मध्य प्रदेश के दूसरे चरण के चुनाव में बुंदेलखंड क्षेत्र की दमोह, खजुराहो और टीकमगढ़, विंध्य क्षेत्र की रीवा और सतना एवं मध्य क्षेत्र की बैतूल और होशंगाबाद लोकसभा सीटों पर चुनाव हैं.
मध्य प्रदेश में पहले चरण की छह लोकसभा सीटों पर मतदान के बाद अब दूसरे चरण में सात सीटें दांव पर हैं. राज्य के बुंदेलखंड क्षेत्र की दमोह, खजुराहो और टीकमगढ़, विंध्य क्षेत्र की रीवा और सतना एवं मध्य क्षेत्र की बैतूल और होशंगाबाद.
इन सीटों पर मतदान 6 मई को होना है. वर्तमान में सभी सीटें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास हैं. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने बड़े अंतर से यह सीटें जीती थीं. लेकिन हालिया संपन्न प्रदेश के विधानसभा चुनावों में उस अंतर में कमी आई है.
हालांकि नतीजे अभी भी भाजपा को इन सीटों पर आगे दिखा रहे हैं. केवल एक बैतूल की सीट है जहां भाजपा पिछड़ रही है.
इनमें से अगर रीवा सीट को छोड़ दिया जाए तो सभी सीटें क़रीब तीन दशक से भाजपा का गढ़ बनी हुई हैं. दमोह तो भाजपा का वह अभेद्य किला है जिस पर 1989 से उसका क़ब्ज़ा है. तब से आठ लोकसभा चुनाव हो गए, भाजपा ही यहां जीत रही है.
कुछ ऐसा ही हाल टीकमगढ़ का है. 2009 में परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई इस सीट पर तब से ही भाजपा का क़ब्ज़ा है.
खजुराहो, होशंगाबाद और बैतूल में भी 1989 से अब तक हुए 8 चुनावों में 7 बार भाजपा जीती है. इस बीच कांग्रेस खजुराहो में 1999, होशंगाबाद में 2009 और बैतूल में 1991 में बस एक-एक बार जीत पाई है.
सतना सीट भी 1998 से भाजपा की है. लगातार पांच चुनाव उसने जीते हैं. वहीं, रीवा के मतदाता की फितरत है कि वह हर बार अपना सांसद बदलता है. यह वह सीट है जहां कांग्रेस बीते चुनावों में सबसे कमज़ोर नज़र आती है और भाजपा के साथ-साथ मुख्य मुकाबले में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) खड़ी दिखती है. 1991 से अब तक हुए सात चुनावों में यहां से तीन बार भाजपा, तीन बार बसपा और एक बार कांग्रेस जीती है.
प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिहाज़ से ये सातों सीटें बड़ी चुनौती हैं. क्योंकि वह इनमें से दमोह में 35 साल से नहीं जीती. 2009 में बनी टीकमगढ़ सीट उसने अब तक जीती नहीं. सतना और बैतूल में आख़िरी बार 1991, रीवा और खजुराहो में 1999 में जीती थी. बस होशंगाबाद ही है जहां उसने हाल फिलहाल में जीत दर्ज की है.
2009 में कांग्रेस ने यह सीट जीती थी. इस सीट को कांग्रेस की झोली में डालने वाले राव उदय प्रताप सिंह 2014 के चुनाव से पहले कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे और भाजपा के टिकट पर फिर से चुनाव जीते थे.
2014 में भाजपा दमोह से 213299, खजुराहो से 247490, टीकमगढ़ से 208731, रीवा से 168726, सतना से 8688, बैतूल से 328614 और होशंगाबाद से 389960 मतों के अंतर से जीती थी.
लेकिन हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में यह बढ़त गिरकर दमोह में 16857, खजुराहो में 89102, टीकमगढ़ में 37710, रीवा में 98725 और होशंगाबाद में 39264 रह गई है. बैतूल में तो भाजपा 40676 मतों से पिछड़ गई है. केवल सतना में उसकी बढ़त में बढ़ोतरी होकर 28945 हो गई है.
