प्रज्ञा ठाकुर के माध्यम से भाजपा किसकी आकांक्षा का प्रतिनिधित्व कर रही है

क्या वाकई देश का हिंदू अब इस अवस्था को प्राप्त कर चुका है जहां उसके इंसानी और नागरिक बोध का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा ठाकुर जैसों के रूप में होगा?

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प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)

क्या वाकई देश का हिंदू अब इस अवस्था को प्राप्त कर चुका है जहां उसके इंसानी और नागरिक बोध का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा ठाकुर जैसों के रूप में होगा?

प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)
प्रज्ञा सिंह ठाकुर और दिग्विजय सिंह. (फोटो: पीटीआई)

भोपाल लोकसभा सीट इस आम चुनाव की एक महत्वपूर्ण सीट होने वाली है. प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी तय करके भाजपा ने इसे सुर्खियों में ला दिया है.

हालांकि दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी से ही इस सीट के राजनीतिक मायने बढ़ गए थे क्योंकि यह सीट 1989 से ही भाजपा का सुरक्षित गढ़ रही है और कांग्रेस का हर प्रत्याशी भारी मतों से पराजित होता रहा है.

इस सीट पर दिग्विजय सिंह को उतारने के निर्णय को पहले मध्य प्रदेश कांग्रेस की अंदरूनी सांप-सीढ़ी की तरह देखा गया लेकिन दिग्विजय ने इसे चुनौती मानते हुए सहजता से स्वीकार कर इन अटकलों पर विराम लगा दिया.

दिग्विजय सिंह के सामने प्रज्ञा ठाकुर को मैदान में उतारना भाजपा की निराशा और हताशा है या एक ‘मास्टरस्ट्रोक’ यह तो 23 मई को चुनाव परिणाम आने पर स्पष्ट होगा लेकिन इतना तय है कि भाजपा ने एक बड़ा दांव खेला है.

हाल ही में भाजपा की 15 साल पुरानी सरकार को विधानसभा चुनावों में यहां शिकस्त मिल चुकी है, जिसे कई राजनीतिक विश्लेषकों ने शिवराज से ज़्यादा मोदी शासन के खिलाफ उभरा जनादेश माना.

प्रज्ञा ठाकुर को उतारकर यह अपना हिंदू राष्ट्र, बुजदिल और संकीर्ण राष्ट्रवाद, आतंकवाद, पाकिस्तान, मंदिर-मस्जिद, मुसलमान वगैरह वगैरह को ज़िंदा बनाए रखना चाहेंगे ताकि इस आम चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा ध्रुवीकरण पैदा हो.

और यह भले ही चुनाव में अपेक्षित परिणाम न दे सके पर भोपाल जैसे सांस्कृतिक नगर के सामाजिक ताने-बाने में दरार पैदा करके अपनी नफरती राजनीति के लिए उर्वर ज़मीन तैयार कर सकें.

अगर भोपाल संसदीय क्षेत्र के इतिहास पर गौर करें तो यह सीट देश की धर्मनिरपेक्ष, उदार और प्रगतिशील आकांक्षाओं की ज़मीन रही है. कॉमरेड शाकिर अली एक तरह से तमाम प्रगतिशील ताकतों का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं.

1989 बाद से यहां से चुने गए भाजपा के उम्मीदवारों की छवि भी कमोबेश उदार ही रही है और सबसे ज़रूरी बात कि उनका जुड़ाव जनता के मुद्दों से भी रहा ही है. मौजूदा सांसद आलोक संजर भी अविवादित व्यक्तित्व ही रहे हैं.

दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी के सामने प्रज्ञा ठाकुर को लाना एक तरह से इस पेशेवर राजनीति का अपमान भी है. दिग्विजय सिंह संघ की सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ हमेशा खड़े रहे हैं. बाटला हाउस एकाउंटर मामले में उन्होंने अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ मुखरता से स्टैंड लिया.

