अगर भाजपा पिछली बार जीती गई 282 सीटों से कम सीटें पाती है, तो पार्टी को सहयोगियों की ज़रूरत होगी. समीकरण जैसे भी बनें, यह निश्चित है कि अगली सरकार गठबंधन की या खिचड़ी सरकार होगी, जिसे मोदी बिल्कुल पसंद नहीं करते.
केंद्र में गठबंधन सरकार बनने की चर्चा जोरों पर है. दो चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में- हालांकि इस बार पहले के मुकाबले जनमत सर्वेक्षणों की संख्या काफी कम रही है- एनडीए की जीत की भविष्यवाणी तो की गई है, लेकिन एनडीए के लिए 50 फीसदी के जादुई आंकड़े को पार करना मुश्किल बताया जा रहा है.
मतदान शुरू होने से पहले कराए गए सीएसडीएस-लोकनीति के जनमत सर्वेक्षण के मुताबिक़ हालांकि भाजपा के वोट प्रतिशत में 4 फीसदी तक का इजाफा होगा, लेकिन इसे 222 से 232 सीटें ही मिलेंगी और एनडीए को 263-283 के बीच सीटें आएंगी.
यानी गठबंधन की सरकार तो बनेगी, लेकिन भाजपा पिछली बार की तुलना में काफी कमजोर स्थिति में होगी. सी-वोटर के सर्वे में एनडीए को 233 सीटें मिलने की बात कही गई है.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने त्रिशंकु लोकसभा की भविष्यवाणी की है, हालांकि उनका अंदाजा है कि कांग्रेस एक गठबंधन बनाने में कामयाब हो पाएगी, क्योंकि भाजपा विरोधी गठबंधन भाजपा-समर्थक गठबंधन से बड़ा है. इसे पार्टी के नेता का बयान भी कहा जा सकता है, लेकिन यह जरूर बताता है कि किसी न किसी तरह से एक गठबंधन तैयार हो सकता है.
राजनीतिक विश्लेषकों में यह राय बनती दिख रही है कि भाजपा अपने बूते पर 272 के आंकड़े को पार नहीं कर पाएगी, हालांकि यह सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरेगी और इस नाते उसे राष्ट्रपति द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाएगा.
नरेंद्र मोदी कभी न थकने वाले प्रचारक हैं और उन्होंने इस चुनाव प्रचार में सब कुछ झोंक दिया है. वे कट्टर हिंदुत्व से उग्र राष्ट्रवाद तक (शहीद सैनिकों के नाम पर वोट देने की अपील करके) ही नहीं, श्रीलंका में हुए आतंकी हमले तक के नाम पर वोट मांग रहे हैं.
उन्होंने बिना कोई समय गंवाए आतंकवाद की बात करने के लिए श्रीलंका में हुए धमाकों को अपने भाषण में शामिल कर लिया. वे बेहद लापरवाह तरीके से परमाणु बम के इस्तेमाल की बात करनेवाले पहले प्रधानमंत्री भी हैं. यह दिखाता है कि वे इस बार कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते हैं क्योंकि यह उनके लिए एक तरह से करो या मरो का चुनाव है.
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि भाजपा 2019 में अपने दम पर 300 सीटें जीतेगी. उनके इस आत्मविश्वास के पीछे शायद उनका और उनकी प्रतिभाशाली टीम का कोई गुणा-गणित हो सकता है, लेकिन फिर भी इसकी संभावना बहुत कम है.
थोड़ा से विश्लेषण से इस बात का अंदाजा लगाने में मदद मिल सकती है कि भाजपा के लिए 2019 की डगर कितनी मुश्किल है. 2014 में मोदी एक दावेदार की भूमिका में थे, जिसने यूपीए-2 से ऊबे हुए ही नहीं बल्कि चिढ़े हुए मतदाताओं को एक नई उम्मीद दी. यूपीए-2 इस समय तक थका, असरहीन और भ्रष्ट दिखने लगा था.
