पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुशीनगर लोकसभा सीट पर भाजपा से विजय दुबे, कांग्रेस से आरपीएन सिंह और सपा-बसपा गठबंधन की ओर से नथुनी प्रसाद कुशवाहा चुनाव मैदान में हैं.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अमेठी और रायबरेली के अलावा जिन कुछ लोकसभा सीटों पर अपना परचम फहराने को लेकर आश्वस्त है, उनमें से एक कुशीनगर भी है.
इस सीट पर उसके वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह (जिन्हें उनके क्षेत्र में ‘पडरौना के राजा’ व ‘कुंवर साहब’ जैसे नामों से भी जाना जाता है) भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी विजय दुबे के सामने मुकाबले में हैं.
भीषण गर्मी के बीच किसी भी तरह की चुनावी लहर की अनुपस्थिति के चलते उन्हें विश्वास है कि प्रदेश की योगी सरकार के साथ केंद्र की मोदी सरकार द्वारा क्षेत्र के मतदाताओं से की गई अनेक वादाखिलाफियां अंततः उनकी चुनावी नैया पार लगा देंगी.
फिलहाल वे क्षेत्र का विकास ठप होने और रोजी-रोजगार घटते जाने के साथ गन्ना किसानों की समस्याओं को जोर-शोर से उठा रहे हैं और मतदाताओं को याद दिला रहे हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव में यहां प्रचार करने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के 100 दिन में न सिर्फ गन्ना किसानों बल्कि चीनी मिलों की भी समस्याएं दूर कर उन्हें पटरी पर ला दिया जाएगा.
प्रधानमंत्री का यह वादा तो अब तक अधूरा है ही, उनके और भाजपा सरकारों के खाते में ऐसी कई और वादाखिलाफियां भी हैं.
आरपीएन सिंह और उनके समर्थक मतदाताओं को यह भी बता रहे हैं कि गत रविवार को प्रधानमंत्री उनसे फिर वोट मांगने कुशीनगर आए तो इन वायदों की चर्चा ही नहीं की. उन्हें राजस्थान के अलवर में हुई एक गैंगरेप की त्रासदी पर राजनीति करना तो याद रहा, लेकिन कुशीनगर से किए अपने 2017 के वायदों की बात भूल गई.
कांग्रेसियों को विश्वास है कि कुशीनगर के लोग 19 मई को बूथों पर जाएंगे तो भाजपा के प्रत्याशी को प्रधानमंत्री की इस भूल की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.
यूं तो सपा-बसपा व रालोद का गठबंधन यहां कांग्रेस व भाजपा की सीधी लड़ाई को त्रिकोणात्मक बनाने के लिए कुछ भी उठा नहीं रख रहा.
प्रसंगवश, राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 पर गोरखपुर से 50 किमी दूर स्थित कुशीनगर को गौतम बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल होने के कारण अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल है, लेकिन लोकसभा सीट होने का गौरव 2008 में मिला.
उससे पहले इस सीट का नाम पडरौना था. 2009 के लोकसभा चुनाव में आरपीएन सिंह ने बसपा के दिग्गज नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को 21,094 वोटों से हराकर यह सीट जीती थी लेकिन 2014 की मोदी लहर में अपना कब्जा बरकरार नहीं रख पाए थे.
भाजपा ने अपने सिटिंग एमपी राजेश पांडेय ‘गुड्डू’ के खराब रिपोर्ट कार्ड के कारण जिन विजय दुबे को इस बार फिर उनके मुकाबले ला खड़ा किया है, 2009 में वे तीसरे स्थान पर रहे थे.
2012 में विजय दुबे पाला बदलकर कांग्रेस में ही आ गए और उसके टिकट पर प्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़कर विधायक बन गए. लेकिन 2017 आते-आते उन्होंने ‘घरवापसी’ कर ली और अब भाजपा ने उन्हें लोकसभा का टिकट थमा दिया है.
उन्हें आशा है कि वे सीट पर पार्टी का कब्जा बनाए रख सकेंगे. लेकिन एक तो दुबे की दलबदलू की छवि उनकी राह रोकती दिखती है. दूसरे इस बार कोई लहर नहीं दिखाई दे रही. तीसरे गुड्डू समर्थकों से भीतरघात का भी खतरा है. इसीलिए कांग्रेसी कह रहे हैं कि वे उन्हें 2009 की तरह तीसरे स्थान पर धकेल देंगे.