उन्होंने हेमंत करकरे की शहादत को दक्षिणपंथियों की साजिश बताया और देश में उभर रहे इस नए तरह के आतंकवाद के प्रति चेताया. इसने आज के इस अतिहिंदुत्ववादी दौर में बहुसंख्यकों  के मन में उनकी छवि को गंभीर चोट भी पहुंचाई, जिसकी भरपाई उनके 6 महीने की पैदल नर्मदा परिक्रमा भी नहीं कर पाएगी.

यह सवाल भी बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या वाकई देश का हिंदू अब इस अवस्था को प्राप्त कर चुका है जहां उसके इंसानी और नागरिक बोध का प्रतिनिधित्व प्रज्ञा ठाकुर जैसों के रूप में होगा? फिर हमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर शंभूलाल रैगर को देश का राष्ट्रपति मनोनीत कर दिया जाये!

इस पर भोपाल संसदीय क्षेत्र के हिंदुओं को गंभीरता से विचार करना है कि क्या बहुसंख्यक के तौर पर वो अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और पारंपरिक बोध का सौदा इतने सस्ते में कर लेगा?

हम मानते हैं कि लोकतंत्र की ख़ासियत भी यही है कि हमेशा विकल्प दे सकता है और वो पहले से बेहतर भी हो सकता है. पर इस कदर बदतर नहीं क्योंकि ये विकल्प संविधान की मूल भावना और आत्मा के अनुरूप होना चाहिए. प्रज्ञा ठाकुर को इस कसौटी पर ही देखें तो भी यह लोकतंत्र की इस खूबसूरती पर गंभीर सवाल है.

देखा जाए तो यह भोपाल की जनता और उसके माध्यम से देश की जनता के मनोविज्ञान को मापने का बैरोमीटर भी है. साथ ही 1925 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जिस नागरिक बोध का निर्माण किया है उसका भी यह लिटमस टेस्ट है.

हालांकि चुनाव में हार-जीत के लिए कई दूसरे कारक भी जिम्मेदार होते हैं- धनबल, बाहुबल, मीडिया, बूथ प्रबंधन इत्यादि लेकिन अगर प्रज्ञा ठाकुर यहां से जीतती हैं तो संघ इसे अपनी कट्टर विचारधारा की बड़ी जीत के रूप में देखेगा.

और यहां से देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की उदारवादी, सहिष्णु और सांस्कृतिक रूप से समावेशी मानस का बलात अपहरण करके उन्हें ‘इस्लामिक स्टेट’ की भांति तब्दील होने को बेताब जनता की आकांक्षाओं की बुनियाद बनाएगा.

इस लिहाज से देखें तो यह चुनाव मोदी के ‘न्यू इंडिया’ और चाल, चरित्र, चिंतन और चेहरे में पूरी तरह से बदली हुई भाजपा के लिए रास्ता तय करेगा. भाजपा व संघ के लिए इसलिए भी यह बड़ा दांव  है.

भाजपा ने एक राजनीतिक दल के तौर पर बड़ा जोखिम भी उठाया है. लोकतंत्र की इस संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक दल अनिवार्य तौर पर जनता की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति भी होते हैं और उन्हें ऐसा होना ही चाहिए.

प्रज्ञा ठाकुर के माध्यम से क्या भाजपा भोपाल की जनता की आकांक्षा का प्रतिनिधित्व कर रही है? यह सवाल अब भोपाल की जनता के सामने है. अगर मध्य प्रदेश हिंदुस्तान का दिल है तो इसे विषाक्त नहीं होना चाहिए.

मालेगांव ब्लास्ट की अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर उदारवादी हिंदू समाज को कट्टर इस्लामिक स्टेट जैसा बनाने की हिमायती हैं और हेमंत करकरे जैसे जांबाज सिपाही की शहादत को अपमानित करते हुए भी वो इस मुहिम में लगी हुईं हैं.

इसका जवाब भोपाल की जनता के साथ -साथ तमाम तरक्कीपसंद लोगों को देना है कि वो हिंदुस्तान के दिल के साथ क्या सलूक होने देना चाहते हैं?

क्या सचमुच भोपाल की जनता की चाहत निरंकुश हिंदू राष्ट्र है? या अब भी भोपालवासी अपनी वर्षो पुरानी सांस्कृतिक विरासत को सहेज पाने मे सफल होंगे?

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)