‘गुजरात मॉडल’ के नैरेटिव पर सवार मोदी विकास, वृद्धि, रोजगार और भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई करने की बात करते थे. एक बड़े तबके ने उन पर भरोसा किया और उन्हें वोट दिया. यह एक नया मतदाता वर्ग था, जो भाजपा के परंपरागत वोटर से ज्यादा और उससे परे था.
सरकारें अक्सर अपने वादों को पूरा करने में नाकामयाब रहती हैं, लेकिन इस बार ज्यादा निराशा हाथ लगी है. हर मोर्चे पर मोदी सरकार ने न सिर्फ कल्पनाशीलता की कमी दिखाई और उम्मीद से कमतर प्रदर्शन किया बल्कि यह नोटबंदी जैसे खराब फैसले और जीएसटी के अक्षम क्रियान्वयन के कारण भी लड़खड़ाती हुई दिखी.
मोदी सरकार में सामाजिक समरसता को भी बुरी तरह से नुकसान पहुंचा है. हिंदुत्व के एजेंडे को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाए जाने के कारण इसके नए बने समर्थकों में से कइयों को धक्का लगा है.
क्योंकि इस बार वे सत्ता में हैं और सत्ता में रहते हुए उन्होंने कई मोर्चों पर निराश किया है, मोदी इस बार मुश्किल चुनौती का सामना कर रहे हैं.
इसके अलावा 2014 में कई राज्यों में भाजपा का प्रदर्शन बेहद शानदार और शिखर पर रहा था. राजस्थान और गुजरात में पार्टी ने सारी सीटें जीत ली थीं जबकि इसने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की 90 फीसदी सीटें अपनी झोली में डाल ली थीं. महाराष्ट्र और बिहार में इसने 20 से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन अब इसे दोहरा पाना संभव नहीं है.
पार्टी न सिर्फ उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में मजबूत विपक्षी गठबंधनों से मुकाबले में है, बल्कि इसे नीतीश कुमार और शिवसेना जैसी स्थानीय ताकतों के साथ भी समझौता करना पड़ा जिसके कारण इसकी सीटों की संख्या भी सीमित हो गई है.
इस नुकसान की भरपाई की संभावना काफी कम है. पश्चिम बंगाल में यह पिछली बार मिली दो सीटों के आंकड़े में सुधार ला सकती है, लेकिन उत्तर-पूर्व में इसके बेहतर प्रदर्शन करने की संभावना कम है, जहां नागरिकता (संशोधन) विधेयक ने स्थानीय लोगों को नाराज करने का काम किया है.
किसी निश्चित संख्या की भविष्यवाणी करना नुकसानदायक हो सकता है, लेकिन अगर भाजपा पिछली बार जीती गई 282 सीटों से कम सीटें जीतती है, तो पार्टी को अनिवार्य तौर पर सहयोगियों की ओर देखना होगा.
एनडीए के बड़े घटक दल- जदयू, शिवसेना, अन्ना द्रमुक और अकाली दल अच्छी संख्या जोड़ सकते हैं और बीजद, टीआरएस और जगन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाईएसआर कांग्रेस जैसे ‘परोक्ष सहयोगी’ अंतिम आंकड़े को 272 तक पहुंचा सकते हैं.
लेकिन समीकरण जैसे भी बनें, यह निश्चित है कि अगली सरकार गठबंधन की या खिचड़ी सरकार होगी, जिसे मोदी बिल्कुल पसंद नहीं करते.
एक गठबंधन सरकार मोदी के लिए एक बिल्कुल नया अनुभव होगा. 12 वर्षों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व किया, जिसके पास विधानसभा में मजबूत बहुमत था. केंद्र में भी उनकी पार्टी संसद में स्पष्ट बहुमत से मौजूद थी, जिसके कारण दूसरे सहयोगी प्रभावहीन होकर रह गए.
मोदी ने अपना व्यक्तित्व और प्रभाव सिर्फ इस सरकार के बल्कि अपनी पार्टी के भी अकेले और निर्विवाद नेता के तौर पर गढ़ा है. किसी भी तरह के प्रतिद्वंद्वी को उभरने की इजाजत नहीं दी गई और जल्दी ही भिन्न मत रखनेवालों को अप्रासंगिक बना दिया गया.
