नाथूराम गोडसेजी तो देशभक्त थे ही, गांधी भी थे

‘नाथूराम गोडसेजी देशभक्त थे, हैं और रहेंगे’, ‘हिंदूपन की नई प्रतीक’ प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान के बाद जो शोर उठा, उसके बाद के घटनाक्रम पर ध्यान देने से कुछ दिलचस्प बातें उभर कर आती हैं.

(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

‘नाथूराम गोडसेजी देशभक्त थे, हैं और रहेंगे’, ‘हिंदूपन की नई प्रतीक’ प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान के बाद जो शोर उठा, उसके बाद के घटनाक्रम पर ध्यान देने से कुछ दिलचस्प बातें उभर कर आती हैं.

(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)
(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

नाथूराम गोडसेजी तो देशभक्त थे ही, गांधी भी थे. भारतीय जनता पार्टी की तरफ से हिंदुओं के लिए पेश की गई ताज़ा आदर्श प्रज्ञा ठाकुर ने जो कहा उसका निष्कर्ष यही है.

जब मालेगांव में हुए आतंकवादी मामले की अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा द्वारा भोपाल से उम्मीदवार बनाए जाने पर सवाल उठा तो भाजपा के मुख्य उत्तेजक ने कहा कि प्रज्ञा ठाकुर हिंदू संस्कृति की प्रतीक हैं.

‘नाथूराम गोडसेजी देशभक्त थे, हैं और रहेंगे’, ‘हिंदूपन की नई प्रतीक’ प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान के बाद जो शोर उठा, उसके बाद के घटनाक्रम पर ध्यान देने से कुछ दिलचस्प बातें उभर कर आती हैं.

भारतीय जनता पार्टी ने इस वक्तव्य से पल्ला छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा कि यह प्रज्ञा का निजी मत है. यह भी भाजपा प्रवक्ता ने कहा कि विवाद समाप्त हो जाना चाहिए क्योंकि प्रज्ञा ठाकुर ने माफी मांग ली है. लेकिन तब तक सार्वजनिक रूप से प्रज्ञा ठाकुर की तरफ से कोई सफाई नहीं दी गई थी.

फिर प्रज्ञा ठाकुर का बयान आया, ‘अपने संगठन में निष्ठा रखती हूं, उसकी कार्यकर्ता हूं, और पार्टी की लाइन मेरी लाइन है.’ इस बयान में पहले के बयान पर कोई अफ़सोस नहीं जताया गया, न उसका कहीं जिक्र आया. इस बयान से यह साफ़ है कि प्रज्ञा अपने अपने वक्तव्य पर कायम थीं.

यह तो नसीब है गांधी का कि आज भी उनकी हत्या को मीडिया का वह हिस्सा भी बुरा मानता है जो उन्हें बाकी सारे मामलों में नालायक समझता रहा है.

इस वजह से भाजपा पर प्रज्ञा के इस दूसरे बयान के बाद भी दबाव बना रहा और तब रात को एक वीडियो वक्तव्य जारी हुआ जिसमें उन्होंने कहा, ‘अगर इसने (मेरे बयान) किसी की भावना को चोट पहुंचाई है तो मैं माफ़ी मांगती हूं. गांधीजी ने जो देश के लिए किया, वह भुलाया नहीं जा सकता. मैं उनका बड़ा आदर करती हूं.’

इन सबके बीच भाजपा के मुख्य उत्तेजक ने बंगाल में अपने भाषण में जनता को बताया, ‘हमारे देश में भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्रधारी कहा जाता है और महात्मा गांधी को चक्रधारी मोहन कहा जाता है. आज हमारे देश को दोनों ही महामोहनों की राह पर चलने की आवश्यकता है: विकास के लिए चक्रधारी मोहन की और सुरक्षा के लिए सुदर्शन चक्रधारी की.’

