पूर्वांचल की घोसी लोकसभा सीट अरसे तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, फिर कांग्रेस और सपा-बसपा का गढ़ रही है, इस बार यहां से भाजपा से नाराज़ उसकी सहयोगी सुभासपा ने अपना उम्मीदवार उतारकर ‘कमल न खिलने देने’ की ठान ली है.
उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल के मऊ जिले में स्थित घोसी लोकसभा सीट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘कटप्पा’ ने अब भाजपा के प्रत्याशी को ही ‘बाहुबली’ बना लिया है और दोबारा कमल खिलाने के उसके अरमानों का अंत कर देने पर आमादा है.
बात को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा- थोड़ी तफसील में. दरअसल, 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में जिले की सदर सीट पर भाजपा की गठबंधन सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के प्रत्याशी महेंद्र राजभर बहुजन समाज पार्टी के बाहुबली प्रत्याशी मुख्तार अंसारी के खिलाफ मैदान में थे.
तब उनका प्रचार करने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भुजौटी में हुई अपनी सभा में कहा था कि महेंद्र जी ‘बाहुबली’ का अंत करने को ‘कटप्पा’ बनकर चुनाव लड़ रहे हैं ओर वे इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाकर ही मानेंगे.
महेंद्र वह चुनाव जीत नहीं पाए, लेकिन तभी से उनको ‘कटप्पा’ कहा जाने लगा- मोदी का कटप्पा. लेकिन अब बदली हुई परिस्थितियों में मोदी-योगी से बुरी तरह नाराज सुभासपा ने भाजपा के कब्जे वाली घोसी सीट पर महेंद्र राजभर, जो उसके उपाध्यक्ष भी हैं, को अपना प्रत्याशी घोषित कर भाजपा के हरिनारायण राजभर से भिड़ा दिया है, तो राजनीतिक हलकों में हरिनारायण को महेंद्र का ‘बाहुबली’ कहा जाने लगा है.
यूं, महेंद्र मुख्य मुकाबले में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं और उनके पहले दूसरे तो क्या, तीसरे नंबर पर आने को लेकर भी संदेह जताये जा रहे हैं. लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि वे राजभर वोटों का बंटवारा कराकर हरिनारायण की किस्मत का जो फैसला लिखेंगे, वह ‘धोखेबाज भाजपा’ से बदला लेने की उनके अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर की भावनाओं के अनुरूप ही होगा.
उनके समर्थक प्रचार में इसे छिपा भी नहीं रहे हैं. वे खुल्लमखुल्ला कह रहे हैं कि जीतें चाहे हारें, भाजपाई कमल को खिलने नहीं देंगे. तिस पर क्षेत्र में हरिनारायण के खिलाफ एक और नुकसानदेह प्रचार यह भी है कि भाजपा एक समय खुद भी उनसे असंतुष्ट थी और खराब रिपोर्ट कार्ड के कारण उनको प्रत्याशी नहीं बनाना चाहती थी.
वह तो सुभासपा के साथ बात न बन पाने पर उसने विकल्पहीनता की मजबूरी में उन्हें टिकट दिया और अभी भी उन्हें अपने अपने किए-धरे का नहीं ‘मोदी नाम केवलम’ का ही सहारा है. यानी उन्हें जो भी वोट मिलेंगे, मोदी के ही नाम पर मिलेंगे, खुद के बूते पर नहीं.
प्रसंगवश, घोसी सीट अरसे तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, फिर कांग्रेस और सपा-बसपा का गढ़ रही है. लंबे अरसे तक यहां से भाकपा के झारखंडे राय व कांग्रेस के कल्पनाथ राय जैसे नेता चुने जाते रहे हैं. आज भी लोग कल्पनाथ राय के केंद्रीय मंत्री होने के दिनों क्षेत्र में हुए विकास कार्यों को याद करते हैं.
भाजपा ने इस सीट पर 2014 की मोदी लहर में पहली बार अपना परचम लहराया तो उसे कतई इल्म नहीं था 2019 आते-आते उसकी हमसफर सुभासपा ही उसके लिए ‘दुश्मन न करें दोस्त ने वो काम किया है’ की भूमिका में उतर आएगी. लेकिन हुआ कुछ ऐसा ही.
