बदलते दौर के भौतिक चमक-दमक को तो भोजपुरी सिनेमा खूब दिखाता है, पर सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की जड़ता से नहीं भिड़ता. वह एक बड़े विभ्रम का शिकार है.
प्रख्यात फिल्मकार मार्टिन स्कॉर्सेसी के मुताबिक, सिनेमा का मतलब उसके फ्रेम के भीतर और बाहर की चीजों से तय होता है. जाने-माने गीतकार-लेखक जावेद अख्तर कहते हैं कि सिनेमा के जरिये हम देश की आधुनिक इतिहास-यात्रा को रेखांकित कर सकते हैं.
दिल्ली में आयोजित भोजपुरी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन के संदर्भ में ये दोनों बातें बार-बार मेरे जेहन में आती रहीं. फेस्टिवल में प्रदर्शित दस फिल्मों के सहारे भोजपुरी सिनेमा के इतिहास को तो देखा ही जा सकता है, इन फिल्मों में भोजपुरी समाज के वैचारिक और मनोवैज्ञानिक उलझनों को भी पढ़ा जा सकता है.
पहले तो इस आयोजन के प्रयोजन और प्रारूप पर थोड़ा विचार कर लेना ठीक होगा. इससे भोजपुरी सिनेमा और समाज के वर्तमान को समझने में सहूलियत होगी.
फिल्म फेस्टिवल निदेशालय द्वारा जारी प्रेस-विज्ञप्ति की पहली ही पंक्ति में कहा गया है: ‘राष्ट्रीय राजधानी- दिल्ली’ में ‘लिट्टी-चोखा और भोजपुरी सिनेमा के आस्वादन का अवसर’. पहले पैराग्राफ में फिर से ‘पकवानों और सिनेमा’ का आनंद लेने के लिए दिल्लीवासियों को आमंत्रित किया गया है.
दूसरे पैराग्राफ में सिनेमा के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों, खाने-पीने के इंतजाम और कला-प्रदर्शनियों के बारे में बताया गया है. विज्ञप्ति में ‘इस क्षेत्र’ की नामी-गिरामी फिल्मी हस्तियां मौजूद होने का उल्लेख भी है.
यह भी दिलचस्प है कि मुख्य अतिथि मनोज तिवारी के परिचय में उनके सांसद होने का हवाला नहीं है. इन संदर्भों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भोजपुरी सिनेमा के बहाने एक सांस्कृतिक आयोजन का प्रयास किया गया है. इस प्रयास में फिल्मों के चयन, इस फेस्टिवल के उद्देश्य और आगे की दशा-दिशा पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है.
चलिए, अगर यह मान भी लें कि उत्सवधर्मिता के लिहाज से खाने-पीने और गीत-गवनई का इंतजाम भी होना चाहिए, पर इसमें मधुबनी पेंटिंग को डालने का क्या तुक है? और फिर, लिट्टी-चोखा से लेकर फूड स्टॉल का जिक्र बार-बार क्यों? अगर ऐसा आयोजन पहली बार हो रहा था, तो विज्ञप्ति में इसकी चर्चा क्यों नहीं की गई है?
इन बातों का निष्कर्ष यही है कि फेस्टिवल भोजपुरी सिनेमा और संस्कृति को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से उतना प्रेरित नहीं था, जितना कि भोजपुरी भाषा बोलनेवाले दिल्ली के बाशिंदों को सतही भावुकता में बांधने के इरादे से.
बहरहाल, दिल्ली के कुछ अखबारों ने इस आयोजन का राजधानी के तीन नगर निगमों के आसन्न चुनाव से जुड़े होने की बात कही है. मनोज तिवारी उत्तरी दिल्ली से भाजपा सांसद हैं और पार्टी के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष हैं.
दिसंबर में पॉयनियर अखबार की एक रिपोर्ट में अनाम भाजपा नेता के हवाले से यह बात कही भी गई थी कि दिल्ली में बीते दस सालों में पूर्वांचलियों की संख्या करीब दस फीसदी बढ़ी है और मतदाताओं में उनकी हिस्सेदारी 35 से 40 फीसदी तक हो चुकी है.
