चंदौली लोकसभा सीट: वाराणसी की इस पड़ोसन की तो दास्तान ही अलग

पिछले 21 वर्षों में चंदौली सीट के मतदाताओं ने किसी भी पार्टी या प्रत्याशी को लगातार दो बार नहीं चुना है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा प्रदेशाध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडे दोबारा जीत दर्ज कर अपनी प्रतिष्ठा बचा पाते हैं या नहीं.

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पिछले 21 वर्षों में चंदौली सीट के मतदाताओं ने किसी भी पार्टी या प्रत्याशी को लगातार दो बार नहीं चुना है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा प्रदेशाध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडे दोबारा जीत दर्ज कर अपनी प्रतिष्ठा बचा पाते हैं या नहीं.

Narendra Modi Mahendranath Pandey Chanduali
चंदौली में हुई एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भाजपा प्रत्याशी और प्रदेशाध्यक्ष महेंद्रनाथ पांडे (फोटो साभार: narendramodi.in)

पूरब में बिहार, पूर्वोत्तर में गाजीपुर, दक्षिण में सोनभद्र, दक्षिण-पूर्व में बिहार और दक्षिण-पश्चिम में मिर्जापुर से मिलने वाली उत्तर प्रदेश की चंदौली लोकसभा सीट अपनी ‘सौभाग्यशाली’ पड़ोसन वाराणसी से सिर्फ 30 किलोमीटर दूर है.

लेकिन वीवीआईपी वाराणसी यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र से सटी होने के बावजूद यह जिस तरह चमक-दमक या सत्ता की जगर-मगर से परे, यहां तक कि मीडिया की चर्चाओं तक से महरूम और विकास के लिहाज से लावारिस-सी छोड़ दी गई नजर आती है, उससे कई बार यह तीस किलोमीटर की दूरी तीन सौ किलोमीटर से भी ज्यादा अखरने लग जाती है.

सच पूछिए तो इस लोकसभा सीट की दास्तान ही कुछ और है. 20 मई, 1997 को पड़ोसी जिले को बांटकर गठित जिस चंदौली जिले में यह स्थित है, उपजाऊ भूमि के कारण ‘धान का कटोरा’ कहे जाने के बावजूद वह देश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है.

विडंबना यह कि फिर भी इस सीट पर आर्थिक पिछड़ापन या विकास चुनाव का केंद्रीय मुद्दा नहीं है. भाषणों में नेता और प्रत्याशी कुछ भी क्यों न कहें, जमीन पर कहीं जातीय समीकरण बैठाए जाते दिखते हैं तो कहीं हिंदुत्व का कार्ड चलाने की कोशिशें.

गत गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां अपनी पार्टी के लिए वोट मांगने आये तो भी अपने भाषण में रेलवे लाइनों के तेज विद्युतीकरण और खाद की रैक की सुविधा का ही जिक्र कर सके. अलबत्ता, उन्होंने बिना सांप्रदायिक भेदभाव के सारे क्षेत्रों में समान विद्युत आपूर्ति व उपलब्धता सुनिश्चित करने का दावा किया.

चंदौली के खास तरह के शुगर फ्री चावल की तारीफ की, तो यह नहीं बता पाये कि उसके उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने या उनकी पार्टी की प्रदेश सरकार ने क्षेत्र में किसानों के बीच क्या काम किया है?

अपने क्षेत्र वाराणसी में खुले इंटरनेशनल राइस रिसर्च सेंटर का जिक्र जरूर किया, लेकिन बाद में उस पर प्रतिक्रिया में लोग कहने लगे कि उनके वाराणसी की तो बात ही अलग है. हां, फिर सत्ता में आने पर वे पानी की किल्लत दूर करने के लिए नया जलशक्ति मंत्रालय गठित करने का नया वादा कर गए हैं.

प्रसंगवश, 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के महेंद्रनाथ पांडे ने 4,14,135 वोट पाकर यह सीट सपा से छीन ली थी, तब उन्हें विपक्षी मतों में बिखराव का भरपूर लाभ मिला था.

बसपा के अनिल कुमार मौर्य 2,57,379 वोटों के साथ दूसरे जबकि सपा के निवर्तमान सांसद रामकिशन 204145 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर खिसक गए थे. भाजपा को 25, बसपा को 16 और सपा को 12 प्रतिशत मत मिले थे.