सपा-बसपा गठबंधन ने नथुनी प्रसाद कुशवाहा को मैदान में उतारा है और वे पूरे जोश के साथ लड़ रहे हैं. क्षेत्र की ज्यादातर आबादी के ग्रामीण है, जिसमें 17 प्रतिशत दलित और इससे थोड़े ज्यादा अल्पसंख्यक हैं.
कुशवाहा इनमें पिछड़ों को भी जोड़कर अपनी जीत पक्की बता रहे हैं. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ें उनकी बात की ताईद नहीं करते और उनकी बिना पर भी गठबंधन की उम्मीदें धूमिल लगती हैं.
2014 में बसपा के डाॅ. संगमलाल मिश्र को 1,32,881 और सपा के राधेश्याम सिंह को 1,11,256 वोट मिले थे. आरपीएन सिंह हार भले ही गए थे, लेकिन उन्हें इन दोनों के वोटों के कुल योग 2,44,137 से भी ज्यादा 2,84,511 वोट मिले थे और वे भाजपा के राजेश पांडेय गुड्डू से 85,550 वोटों से हारे थे. इस बार भी लोग कहते हैं कि आखिर में आरपीएन व विजय दुबे में सीधा मुकाबला ही होगा.
प्रसंगवश, दून स्कूल में पढ़े-लिखे आरपीएन सिंह को राजनीति अपने पिता सीपीएन सिंह से विरासत में मिली है. पिता-पुत्र में एक विचित्र संयोग यह भी है कि अपने-अपने वक्त में दोनों फिल्मी अभिनेता बनना चाहते थे.
पिता की दिलचस्पी हॉलीवुड में थी तो बेटे की बॉलीवुड में. लेकिन किसी के भी अरमान पूरे नहीं हुए. सीपीएन सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं जबकि उन्हीं की राह चलकर आरपीएन सिंह भी नेतागिरी में रम गए हैं. अब तक वे तीन बार विधायक और एक बार सांसद चुने जा चुके हैं.
उनकी इस विरासत के चलते ही प्रधानमंत्री ने गत रविवार की अपनी कुशीनगर की सभा में गांधी नेहरू परिवार के वंशवाद के साथ आरपीएन सिंह के इस वंशवाद पर भी भरपूर निशाना साधा. साथ ही अपने राष्ट्रवाद के मुद्दे को आगे किया और ‘बेईमानों’ के राज से बचने के लिए ‘ईमानदार नेतृत्व’ को ही फिर मौका देने की बात कही.
जानकार कहते हैं कि इससे उलटा कांग्रेस को ही लाभ होने के आसार बन रहे हैं क्योंकि कांग्रेस पर ज्यादा और गठबंधन पर कम बरस कर मोदी क्षेत्र के 17 प्रतिशत से ज्यादा अल्पसंख्यक मतदाताओं की दुविधा दूर कर गए हैं.
अब अल्पसंख्यकों में इस बाबत कोई असमंजस नहीं रह गया है कि वे कांग्रेस या गठबंधन दोनों में से किसे चुनें? उनके निकट प्रधानमंत्री के कांग्रेस पर ज्यादा हमलावर होने का अर्थ यह है कि क्षेत्र में वही भाजपा को असली चुनौती दे रही है और वे उसे ही वोट देंगे.
दूसरे पहलू पर जाएं तो आरपीएन की एक कमजोरी यह है कि लंबे वक्त से कांग्रेस हाईकमान के ‘ब्लू आईड बॉय’ होने के बावजूद स्थानीय कांग्रेसियों का एक छोटा धड़ा न सिर्फ उनसे असंतुष्ट रहता है बल्कि असंतोष का प्रदर्शन भी करता रहता है.
इस चुनाव में भी वह धड़ा पूरे मन से उनके पक्ष में सक्रिय नहीं है. अलबत्ता, आरपीएन की जनता के मुद्दों को लेकर संघर्ष करते रहने वाले नेता की छवि भी उनकी मददगार हो रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)