खैर, ऐसे आयोजनों से अगर भाजपा चुनावी लाभ उठाना चाहती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन उनका यह दावा तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है कि इससे भोजपुरी सिनेमा को लेकर जागरूकता बढ़ेगी या भोजपुरी सिनेमा की फूहड़ता को लेकर ‘पूर्वाग्रह’ टूटेगा. इसमें कुछ फिल्में ऐसी दिखाई गई हैं जो इस ‘पूर्वाग्रह’ को मजबूत ही करती हैं.
रही बात राजनीति की, तो नितांत आधुनिक माध्यम होने के नाते सिनेमा अपने पूरे हिसाब-किताब में अराजनीतिक होने की छूट ले भी नहीं सकता है. आयोजकों की मंशा चाहे जो हो, ऐसे आयोजनों की इस वजह से सराहना होनी चाहिए कि भोजपुरी सिनेमा को लेकर एक प्रयास हुआ है.
यदि इसे गंभीरता से आगे बढ़ाया जाए, तो निश्चित रूप से सकारात्मक परिणाम भी सामने आएंगे. यदि आयोजक पार्टी के लिए भोजपुरी भाषा के मतदाताओं को रिझाना चाहते हैं, तो उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश का कोई आप्रवासी देश की राजधानी में लिट्टी-चोखा खाने, सिनेमा देखने, मधुबनी पेंटिंग देखने या भागलपुरिया सिल्क पहनने के लिए नहीं आता है. वह रोजी-रोटी और रहन-सहन की बेहतरी की उम्मीद में पलायन करता है. इसलिए सरकार को इन बातों पर अधिक फोकस करना चाहिए.
किसी क्षेत्र-विशेष की भावनात्मक गौरव-गाथा गाकर अप्रवासियों का कल्याण नहीं होना है. फिल्म फेस्टिवल में बोलते हुए भोजपुरी सिनेमा के लोकप्रिय अभिनेता रवि किशन ने कहा कि जो लोग बिहारियों को निम्न श्रेणी का मजदूर मान कर या पिछड़ा होने को लेकर हेय दृष्टि से देखते हैं या उपहास उड़ाते हैं, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि बिहार से बड़ी संख्या में उच्च अधिकारी और रवि किशन जैसे लोग भी निकलते हैं.
फेस्टिवल के इस ब्रांड एंबेस्डर को यह तथ्य पता होना चाहिए कि आबादी के अनुपात में बिहार से सिविल सेवाओं में जाने का अनुपात बहुत कम है. यह भी उल्लेखनीय है कि रवि किशन स्वयं उत्तर प्रदेश के जौनपुर से आते हैं.
बहरहाल, भोजपुरी सिनेमा का यह आयोजन और भोजपुरी सिनेमा की मौजूदा स्थिति भोजपुरी समाज के संकट का एहसास भी कराते हैं. जैसे बिहार और पूर्वांचल की राजनीति पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार और अन्याय के मुद्दों पर बतकही से चलती है, वैसे ही भोजपुरी सिनेमा की विषय-वस्तु भी इन मुद्दों को सतही तरीके से अभिव्यक्त करती है.
चूंकि समाज में जड़ता है तो वह सिनेमा में भी आता है. आज का भोजपुरी सिनेमा सत्तर-अस्सी के दशक के विचार-शून्य सिनेमा की नकलभर है. इतना ही नहीं, वह उन फिल्मों की सीधे-सीधे नकल भी करता है. भोजपुरी की शुरुआती फिल्मों को पारिवारिक दर्शकों का भरोसा मिला था लेकिन आज वह अनुपस्थित है.
पलायन, अकेलेपन और बिना किसी सांस्कृतिक चेतना के भटकती आबादी को फूहड़ फंतासी परोसकर पैसा कमाने की होड़ मची हुई है. फिल्मों और म्यूजिक एल्बमों में कोई फर्क नहीं रह गया है. बदलते दौर की भौतिक चमक-दमक को तो भोजपुरी सिनेमा खूब दिखाता है, पर सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की जड़ता से नहीं भिड़ता. वह एक बड़े विभ्रम का शिकार है. इसी विभ्रम में वह सतही फिल्मों को ‘लिट्टी-चोखा’ और ‘माई की बोली’ के आवरण में परोसता है.
चूंकि वह वैचारिक विभ्रम में है, इसलिए सिनेमा के नए आर्थिक मॉडल को लेकर भी वह नया नहीं सोच पा रहा है. आज भी एक भोजपुरी फिल्म का औसत बजट 70 लाख से सवा करोड़ रुपये के बीच होता है. इसका आधा हिस्सा कथित पुरुष स्टार ले जाते हैं जिनका दावा है कि फिल्में उनके दम पर चलती हैं. इस वजह से तकनीक और अन्य प्रतिभाओं के लिए मौके कम हो जाते हैं.