इस बार सपा बसपा-गठबंधन के 28 प्रतिशत एकजुट वोट भाजपा के सामने कड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं, जबकि हाल तक भाजपा की सहयोगी रही ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने उसे हराने के ही उद्देश्य से बैजनाथ राजभर को अपने टिकट पर उनके सामने कर दिया है.

प्रसंगवश, क्षेत्र में राजभर व पांडे की पुरानी प्रतिद्वंद्विता रही है और बैजनाथ राजभर को बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता क्योंकि 2017 के चुनाव में लोकसभा क्षेत्र की अजगरा सुरक्षित विधानसभा सीट पर उनकी पार्टी ने ही जीत हासिल की थी.

लोकसभा क्षेत्र की अन्य विधानसभा सीटों में सकलडीहा, सैयदराजा और शिवपुर के अतिरिक्त मुगलसराय भी शामिल है. स्वाभाविक ही यहां मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्यायनगर करने का मुद्दा भी उठाया जा रहा है.

उजली संभावनाओं के बावजूद सपा-बसपा गठबंधन के प्रत्याशी डॉ. संजय सिंह चौहान की समस्या यह है कि ‘बाहरी’ होने के कारण वे अपनी समाजवादी पार्टी में भी पूरी तरह स्वीकार्य नहीं सिद्ध हुए हैं. जैसे ही पार्टी हाईकमान ने उनके नाम का ऐलान किया, सपा कार्यकर्ताओं ने जुलूस निकालकर उनका पुतला फूंका और हाईकमान पर स्थानीय नेताओं की उपेक्षा का आरोप मढ़ दिया था.

2009 में निर्वाचित पार्टी के सांसद और इस बार के टिकट के दावेदार रामकिशुन ने यह कहकर कि टिकट न मिलने के बावजूद वे पार्टी के प्रति समर्पित रहेंगे, उक्त विरोध को शांत तो कर दिया मगर गुटबाजी अभी भी बनी हुई है और पार्टी का एक गुट चुनाव से निर्लिप्त-सा हो गया है. यह स्थिति भाजपा के लिए अनापेक्षित मदद-सी है.

भाजपा ने इस सीट पर पहली बार 1991 की रामलहर में जीत हासिल की. आगे, उसके नेता आनंदरत्न मौर्य 1996 और 1998 के लोकसभा चुनावों में भी यानी लगातार तीन बार जीते. लेकिन उनके बाद भाजपा यहां सोलह साल बाद 2014 की मोदी लहर में ही जीत का मुंह देख पाई.

पिछले 21 वर्षों में यानी 1998 से लेकर अब तक इस सीट के मतदाताओं ने किसी भी पार्टी या प्रत्याशी को लगातार दो बार नहीं चुना है. ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा के महेंद्रनाथ पांडे, जो फिलहाल पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं, दोबारा जीत दर्ज कर अपनी प्रतिष्ठा बचा पाते हैं या नहीं.

कांग्रेस की बात करें तो पिछले कई चुनावों में मुख्य मुकाबले में आ पाने में विफल रहने के कारण उसने इस बार यह सीट पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की अध्यक्षता वाली जन अधिकार पार्टी के लिए छोड़ दी है, जिसकी प्रत्याशी शिवकन्या कुशवाहा खुद को दोनों पार्टियों के गठबंधन की प्रत्याशी बताकर चुनाव प्रचार कर रही हैं.

उनको शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) और अपना दल के एक गुट का समर्थन भी मिला हुआ है. शिवकन्या कुशवाहा बाबू सिंह कुशवाहा की पत्नी हैं और 2014 के लोकसभा चुनाव में गाजीपुर सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ी थीं. लेकिन तब उन्हें भाजपा के मनोज सिन्हा के साथ हुए कड़े मुकाबले में 32,452 मतों से हार का सामना करना पड़ा था.

इस बार चंदौली में चार-चार पार्टियों के गठजोड़ की प्रत्याशी होने के बावजूद उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जा रहा और कहा जा रहा है कि उनके पांवों के नीचे जमीन ही नहीं है. कारण यह कि जिस कांग्रेस पर उनका तकिया है, पिछले कई चुनावों में वह चंदौली से अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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