यह बात अलग है और इस पर कहीं और विस्तृत विचार किया जाना चाहिए कि खुद गांधी सुदर्शन चक्र की हिंसक व्याख्या के पक्ष में नहीं थे. यहां तक कि जब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने राष्ट्रीय ध्वज में चक्र की व्याख्या सुदर्शन चक्र के रूप में की तो गांधी ने स्पष्ट किया कि यह अशोक का चक्र है और अहिंसा का प्रतीक है.

इसकी हिंसक व्याख्या सुदर्शन चक्र के रूप में करना गलत है! यही बात आंबेडकर ने राष्ट्र ध्वज के बारे में संविधान सभा में कही थी कि कांग्रेस पार्टी के झंडे में  चरखे की जगह बौद्ध मत के कालचक्र को झंडे के केंद्र में रखा जाएगा.

बाद में नेहरू ने इसमें संशोधन करते हुए संविधान सभा को कहा कि राष्ट्रध्वज का चक्र दरअसल सारनाथ की अशोक की लाट पर अंकित 24 तीलियोंवाला चक्र है. उन्होंने स्पष्ट किया कि यह गांधी के चरखे के सबसे महत्वपूर्ण चक्र का द्योतक है. इस तरह यह श्रम और अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है.

भाजपा के वर्तमान मुख्य उत्तेजक के सेवानिवृत्त गुरु ने इसी चक्र पर अपना असंतोष जाहिर किया था और कहा था कि यह धर्मनिरपेक्ष नहीं है. जो भी हो गांधी समेत आंबेडकर, नेहरू और संपूर्ण संविधान सभा राष्ट्रध्वज के चक्र को सुदर्शन चक्र से कहीं नहीं जोड़ता.

गांधी को थोड़ा बहुत भी पढ़े लोग जानते हैं कि वे गीता को कवि द्वारा रचित व्यक्ति के मन में चलनेवाले शुभ और अशुभ के युद्ध का एक रूपक मानते थे. वे चरखे को भी सादगी, मानवता की सेवा, दूसरे को चोट न पहुंचे, इस प्रकार के जीवन और अहिंसा का प्रतीक मानते थे.

लेकिन अभी हम इस चर्चा को छोड़ दें और मुख्य उत्तेजक की इस चतुराई पर भी मुग्ध न हों कि गोडसे को देशभक्त बतानेवाले प्रज्ञा ठाकुर के बयान की निंदा किए बिना कैसे वे बेदाग़ बने रहे.

पूरी दुनिया में इस बयान पर थू-थू होने के बाद होश आया तो कहा गया कि इस बयान से बहुत बुरा लगा है उन्हें और इसके लिए वे प्रज्ञा को मन से माफ़ नहीं कर पाएंगे. प्रज्ञा से नाराजगी इस वजह से कि यह तो कोई वक्त न था मन की बात कहने का!

यह भाजपा और संघ का पुराना आजमाया तरीका है, हिंसा, वचन या कर्म की हो जाने दो, उसका असर भी समाज में बैठ जाने दो , फिर उससे विरक्ति जतलाओ. इससे हिंसा अपना काम कर चुकी होगी और आप भी बच जाएंगे.

यही संघ ने गोडसे द्वारा गांधी की हत्या के बाद उससे विराग दिखलाकर किया. हालांकि उसके पहले खुद उसके सदस्यों ने  गांधी हत्या के बाद मिठाई बांटी और खाई. यह भी उनकी निजी प्रतिक्रिया थी!

प्रज्ञा ठाकुर ने इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त तक अपना बयान वापस नहीं लिया,सिर्फ इससे कोई आहत हुआ हो तो उससे क्षमा मांग ली. बयान जहां का तहां बना हुआ है.