दर्शकों की रुचियां भी बदल रही हैं. वह एक जैसी फिल्मों से ऊब चुका है. ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि महज पांच से दस फीसदी फिल्में ही ठीक से व्यवसाय कर पाती हैं.
भोजपुरी सिनेमा और टेलीविजन के जाने-पहचाने लेखक-गीतकार मनोज भावुक बताते हैं कि जो निर्माता अपनी फिल्मों का वितरण खुद करते हैं, वे तो कमाई करने में सफल हो जाते हैं, पर जो निर्माता सिर्फ फिल्म बनाने तक सीमित हैं, उनके लिए बड़ी चुनौतियां हैं. फिल्मों के वितरण को लेकर भी कोई सोच या दूरदृष्टि फिल्म उद्योग में नहीं है.
लेकिन भावुक यह भी कहते हैं कि भोजपुरी सिनेमा की विषय-वस्तु और व्यावसायिक कमजोरियों पर उंगली उठाने से कुछ हासिल नहीं होगा. जरूरत इस बात की है कि उंगली उठानेवाले अपनी बौद्धिक और आर्थिक क्षमता का निवेश करें. अच्छी फिल्मों को समुचित प्रचार नहीं मिल पाता है. इस कारण भी भोजपुरी सिनेमा की नकारात्मक छवि अधिक उभर कर सामने आती है.
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. नितिन चंद्रा की ‘देसवा’ गोवा में भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल के पैनोरामा सेक्शन में चुनी गयी और देश-विदेश में जहां भी इसका प्रदर्शन हुआ, लोगों ने सराहना की. सिनेमा के स्थापित निर्देशकों ने चंद्रा को बधाई दी. पर, वे बिहार में निर्माताओं-निर्देशकों के दुष्चक्र को तोड़कर फिल्म को ठीक से रिलीज न करा सके.
यदि भोजपुरी फिल्में नहीं बदलीं, तो स्मार्ट फोन और कंप्यूटर के बढ़ते प्रचलन के दौर में उसके आस्तित्व का बचा रहना संभव नहीं होगा. हिंदी और अन्य क्षेत्रीय फिल्मों के कारोबार का आधार आज मल्टीप्लेक्स हो चला है. भोजपुरी फिल्में अभी इस जगह तक नहीं पहुंच सकी हैं. इसके लिए या तो उनका स्तर जिम्मेवार है या फिर प्रचार का तरीका.
शाहरुख खान और सलमान खान जैसे हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार अपनी फिल्मों के प्रचार के लिए जी-जान से मेहनत करते हैं तथा इस कोशिश में वे अखबारों और चैनलों के पास भी जाते हैं. लेकिन भोजपुरी में यह चलन नहीं है.
आजकल भोजपुरी फिल्मों का प्रचार फेसबुक पर किया जाता है पर उन्हें यह समझना होगा कि फेसबुकिया समाज उनका मुख्य दर्शक नहीं है और अगर है भी तो उसे मौजूदा कंटेंट से परहेज है.
देश के बाहर भी अनेक देशों में भोजपुरी बोली जाती है. परंतु भोजपुरी उद्योग अभी उस बाजार को ठीक से समझ नहीं सका है. वहां हिंदी फिल्में खूब चलती हैं. मॉरीशस, त्रिनिदाद, गुयाना, फिजी जैसे देशों को अगर हिंदी में बेहतर मिल रहा है, तो वे घटिया नकल को स्वीकार भी नहीं करेंगे.
भोजपुरी सिनेमा के सामने मराठी फिल्मों के नए दौर का बेहतरीन उदाहरण है. साथ ही, यह भी जरूरी है कि धन और विषय भोजपुरी भाषी क्षेत्रों से मिले, न कि मुनाफे के लिए सिर्फ दूसरे इलाके के लोगों पर निर्भर रहा जाए.
बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ केंद्र सरकार को फिल्मों के निर्माण और प्रदर्शन को बढ़ावा देने की कोशिश करनी होगी. मुंबई पूर्वांचल से आज भी बहुत दूर है. भोजपुरी की माटी की संवेदनशीलता और सुगंध की उम्मीद वहां से करना ठीक नहीं होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )