प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विश्वासपात्रों में से एक केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मध्य प्रदेश की ग्वालियर लोकसभा सीट से सांसद हैं, लेकिन इस बार वे ग्वालियर के बजाय मुरैना संसदीय क्षेत्र से मैदान में हैं.
केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर मध्य प्रदेश की ग्वालियर सीट से सांसद हैं. लेकिन इस बार वे ग्वालियर छोड़कर मुरैना से चुनाव मैदान में हैं. नरेंद्र सिंह तोमर केंद्र सरकार में ग्रामीण विकास, पंचायती राज, खनन और संसदीय कार्य मंत्री हैं. इस तरह मोदी सरकार में चार अहम मंत्रालय संभालने वाले तोमर के कद का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
उनकी गिनती अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वासपात्रों/ख़ास सिपहसालारों में होती है. वे मध्य प्रदेश की ग्वालियर लोकसभा सीट से सांसद हैं. लेकिन, इस बार वे ग्वालियर से चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. सीट बदलकर वे मुरैना संसदीय क्षेत्र से मैदान में हैं.
एक ओर जहां भाजपा विकास के बढ़-चढ़कर दावे करते हुए ‘अबकी बार, 400 पार’ का नारा दे रही है, तो दूसरी ओर उसके एक अहम मंत्री का इस तरह अपनी सीट बदलना विरोधाभास पैदा करता है. सवाल उठता है कि क्या उन्हें अपने विकास कार्यों के बूते क्षेत्र की जनता पर भरोसा नहीं?
हालांकि, ऐसा नहीं है कि उन्होंने सीट पहली बार बदली है. 2009 में वे मुरैना से ही सांसद चुने गए थे. लेकिन, 2014 के चुनावों में मुरैना छोड़कर ग्वालियर चले आए और इस बार मुरैना वापस लौट गए हैं.
तब मुरैना से ग्वालियर वे इसलिए नहीं आए थे कि पार्टी के पास लड़ाने के लिए कोई उम्मीदवार नहीं था. वे इसलिए आए थे क्योंकि मुरैना की क्षेत्रीय जनता में उनके ख़िलाफ़ नाराज़गी पैदा हो गई थी. पार्टी के स्थानीय समीकरण उनके ख़िलाफ़ थे.
अब उनके ग्वालियर छोड़कर वापस मुरैना जाने को भी ग्वालियर क्षेत्र में खोते उनके जनाधार और यहां पार्टी के नेताओं के बीच उनको लेकर पनपी नाराज़गी बताया जा रहा है.
इसलिए ही मुरैना के मौजूदा सांसद अनूप मिश्रा को नज़रअंदाज़ कर नरेंद्र सिंह तोमर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से अपनी नज़दीकियों का फायदा उठाया और मुरैना से उम्मीदवार बन बैठे. वो भी तब जब ब्राह्मण और ठाकुर के आपसी वर्चस्व की लड़ाई वाली मुरैना सीट पर अनूप मिश्रा भी एक मज़बूत उम्मीदवार हो सकते थे.
2014 में जब मोदी लहर उफान पर थी, तब भी नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर सीट महज़ 29,699 मतों से जीते थे.
ग्वालियर लोकसभा सीट के अंतर्गत कुल 8 विधानसभा क्षेत्र आते हैं, ग्वालियर, ग्वालियर ग्रामीण, ग्वालियर पूर्व, ग्वालियर दक्षिण, भितरवार, डबरा, करैरा और पोहरी.
2014 के लोकसभा चुनाव में 4-4 सीटें भाजपा और कांग्रेस के खाते में गई थीं. हालांकि कुल वोट भाजपा को अधिक मिले थे, जिसके चलते नरेंद्र सिंह तोमर की जीत हुई.
लेकिन, 2018 में हुए प्रदेश विधानसभा चुनावों में ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र की इन आठ विधानसभा सीटों के कुल वोटों की गणना करें तो भाजपा 1,18,468 मतों से कांग्रेस से पिछड़ गई थी. जहां इन सभी सीटों पर कांग्रेस को कुल 5,58,648 वोट मिले, वहीं भाजपा को 4,40,180 वोट मिले.
आठ सीटों में से सात पर भाजपा की हार हुई. जो एक ग्वालियर ग्रामीण की सीट भाजपा जीती भी तो कांग्रेस के एक बागी (साहब सिंह गुर्जर) के कारण, जो कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के टिकट पर मैदान में उतर आए थे और दूसरे नंबर पर रहे. यहां भी जीत महज 1517 मतों से मिली थी. कांग्रेस के ये बागी 50 हज़ार से अधिक वोट पा गए थे. वे अब वापस कांग्रेस में लौट आए हैं तो जीती इकलौती सीट पर भी समीकरण कांग्रेस के पक्ष में चले गए.