आशय इसका यह है कि गांधी को भी देशभक्त कह दिया, इतने भर से आपको तसल्ली क्यों नहीं हो रही? असल में प्रज्ञा का जो बयान है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मत माननेवाले लोगों का मंतव्य ही है. आइए, आगे उद्धृत तुकबंदी को पूरा पढ़ें;

माना गांधी ने कष्ट सहे थे,
अपनी पूरी निष्ठा से
और भारत प्रख्यात हुआ है,
उनकी अमर प्रतिष्ठा से॥

किन्तु अहिंसा सत्य कभी,
अपनों पर ही ठन जाता है।
घी और शहद अमृत हैं पर,
मिलकर के विष बन जाता है॥

अपने सारे निर्णय हम पर,
थोप रहे थे गांधी जी।
तुष्टिकरण के खूनी खंजर,
घोंप रहे थे गांधी जी॥

महाक्रांति का हर नायक तो,
उनके लिए खिलौना था।
उनके हठ के आगे,
जम्बूदीप भी बौना था॥

इसीलिये भारत अखण्ड,
अखण्ड भारत का दौर गया।
भारत से पंजाब, सिंध,
रावलपिंडी, लाहौर गया॥

तब जाकर के सफल हुए,
जालिम जिन्ना के मंसूबे।
गांधी जी अपनी जिद में,
पूरे भारत को ले डूबे॥

भारत के इतिहासकार,
थे चाटुकार दरबारों में।
अपना सब कुछ बेच चुके थे,
नेहरू के परिवारों में॥

भारत का सच लिख पाना,
था उनके बस की बात नहीं।
वैसे भी सूरज को लिख पाना,
जुगनू की औकात नहीं॥

आजादी का श्रेय नहीं है,
गांधी के आंदोलन को।
इन यज्ञों का हव्य बनाया,
शेखर ने पिस्टल गन को॥

जो जिन्ना जैसे राक्षस से,
मिलने जुलने जाते थे।
जिनके कपड़े लन्दन, पेरिस,
दुबई में धुलने जाते थे॥

कायरता का नशा दिया है,
गांधी के पैमाने ने।
भारत को बर्बाद किया,
नेहरू के राजघराने ने॥

हिन्दू अरमानों की जलती,
एक चिता थे गांधी जी।
कौरव का साथ निभाने वाले,
भीष्म पिता थे गांधी जी॥

अपनी शर्तों पर इरविन तक,
को भी झुकवा सकते थे।
भगत सिंह की फांसी को,
दो पल में रुकवा सकते थे॥

मंदिर में पढ़कर कुरान,
वो विश्व विजेता बने रहे।
ऐसा करके मुस्लिम जन,
मानस के नेता बने रहे॥

एक नवल गौरव गढ़ने की,
हिम्मत तो करते बापू।
मस्जिद में गीता पढ़ने की,
हिम्मत तो करते बापू॥

रेलों में, हिंदू काट-काट कर,
भेज रहे थे पाकिस्तानी।
टोपी के लिए दुखी थे वे,
पर चोटी की एक नहीं मानी॥

मानों फूलों के प्रति ममता,
खतम हो गई माली में।
गांधी जी दंगों में बैठे थे,
छिपकर नोवा खाली में॥

तीन दिवस में *श्री राम* का,
धीरज संयम टूट गया।
सौवीं गाली सुन कान्हा का,
चक्र हाथ से छूट गया॥

गांधी जी की पाक परस्ती पर,
जब भारत लाचार हुआ।
तब जाकर नाथू,
बापू वध को मज़बूर हुआ॥

गये सभा में गांधी जी,
करने अंतिम प्रणाम।
ऐसी गोली मारी गांधी को,
याद आ गए *श्री राम*॥

मूक अहिंसा के कारण ही,
भारत का आंचल फट जाता।
गांधी जीवित होते तो,
फिर देश, दुबारा बंट जाता॥

थक गए हैं हम प्रखर सत्य की,
अर्थी को ढोते ढोते।
कितना अच्छा होता जो,
*नेता जी राष्ट्रपिता* होते॥