मोदी सरकार की बिल्कुल शुरुआत से ही यह अच्छी तरह से बता दिया गया कि वे न विपक्ष को और न ही अनुशासनहीनता को बर्दाश्त करते हैं. बैठे हुए मोदी के सामने खड़े केंद्रीय मंत्री हर्षवर्धन की तस्वीर को कौन भुला पाया होगा? और मंत्रियों को जीन्स की जगह कुर्ता पहनने के निर्देश के बारे में किसने नहीं सुना.
पिछले पांच सालों में अरुण जेटली से लेकर सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी जैसे वे सारे नेता, जो अपनी आजाद पहचान कायम कर सकते थे, को किनारे लगा दिया गया है. जहां तक सहयोगियों की बात है, चंद्रबाबू नायडू को यह जल्दी ही पता चल गया कि मोदी के सामने मांगें रखने का कोई फायदा नहीं होता है.
मोदी के लाखों प्रशंसक इस बात के लिए ही उन्हें पसंद करते हैं. वे भारत के लिए एक मजबूत नेता के उनके उस स्वप्न को पूरा करते हैं, जो सर्वसम्मति जैसी मूर्खतापूर्ण चीज में यकीन नहीं करता है. मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं, जिन्होंने एक गठबंधन सरकार चलाई थी और जो जयललिता और ममता बनर्जी जैसी तुनकमिजाज नेताओं को भी साथ लेकर चल पाए थे.
इसके बावजूद इस बात की प्रबल संभावना है कि मोदी को शिवसेना जैसे सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार का गठन करना पड़ेगा और अगर 272 का आंकड़ा पूरा नहीं हुआ तो के. चंद्रशेखर राव और जगन रेड्डी से भी समझौता करना पड़ेगा. और- अगर और सांसदों को जरूरत पड़ेगी, तो क्या होगा?
क्या मायावती भी इस गठबंधन में शामिल होंगी? मोदी ऐसी सरकार को कैसे संभाल पाएंगे? अपनी जरूरतें और एजेंडा रखने वाली अन्य पार्टियों के मंत्रियों से बना मंत्रिमंडल, बड़े-बड़ों के लिए चुनौतीपूर्ण होता है.
ऐसे कैबिनेट में काम करने के लिए मोदी को मित्रता और सौहार्द का प्रदर्शन करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. हमेशा सिर्फ उनकी नहीं चलेगी और इस बात से उनकी छवि को काफी नुकसान पहुंच सकता है.
उनके कट्टर भक्त उन्हें उनकी ऐसी ही मजबूत छवि के कारण पसंद करते हैं. जब सहयोगियों द्वारा अपनी मांगें रखी जाने लगेंगीं, तब इन भक्तों पर क्या बीतेगी? हो सकता है कि ऐसी स्थिति नहीं बने.
मतदाता विश्लेषकों को चकित करने की कला जानते हैं, लेकिन इस संभावना को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता है. बड़ी जीतों के बाद लगभग हमेशा हार का स्वाद चखना पड़ता है- 1971 (इंदिरा गांधी) और 1984 (राजीव गांधी) इसकी अच्छी मिसाल है.
यहां तक कि 1977 में जब जनता पार्टी ने कांग्रेस को हराया था, यह बहुत जल्दी डगमगाने लगी और अगले चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा.
2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने एक प्रभावशाली जीत दर्ज की थी- उस समय पार्टी प्रवक्ता लंबे शासनकाल का दावा करते थे और राजनीतिक विश्लेषकों ने कांग्रेस के पतन की भविष्यवाणी की थी. लेकिन आज कांग्रेस दोबारा खड़ी होती दिख रही है और अपराजित और अपराजेय नेता मोदी रक्षात्मक मुद्रा में अपनी वापसी के लिए लड़ रहे हैं.
उनके नेतृत्व में पार्टी अब भी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर सकती है और वे सरकार बना सकते हैं, लेकिन स्थिति पहली जैसी नहीं होगी. इसलिए मोदी को अभी से ही लोगों को साथ लेकर चलने के अपने हुनर पर धार चढ़ाना शुरू कर देना चाहिए.
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