सुभासपा ने इस सीट पर आंखें गड़ाईं तो भाजपा ने उसके अध्यक्ष को प्रस्ताव भेजा कि वह अपने मौजूदा सांसद का टिकट काटकर उन्हें या उनके पुत्र अरविंद राजभर को दे देगी यानी सीट उनकी पार्टी को देने के बजाय उनको अपना प्रत्याशी बना देगी.
लेकिन सुभासपा नेताओं ने अपनी पार्टी की पहचान दरकिनार कर भाजपा के सिंबल पर लड़ना कुबूल नहीं किया. बात बिगड़ गई तो अब दोनों सहयोगी दल आमने-सामने हैं और प्रतिद्वंद्वी दल उनकी रोमांचक लड़ाई के मजे ले रहे हैं.
सपा-बसपा गठबंधन से बसपा के अतुल राय उनके सामने हैं, जो बाहुबली मुख्तार अंसारी के नजदीकी बताये जाते हैं. कांग्रेस से पूर्व सांसद बालकृष्ण चौहान और भाकपा से उसके वरिष्ठ नेता राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान प्रत्याशी हैं.
इनमें अतुल राय के खिलाफ वाराणसी के यूपी कॉलेज की पूर्व छात्रा से बलात्कार का मामला उछला हुआ है, जिसमें गैर-जमानती वारंट जारी होने के बाद वे फरार हो गये हैं. कहते हैं कि वे हरियाणा में कहीं छिपे हुए हैं और हाईकोर्ट से कोई राहत न मिलने के बाद सर्वोच्च न्यायालय से उसकी उम्मीद कर रहे हैं. लेकिन लेख के प्रकाशन तक उन्हें कोई राहत नहीं मिल पाई है.
गठबंधन के कार्यकर्ता उनकी गैरहाजिरी में भी ‘करो या मरो’ की शैली में उनके लिए पसीना बहाने का दावा कर रहे और कहते हैं कि वे फंसे नहीं हैं बल्कि उन्हें साजिश के तहत फंसाया गया है. जो भी हो, भाजपा उनकी इस फंसंत का लाभ उठाने को आतुर है, तो कांग्रेस की बांछें भी खिल गई हैं.
उसे उम्मीद हो गई है कि अंततः वह वह लड़ाई में खुद को अतुल राय की जगह लाने में सफल हो जायेगी. लेकिन भाकपा के वरिष्ठ नेता अतुल कुमार अंजान की चुनाव मैदान में प्रतीकात्मक उपस्थिति ही है.
वे 1998 के लोकसभा चुनाव से ही अपनी पार्टी की 1980 में खो गई यहां की जमीन तलाशते आ रहे हैं, जब उसके नेता झारखंडे राय अंतिम बार भाकपा के टिकट पर चुने गये थे. लेकिन न वे सफल हो पा रहे हैं और न ही हार मान रहे हैं.
पिछले चुनाव में तो वोटों का ऐसा ध्रुवीकरण हुआ कि उन्हें 18,162 वोट ही मिल पाए. फिर भी उनके प्रचार अभियान में अन्य दलों के बरक्स एक नैतिक चमक दिखाई देती है. वे जाति, धर्म या बाहुबल के आधार पर समीकरण बैठाने के बजाय राष्ट्रीय व स्थानीय मुद्दे उठाते और उन्हीं की बिना पर लोगों से समर्थन मांगते दिखते हैं.
दूसरी ओर आम मतदाता सांसदों व सरकारों की वादा खिलाफियों के कारण निराश और निर्लिप्त से दिखते हैं. एक मतदाता ने तो खीझते हुए कहा, ‘क्या करें इस चुनाव का? क्षेत्र की एकमात्र चीनी मिल खस्ताहाल है तो इकलौता सोलर पावर प्लांट बंद. गन्ना संस्थान की तो यादें ही शेष हैं. विकास ठप है, सड़कें खस्ताहाल और गन्ना एवं आलू किसानों की तो जैसे किस्मत ही फूट गई है.’
इस बीच चुनावी मुकाबले का रंग रोज-रोज बदल रहा है और नतीजे की भविष्यवाणी मुश्किल हो रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)