नाथू को फांसी लटकाकर,
गांधी जी को न्याय मिला।
और मेरी भारत मां को,
बंटवारे का अध्याय मिला॥

लेकिन

जब भी कोई भीष्म,
कौरव का साथ निभाएगा।
तब तब कोई अर्जुन रण में,
उन पर तीर चलाएगा॥

अगर गोडसे की गोली,
उतरी ना होती सीने में।
तो हर हिंदू पढ़ता नमाज,
फिर मक्का और मदीने में॥

भारत की बिखरी भूमि,
अब तक समाहित नहीं हुई।
नाथू की रखी अस्थि,
अब तक प्रवाहित नहीं हुई॥

इससे पहले अस्थिकलश को,
सिंधु सागर की लहरें सींचे।
पूरा पाक समाहित कर लो,
इस भगवा झंडे के नीचें॥

इस तुकबंदी से आपको यह पता चलता है कि क्यों प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को देशभक्त बताया और क्यों भारत के प्रधानमंत्री ने प्रज्ञा के बयान की फौरन आलोचना नहीं की!

यह ठीक है कि गांधी ने बड़े काम किए लेकिन जब वे ‘देश’ को ‘डुबाने’ पर तुल गए तो नाथूराम रूपी कान्हा का चक्र हाथ से छूट गया. गांधी की पाकपरस्ती ने नाथूराम को गांधी-वध के लिए बाध्य किया!

यह ख्याल संघ द्वारा देश के हिंदुओं में प्रचारित किया गया है जिसका फिर कोई अदालती सबूत नहीं कि गांधी को अगर न मारा जाता तो हिंदू मुसलमानों का गुलाम बन जाता.

ऊपर जो तुकबंदी है, वह गांधी की हत्या का संघी औचित्य निरूपण है. इसमें खासकर नेहरू को निशाना बनाया गया है. गांधी से क्षोभ इसलिए भी है कि उनके प्रिय नेहरू थे. अंतिम आह्वान पकिस्तान को भगवा झंडे के नीचे समाहित करने का है.

गोडसे की अस्थि अब तक रखी है. वह उस भारत को एक करने के बाद ही, जिसे गांधी ने विखंडित कर दिया था, सिंधु में प्रवाहित की जा सकती है.

संघ के दायरे में गांधी की हत्या को वध कहा जाता है. वध हमेशा दुरात्मा का होता है, हुतात्मा के हाथों वध होने से दुरात्मा की मृत्यु नहीं होती, उसे मोक्ष मिलता है. यह रावण के साथ हुआ था, यही शिशुपाल के साथ हुआ. इसलिए वे सब कृतज्ञ थे कि उनका जीवन ईश्वर के अवतार के हाथों समाप्त हुआ. गांधी भक्तों को भी गोडसे का कृतज्ञ होना चाहिए!

गोडसे ने अपने जीवन में सिर्फ महत्वपूर्ण एक काम किया जिसके कारण उसका नाम लेने को हम बाध्य होते हैं, और वह है गांधी की हत्या. तो गोडसे की देशभक्ति का सबूत भी यही कृत्य तो है! बाकी तो संगठन का काम है जो संकीर्ण है!

प्रज्ञा ठाकुर ने अपना बयान वापस नहीं लिया है, प्रधानमंत्री और भाजपा को जनमत ने भी इस बयान से दूरी बनाने का नाटक करने पर मजबूर किया है. ये सब मिलकर आपसे कह रहे हैं कि गोडसे के खिलाफ अब दुष्प्रचार बंद कीजिए. हमने गोडसेजी के साथ गांधी को भी देशभक्त मान लिया है, यह कम नहीं है!

वैसे मेरे एक मित्र का प्रस्ताव है कि संसद भवन के सामने एक प्रतिमा लगाई जानी चाहिए जिसमें गांधी के साथ गोडसे भी हो, गांधी पर गोली चलाते हुए और गांधी उन तीन गोलियों को अपने सीने पर लेते हुए!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)