सात में से छह सीटों पर पार्टी के बढ़त में होने का ही कारण है कि पार्टी द्वारा 5 सीटों पर अपने मौजूदा सांसदों पर ही भरोसा जताया गया है. जिन दो सीटों पर प्रत्याशी बदले हैं, तो वह भी मजबूरी के चलते क्योंकि बैतूल की मौजूदा सांसद ज्योति ध्रुवे फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र मामले में दोषी पाई गई हैं. उन्होंने अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र पेश किया था. वहीं, खजुराहो के सांसद नागेंद्र सिंह नागौद से विधानसभा चुनाव जीतकर राज्य की ही राजनीति में दख़ल रखना चाहते हैं.
दूसरी ओर, कांग्रेस ने किसी भी सीट पर प्रत्याशी को नहीं दोहराया है और नए चेहरों पर दांव लगाया है.
दमोह में मुकाबला मौजूदा सांसद भाजपा के प्रहलाद सिंह पटेल और कांग्रेस के प्रताप सिंह लोधी के बीच है. चुनावी घोषणा के कुछ समय पहले ही क्षेत्र से चार बार के पूर्व भाजपा सांसद रामकृष्ण कुसुमरिया कांग्रेस में शामिल हो गए थे. उम्मीद थी कि पार्टी उन्हें मौका देती लेकिन अंत समय में लोधी का टिकट फाइनल किया गया तो उसके पीछे जातीय समीकरण रहे.
क्षेत्र में लोधी जाति के 2,50,000 वोटों पर कांग्रेस की नज़र थी. प्रहलाद पटेल लोधी जाति से ही हैं और उनकी जीत का कारण भी यही है. इसलिए पार्टी ने उनके सामने लोधी वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए हाल ही में क्षेत्र की जबेरा सीट से विधानसभा चुनाव हारे प्रताप सिंह लोधी को उतार दिया. जबकि कुसुमरिया कुर्मी थे.
विधानसभा चुनावों के नतीजे देखें तो 8 विधानसभा वाली इस लोकसभा सीट पर भाजपा केवल 3 सीटों पर जीती थी, 4 कांग्रेस और एक बसपा ने जीती थी. जबकि 2014 में सभी सीटें भाजपा के खाते में गई थीं.
सिर्फ़ यही नतीजे नहीं, चुनौती भाजपा के लिए भितरघात की भी है जहां नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और पूर्व वित्त मंत्री जयंत मलैया प्रहलाद पटेल के विरोधी माने जाते हैं.
लोकसभा चुनाव के लिए मलैया ने अपने तो भार्गव ने अपने बेटे के लिए टिकट की इसी सीट से मांग भी की थी. मलैया और पटेल की आपसी अदावत खुलकर कई बार सामने भी आ चुकी है.
टीकमगढ़ से भाजपा ने तीसरी बार वीरेंद्र कुमार खटीक पर भरोसा जताया है. खटीक चार बार सागर से भी सांसद रहे हैं. उनके सामने कांग्रेस ने किरण अहिरवार को मैदान में उतारा है.
2014 में यहां की आठों विधानसभा भाजपा ने जीती थीं लेकिन वर्तमान में उसकी बढ़त केवल चार पर है जबकि तीन पर कांग्रेस और एक पर समाजवादी पार्टी का क़ब्ज़ा है. जीत का अंतर भी काफी कम हुआ है. यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है.
यहां भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए ही सिरदर्द उनके अपने बने हुए हैं. किरण अहिरवार के ख़िलाफ़ कथित तौर पर स्थानीय कार्यकर्ताओं ने क्षेत्र में दीवारों पर ‘किरण अहिरवार वापस जाओ’ तक के नारे लिख डाले थे क्योंकि उनका मानना था कि अहिरवार ने ज़मीन पर पार्टी के लिए कोई काम नहीं किया. उनका परिवार प्रशासनिक सेवा में रहा और दिग्विजय सिंह से नज़दीकी का फायदा मिला.
उत्तर प्रदेश से सटे इस इलाके में यादवों का वर्चस्व है. इसलिए सपा भी यहां अच्छे ख़ासे वोट काटती रही है. सपा ने भाजपा के बागी आरडी प्रजापति को मैदान में उतारा है जो भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है. वहीं भाजपा के स्थानीय नेता भी खटीक के ख़िलाफ़ हैं और उन्हें बाहरी ठहराकर अपना हक़ छीनने की बात कह रहे हैं.
खजुराहो में संघ की सिफारिश पर विष्णु दत्त शर्मा भाजपा के उम्मीदवार बनाए गए हैं, जिनका स्थानीय स्तर पर विरोध भी है क्योंकि वे मूलत: चंबल इलाके के रहने वाले हैं. स्थानीय कार्यकर्ता उन्हें बाहरी बता रहे हैं. चूंकि शर्मा का टिकट संघ के इशारे पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पक्का किया है तो विरोध खुलकर सामने नहीं आ पा रहा है.
शर्मा वैसे तो मुरैना से दम भर रहे थे लेकिन वहां से केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर आड़े आ गए, फिर उनका नाम एक और सुरक्षित सीट भोपाल से चला लेकिन कांग्रेस से दिग्विजय की उम्मीदवारी ने उनके समीकरण बिगाड़ दिए.
कांग्रेस ने यहां राजनगर विधायक विक्रम सिंह नातीराजा कि पत्नी कविता सिंह को टिकट दिया है. वे खजुराहो के राज परिवार से ताल्लुक रखती हैं. हालांकि विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में हैं और आठ में से छह सीटों पर उसके विधायक हैं. उसकी बढ़त भी अच्छी ख़ासी है.
रीवा की बात करें तो यहां मुक़ाबला ब्राह्मण बनाम ब्राह्मण का हो गया है. भाजपा ने मौजूदा सांसद जनार्दन मिश्रा पर ही भरोसा जताया है तो कांग्रेस ने पूर्व सांसद सुंदरलाल तिवारी के बेटे सिद्धार्थ तिवारी पर दांव खेला है.
भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि विधानसभा चुनावों में विंध्य में उसने अपना मज़बूत जनाधार खड़ा किया है. रीवा लोकसभा की आठों विधानसभा सीटें उसने जीती थीं. हालांकि, यहां बसपा भी काफ़ी मज़बूत है.
सतना में भाजपा से तीन बार के सांसद गणेश सिंह मैदान में हैं. तो कांग्रेस ने उनके सामने राजाराम त्रिपाठी को उतारा है. कांग्रेस को आख़िरी बार यह सीट 1991 में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने जिताई थी.
सतना में सात विधानसभा सीटें हैं और भाजपा 5-2 से आगे है. 2014 में गणेश सिंह ने यहां से अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह को हराया था. तब अन्य उम्मीदवार जहां लाखों वोट से जीते थे, वहीं गणेश सिंह महज़ 8688 मतों से जीत पाए थे.
गणेश सिंह का क्षेत्र में दोहरा विरोध है. एक तो उनकी उम्मीदवारी पर पार्टी कार्यकर्ता और स्थानीय नेता नाराज़ हैं तो दूसरी ओर क्षेत्रीय जनता में भी उनका विरोध इस क़दर देखा जा रहा है कि वे चुनाव प्रचार के लिए जाते हैं तो ‘गणेश सिंह वापस जाओ’ के नारे लगाए जाते हैं.
विंध्य क्षेत्र में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शर्मा बताते हैं, ‘रीवा में त्रिकोणीय मुक़ाबले में दो ब्राह्मण और एक पटेल आमने-सामने हैं. कुर्मी मतदाता पटेल के साथ तो ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस-भाजपा में बंट रहा है. भाजपा से प्रधानमंत्री आवास जैसी योजनाओं के कारण एससी-एसटी जुड़ रहा है. भाजपा को फायदा यह है कि उसका चेहरा जाना-पहचाना है जबकि कांग्रेस का पहले देखा ही नहीं गया. कांग्रेस की न्याय योजना तो मतदाताओं को आकर्षित कर रही है लेकिन क़र्ज़ माफ़ी कोई ख़ास असर नहीं दिखा रही है’
सतना को लेकर अरविंद कहते हैं, ‘गणेश सिंह पर जो जाति विशेष (कुर्मी समाज) के लिए काम करने के आरोप हैं वे कहीं न कहीं उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. वहीं राजाराम त्रिपाठी साफ-स्वच्छ छवि के रहे हैं. और पिछले कुछ समय से क्षेत्र का ब्राह्मण ख़ुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है तो राजाराम को फायदा हो सकता है.’
वे आगे कहते हैं कि अजय सिंह विंध्य के सबसे बड़े नेता हैं और पूरे क्षेत्र में ऐसा संदेश जा रहा है कि उनकी राजनीति अब खत्म होने के कगार पर है इसलिए इसने क्षेत्र में उनके प्रति एक सहानुभूति का माहौल पैदा कर दिया है जो कांग्रेस को लाभ पहुंचाएगा.
होशंगाबाद की कहानी दिलचस्प है. 1989 से कांग्रेस इस सीट पर ऐसी पिछड़ी कि 2009 में वापसी कर पाई लेकिन जिस राव उदय प्रताप ने यह सीट उसे दिलाई वो 2014 में भाजपा में पहुंच गए और भाजपा को जीत दिलाई. कांग्रेस ने इस बार उनके सामने शैलेंद्र दीवान को उतारा है.
स्थानीय पत्रकार नरेंद्र कुशवाह के मुताबिक एक तरह से कांग्रेस ने भाजपा को वॉकओवर दे दिया है क्योंकि शैलेंद्र क्षेत्र में अनजाना सा नाम है.
वे कहते हैं, ‘पलड़ा तो भाजपा का ही भारी है. उदय प्रताप अपने आप में जाने पहचाने हैं, ऊपर से मोदी का असर. होशंगाबाद ज़िले की चारों विधानसभा पर तो भाजपा हावी है. अब कांग्रेस की जीत-हार नरसिंहपुर और रायसेन ज़िलों की चार विधानसभा पर निर्भर करती है कि वहां का मतदाता कहां रुख़ करता है.’
फिलहाल क्षेत्र की आठ में से 5 विधानसभा पर भाजपा के विधायक हैं. 389960 मतों से पिछला चुनाव जीती भाजपा केवल 39264 मतों की बढ़त पर है. करीब 3,50000 वोट उससे विधानसभा चुनावों में छिटके हैं.
अंत में बात करें बैतूल की तो यही एकमात्र सीट है जहां विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने भाजपा पर बढ़त बना ली थी. 328614 मतों से जीती इस सीट पर भाजपा 40676 मतों से पिछड़ गई थी. यह सीट अनूसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. 1991 में इस सीट पर आख़िरी बार हारी भाजपा इस बार पशोपेश में है.
ज्योति धुर्वे यहां से दो बार से जीत रही थीं. लेकिन अदालत में साबित हुआ कि वे फ़र्ज़ी जाति प्रमाण पत्र पेश करके चुनाव लड़ रही थीं. इसलिए भाजपा ने संघ विचारधारा के शिक्षक दुर्गादास उइके को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस ने पेशे से वकील रामू टेकाम को.
स्थानीय पत्रकार अकील अहमद बताते हैं, ‘पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस के पक्ष में क्षेत्र में माहौल था लेकिन दूरदराज़ के ग्रामीण इलाकों में जाने पर पता लगा कि वहां भाजपा के पक्ष में भी ज़ोरदार माहौल है.
नागपुर के बाद बैतूल संघ का दूसरा मुख्यालय है लेकिन संघ कार्यकर्ता इस बार ज़मीन पर नहीं दिखे हैं. हालांकि क्षेत्र में संघ ने आदिवासियों को जिस तरह हिंदू धर्म से जोड़ा है, उसका भाजपा के पक्ष में बहुत प्रभाव है. क़र्ज़ माफ़ी का फायदा कांग्रेस को होता नहीं दिख रहा. मोदी-गांधी से ज़्यादा स्थानीय उम्मीदवारों की चर्चा है.’
वे बताते हैं, ‘कांग्रेस मुद्दों को नहीं भुना पाई है. जन समस्याओं के मुद्दे तो दूर सांसद ज्योति धुर्वे के फ़र्ज़ीवाड़े को भी वह जनता के बच नहीं ले जा पाई है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)