनाव पार्टी 1,10,469 मतों से जीती थी, वहीं अब 1,21,688 मतों से पीछे है. कुल मिलाकर सवा दो लाख से अधिक वोटर विधानसभा चुनाव में उससे छिटके हैं.
अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस सीट पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) भी प्रभाव रखती है. कांग्रेस ने जिस कमल मरावी को टिकट दिया है वो गोंगपा छोड़कर ही कांग्रेस में आए हैं.
गोंगपा में वे राष्ट्रीय संगठन मंत्री व प्रदेश अध्यक्ष रह चुके थे. गोंगपा ने भी यहां अपना उम्मीदवार उतारा है और फग्गन इस उम्मीद में है कि वह अगर आदिवासी वोट काट ले तो उनका रास्ता आसान हो सकता है.
अंत में बात छिंदवाड़ा सीट की. कांग्रेस को कमलनाथ ने पिछली बार यह सीट 1,16,537 मतों से जिताई थी. कांग्रेस द्वारा प्रदेश में जीती गईं दो सीटों में से एक यह सीट थी.
कमलनाथ अब प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं इसलिए इस बार उन्होंने अपने बेटे नकुलनाथ को यह सीट विरासत में दी है. पिछले लोकसभा के मुकाबले विधानसभा में इस सीट पर कांग्रेस की बढ़त और अधिक बढ़ गई है. वह 1,22,897 मतों से आगे रही है. क्षेत्र में सात विधानसभा हैं और सभी कांग्रेस ने जीती हैं.
भाजपा ने नकुल नाथ के सामने नत्थन शाह को टिकट दिया है. यहां लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा उपचुनाव भी है. जिसमें मुख्यमंत्री कमलनाथ छिंदवाड़ा सीट से ही दावेदारी ठोक रहे हैं.
पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कमलनाथ और नकुलनाथ की पिता-पुत्र की जोड़ी साथ देखी जा सकती है. अपने बेटे को सक्रिय राजनीति में स्थापित करने के प्रयास में जुटे कमलनाथ क्षेत्र में यह तक कहते नज़र आ रहे हैं कि अगर उनका बेटा काम न करे तो जनता उसके कपड़े फाड़ डाले.
स्थानीय पत्रकार ललित कुमार साहू बताते हैं, ‘यहां से जीत कांग्रेस की सुनिश्चित है लेकिन जीत जितनी आसान दिख रही है उतनी है नहीं. भाजपा शायद ऐसी पहली राष्ट्रीय पार्टी होगी जिसने सामान्य सीट से आदिवासी प्रत्याशी उतारा है. यही उसका मास्टरस्ट्रोक है. प्रदेश में 7 लाख आदिवासी हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘क़र्ज़माफ़ी की प्रक्रिया से किसान नाराज़ हैं. भावांतर योजना की राशि भी उसे पूरी नहीं मिली है. वहीं, प्रधानमंत्री आवास योजना और शौचालय योजना के हितग्राहियों पर भाजपा की छाप है. ऊपर से उम्मीदवार अब कमलनाथ नहीं, उनके बेटे हैं तो यह सब कांग्रेस के ख़िलाफ़ जा रहा है. पक्ष में जो बात है वो यह कि डेढ़ लाख आदिवासी काम की तलाश में पलायन कर गया है जो वोट नहीं डाल पाएगा. यह वर्ग कहीं न कहीं रोज़गार न मिलने के लिए स्थानीय सांसद को ही दोषी मानता है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)