सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कर्नाटक सरकार के 2018 के उस क़ानून को बरक़रार रखा जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति एवं वरिष्ठता क्रम में आरक्षण की व्यवस्था की गई है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कर्नाटक सरकार के 2018 के उस कानून को बरकरार रखा जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति एवं वरिष्ठता क्रम में आरक्षण की व्यवस्था की गई है.
शीर्ष अदालत ने कहा कि उन्हें शासन का हिस्सा बनाना एक समान नागरिकता को मजबूत करना है.’
जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों से पदोन्नति पाने वाले सक्षम नहीं हैं या उनकी नियुक्ति से दक्षता कम हो जाएगी क्योंकि यह रुढ़िवादी संकल्पना है.
पीठ ने कहा कि केंद्र या राज्य के मामलों में प्रशासन की दक्षता को समग्रता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जहां समाज के अलग अलग वर्ग जनता द्वारा और जनता के लिए शासन की सच्ची महत्वाकांक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं.
शीर्ष अदालत ने यह फैसला उन याचिकाओं पर सुनाया जिनमें कर्नाटक सरकार के एससी, एसटी कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित 2018 के कानून की वैधता को चुनौती दी गई थी.
नवभारत टाइम्स के अनुसार, यह पहला मौका है जब सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में इस प्रावधान को मंजूरी देने के बाद प्रमोशन में आरक्षण के आदेश को बरकरार रखा है. कर्नाटक से पहले कई अन्य राज्यों ने भी एससी-एसटी वर्ग को प्रोन्नति में आरक्षण का नियम बनाया था, लेकिन अदालत से मंजूरी नहीं मिल सकी थी.
अदालत ने यह कहकर उनके फैसलों को खारिज कर दिया था कि उनका आदेश 2006 में तय की गई शर्तों पर खरा नहीं उतरता है, जैसे- विभागवार अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लोगों के प्रतिनिधि का सर्वे किया जाना चाहिए.
पीठ ने कहा कि परीक्षा में परफॉर्मेंस को मेरिट से जोड़ने की मौजूदा व्यवस्था में खामी है. इसे बदला जाना चाहिए. कर्नाटक सरकार के फैसले को बरकरार रखने का आदेश देते हुए दो सदस्यीय बेंच ने कहा कि मेरिट वाला कैंडिडेट वही नहीं है, जो सफल रहा हो या फिर प्रतिभाशाली हो.
इसके अलावा वे कैंडिडेट्स भी मेरिट के तहत माने जाने चाहिए, जिनकी नियुक्ति अनुसूचित जाति एवं जनजाति समाज के उत्थान के संवैधानिक उद्देश्यों को पूर्ण करती है.
(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)