कुल मिलाकर यह नतीजे नरेंद्र सिंह तोमर के माथे पर शिकन डालने वाले रहे. ऊपर से विधानसभा चुनावों के दौरान तोमर पर आरोप लगे कि उन्होंने क्षेत्र के कई उम्मीदवारों को हरवाने का काम किया.
मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री रहे जयभान सिंह पवैया भी उनमें से एक थे. हारने के बाद उन्होंने खुले मंच से कहा था, ‘बड़े कद के लोग भी अपनी मर्यादा का ध्यान रखते तो शायद आज शिवराज सिंह मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे होते.’
उनके इस कथन को सीधे तौर पर तोमर से जोड़कर देखा गया. क्योंकि तोमर के बड़े बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर का भी नाम उसी सीट से दावेदारी के लिए चल रहा था. तोमर इसी सीट से 2003 तक लगातार दो बार विधायक रहे थे.
लेकिन, संघ के क़रीबी होने के चलते बाज़ी पवैया मार ले गए थे. इसके अलावा और भी कई मौकों पर पवैया ने अपनी हार का ठीकरा भितरघात पर थोपा था.
वहीं, ग्वालियर पूर्व सीट से उम्मीदवार रहे सतीश सिकरवार की हार को भी तोमर की ही कारस्तानी क़रार दिया गया. तोमर नहीं चाहते थे कि सिकरवार को टिकट मिले. इसका उन्होंने पार्टी मीटिंग्स में विरोध भी दर्ज कराया था. परंतु सिकरवार टिकट पाने में सफल रहे. यह बात नरेंद्र सिंह तोमर को नागवार गुज़री थी.
कहा तो ऐसा भी जाता है कि ग्वालियर दक्षिण सीट पर ऊर्जा मंत्री नारायण सिंह कुशवाह भी तोमर के चलते ही हारे थे. क्योंकि तोमर की विश्वासपात्र रहीं भाजपा से ग्वालियर की पूर्व महापौर समीक्षा गुप्ता निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर गई थीं. जिसका ख़ामियाज़ा कुशवाह को उठाना पड़ा और वे महज़ 140 मतों से हार गए. समीक्षा को 30 हज़ार से अधिक वोट मिले थे.
एक तो जनता की नाराज़गी, ऊपर से अपनी ही पार्टी के नेताओं से भितरघात के डर ने मोदी के चहेते मंत्री को सीट बदलने के लिए मजबूर कर दिया.
वहीं, स्थानीय जनता भी तोमर की कार्यशैली से ख़ुश नहीं थी. वे इतने अहम मंत्रालय संभाल रहे थे, लेकिन फिर भी जनता के सुख-दुख में सहज उपलब्ध नहीं थे.
ग्वालियर के छात्र कुलेंद्र शर्मा बताते हैं कि सांसद से मिलना सपने देखने जैसा था. मुझे दिल्ली में अपने रीढ़ की हड्डी से संबंधित इलाज के संबंध में उनसे सहायता की ज़रूरत थी लेकिन रोज़-रोज़ बंगले के चक्कर लगवाने के बाद भी उनसे न तो मुलाकात हो सकी, न सहायता मिल सकी.
एक स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता नाम गोपनीय रखने की बात पर कहते हैं, ‘पहले ग्वालियर में महल का शासन चलता था. बिना महल की मर्ज़ी के पत्ता नहीं हिलता था. अब महल की जगह नरेंद्र सिंह तोमर ने ले ली थी.’
ग्वालियर के वरिष्ठ पत्रकार देव श्रीमाली भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं. वे बताते हैं, ‘पहली बात तो भाजपा की हालत यहां संगठन के स्तर पर बहुत ख़राब थी. संगठन के अंदर तोमर का एक निजी संगठन चल रहे थे, संगठन के पदाधिकारी उनके हिसाब से बनाए गए थे. प्रभावी लोगों को हाशिये पर कर दिया गया और चेहेतों को पद दिए गए. इसलिए बाकी लोग उनके ख़िलाफ़ थे. उन्हें लगने लगा कि जो गड़बड़ हुई है, इन्हीं के कारण हुई और विधानसभा चुनाव में इसी कारण हार हुई.’
श्रीमाली कहते हैं, ‘फिर क्षेत्र में ज़्यादातर बड़े नेता तोमर के समर्थक नहीं थे. मंत्रियों में जयभान सिंह पवैया, माया सिंह, नारायण सिंह कुशवाह उनके समर्थक नहीं थे. जो विधायक या नेता तोमर के समर्थक नहीं थे, वे सभी विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हारे और तोमर को इसका ज़िम्मेदार माना.’
वे आगे कहते हैं, ‘स्थानीय प्रशासन तोमर के अलावा किसी और की सुनता ही नहीं था. फिर मंत्री हो या कोई भी. इलाके में तोमर सुपर सीएम माने जाते थे. कोई भी पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज चौहान से किसी काम के लिए बोलता तो वे कह देते कि नरेंद्र सिंह तोमर से बात कर लो. इस कारण क्षेत्रीय नेताओं के काम नहीं हो सके और वे अपना एक्सपोजर नहीं कर पाए.’
श्रीमाली आगे कहते हैं, ‘मोदी लहर में भाजपा के सारे नेता लाखों वोटों से जीत रहे थे, तब तोमर केवल 29 हज़ार मतों से जीते थे. पुलिस प्रशासन, सरकार सब उनकी थी. अब स्थितियां बदल चुकी हैं, मोदी की लहर भी वैसी नहीं है जैसी तब थी. इसलिए तोमर ने ग्वालियर से पलायन ही उचित समझा.’
हालांकि, तोमर जिस मुरैना सीट पर अपना भाग्य आज़माने वापस पहुंचे हैं, विधानसभा चुनावों में भाजपा को वहां भी मुंह की खानी पड़ी है. आठ विधानसभा सीटों में से सात में उसकी हार हुई है. 2014 में 1,32,981 मतों से जीती इस सीट पर भाजपा 1,26,842 वोटों से पिछड़ गई है.
कुल मिलाकर करीब ढाई लाख से अधिक मतदाता उससे छिटके हैं. लेकिन तोमर/ठाकुर बाहुल्य इस क्षेत्र में नरेंद्र सिंह तोमर को उम्मीद है कि सजातीय मतदाता उसकी नैया पार लगाएगा.
उनके इस विश्वास के पीछे कारण भी है. 2008 के विधानसभा चुनावों में भाजपा मुरैना में 52,672 मतों से पिछड़ गई थी. बावजूद इसके छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों में नरेंद्र सिंह ने यह सीट 1,00,997 मतों से जीती थी.
हालांकि, इस बार नरेंद्र सिंह मुरैना से भी लड़ने में थोड़ा असहज थे. इसीलिए नाम की घोषणा के लंबे समय बाद तक उन्होंने प्रचार शुरू नहीं किया था. वे भोपाल की सुरक्षित सीट से लड़ना चाहते थे. लेकिन वहां से कांग्रेस की ओर से प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नाम की घोषणा ने उनके सभी समीकरण बिगाड़ दिए.
श्रीमाली कहते हैं, ‘विधानसभा का लोकसभा से तुलनात्मक अध्ययन सही नहीं है. क्योंकि विधानसभा में जातिगत समीकरण और प्रत्याशियों के समीकरण अलग होते हैं. लेकिन यह भी सही है कि मुरैना में भी तोमर के पक्ष में माहौल नहीं है. लेकिन अब उन्हें कहीं तो जाना ही था. भोपाल का सोच रहे थे लेकिन पार्टी तैयार नहीं हुई. फिर भी उनको लगता होगा कि मुरैना में ठाकुरों के वोट अधिक हैं जो उन्हें बचा लेंगे.’
इस सबके इतर स्थानीय पत्रकार यह भी मानते हैं कि तोमर ने ग्वालियर संसदीय क्षेत्र में ऐसा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया जो जनता में अपनी छाप छोड़ता हो और जिसे दिखाकर वे वोट मांग सकें. जो काम भी कराए, उनमें से ज़्यादातर समय पर पूरे नहीं हो सके.
आलम यह रहा कि केंद्र सरकार में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री होने के बावजूद नरेंद्र सिंह तोमर प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत गोद लिए तीन गांव सिरसौद, चीनौर और मुगलपुरा में आधारभूत जन सुविधाएं तक नहीं पहुंचा सके.
श्रीमाली कहते हैं, ‘क्षेत्र में बतौर सांसद माधवराव सिंधिया ने इतने बड़े-बड़े काम कराए थे कि छोटा-मोटा काम तो आदमी की नज़र में ही नहीं आता. तोमर के सामने यह भी एक चुनौती थी.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)