टॉपर्स का कारखाना और कामयाबी के असल मायने

परीक्षाओं के टॉपर्स की सफलता का समाज की बेहतरी में क्या योगदान रहता है?

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

परीक्षाओं के टॉपर्स की सफलता का समाज की बेहतरी में क्या योगदान रहता है?

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प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई

मेरा शीश नवा दो अपनी चरण-धूलि में,

डुबा दो मेरा सारा अहंकार अश्रु-जल में.

खुद को न देखूं मैं अपने किए कर्म में

हो इच्छा तुम्हारी साकार मेरे जीवन-कर्म में.

~  रवींद्रनाथ टैगोर के एक गीत से  

बीते दिनों सीबीएसई के बारहवीं के नतीजे आए. इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं है कि ‘सफलता’ को पूजने वाले इस समाज में हर जगह ‘टॉपर्स’ का गुणगान किया जाता है. जब टेलीविजन चैनल उनका इंटरव्यू करते हैं और अखबार उनकी- ‘कड़ी मेहनत’, ‘एकाग्र अध्ययन’, अभिभावकों की प्रेरक भूमिका- की कहानियां सुनाते हैं, तब हम सीखने के अनुभव और प्रदर्शन को आंकड़ों में बदलकर और मिथकीय बना देते हैं, जैसे- 499/500!

हालांकि ‘असफलताओं’ की भी अनगिनत कहानियां हैं- मनोवैज्ञानिक तकलीफ, गणित और अंग्रेजी में ‘खराब’ नबंरों के कारण लगने वाला सदमा और इसके चलते होने वाली आत्महत्याएं- मगर हम में से कई इस गढ़ी गई त्रासदी पर ध्यान नहीं देते है: यह त्रासदी है सामाजिक-शैक्षणिक इंजीनियरिंग की निर्मम प्रणाली, जो इंसानों को अलग छांटकर अनगिनत मानवीय संभावनाओं को खत्म कर देती है.

हम उनकी आलोचना करते हैं या फिर तरस खाते हुए उन्हें ‘दिलासा’ देते हैं. आखिर ‘फेलियर’ की परवाह करता कौन है? कहा गया है कि ‘सफलता’ के कई दोस्त होते हैं, इसलिए आने वाले दिनों में हम मिथक में बदल दिए गए इन ‘टॉपर्स’ के बारे में और जानेंगे- आईआईटी में दाखिला लेने की उनकी बेताबी या भारतीय विदेश सेवा में जाने की उनकी महत्वाकांक्षा.

इसका नतीजा यह होगा कि मध्यवर्गीय अभिभावक खुद को ज्यादा से ज्यादा असुरक्षित महसूस करेंगे; अपने बच्चों के प्रदर्शन की तुलना ‘टॉपर्स’ से करेंगे. ऐसे में अगर कोई बच्चा अंग्रेजी में 97/100 भी लाता है, तो उसके अपने महत्वाकांक्षी और असुरक्षित अभिभावकों की डांट खाने की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि उन्हें पहले ही बताया जा चुका है कि टॉपर्स कड़ी मेहनत करते हैं, समय बर्बाद नहीं करते हैं और अंग्रेजी या फिजिक्स में 100/100 लाते हैं.

जी हां, कविता की मृत्यु हो जाएगी; विज्ञान के चमत्कार गुम हो जाएंगे; और अनुशासन में बंधे समय में ‘खेलने’ भी पढ़ाई-लिखाई की दुनिया में लौटने के लिए तरोताजा होने के विकल्प के बतौर देखा जाएगा और नंबरों की अंधी दौड़ के सामने किसी भी अन्य चीज का कोई मोल नहीं रहेगा.

भले ही आपको घंटों-घंटों विलियम ब्लेक या रबींद्रनाथ टैगोर की कविताएं पढ़ना अच्छा लगता हो, लेकिन अगर आपके अंग्रेजी में 100/100 नहीं आए, तो आप कुछ नहीं माने जाएंगे- सिवाय एक आदर्शवादी मूर्ख के, जो इम्तिहान के चक्रव्यूह को नहीं भेद पाया.

‘सफलता’ के फलसफे के जश्न के बीच एक सवाल मुझे परेशान करता रहता है: ये ‘टॉपर्स’ कहां जाते हैं? हां, मुझे पता है कि वे आईआईटी और आईआईएम में मिल सकते हैं, वे एलएसआर या स्टीफेंस जैसे अग्रणी कॉलेजों में पाए जा सकते हैं और वे अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान और अंग्रेजी साहित्य जैसे विषय वर्ग की ‘मार्केट’ वैल्यू में और इजाफा करेंगे.

मुझे यह भी पता है कि ये ‘टॉपर्स’ आकर्षक पेशों में शामिल होंगे, अच्छा कमाएंगे और हां, इनमें से कुछ भारत से पलायन कर जाएंगे- वे अमेरिका, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया में बस जाना पसंद करेंगे- और अप्रवासी भारतीय नाम की प्रजाति की शोभा बढ़ाएंगे. लेकिन फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूं.

वजह यह है कि दोस्तोयेव्स्की के ‘सिरफिरे व्यक्ति’ [Ridiculous Man] की तरह मैं अजीब सवाल पूछता हूं. और ये सवाल उन्हीं संदर्भों से पैदा होते हैं, जिनमें हम रह रहे हैं.

मैं तीन बातें कहना चाहता हूं. पहला, हमारा समाज एक गहरे तक धंसे पदानुक्रम [हायरार्की] (परंपरागत जाति और लैंगिक हायरार्की के साथ ही साथ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था से उपजे असमानता के नए रूप) वाला समाज है और इससे संबंधित हिंसा, चाहे वह शारीरिक हो या मनोवैज्ञानिक, हमारे समाज की पहचान है.

दूसरा, हमारा समाज व्यापक तौर पर फैले न्यायसंगत होने की मुश्किल से पीड़ित हैः ऐसा लगता है कि सभी महत्वपूर्ण संस्थानों, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, ने अपनी विश्वसनीयता गंवा दी है और राजनीतिक बहसों का स्तर गिरकर रसातल में पहुंच गया है.

और अंत में, सांस्कृतिक परिदृश्य खतरनाक रूप से भौंडा और सतही हो गया है. टीवी धारावाहिकों से लेकर सोशल मीडिया की आसक्ति तक, स्वार्थी होने के लोकप्रियकरण या अपना ‘अस्तित्व पा लेने’ से लेकर तेजी से बढ़ते ‘आध्यात्मिक’ बाजार तक- हम खुद को एक ऐसे समाज में पा रहे हैं, जिसमें ऐसा लगता है कि आदर्शवाद या मौलिकता के सपने का हल्का-सा भी निशान बाकी नहीं है.

ऐसे समाज में एक और पदलोलुप होना आसान है, उस महात्वाकांक्षा के पीछे भागना आसान है, जिसका प्रचार मोटिवेशनल स्पीकर्स या ‘सफलता के मंत्र’ बांटने वाले करते हैं- एक आकर्षक सीवी, मोटी तनख्वाह, दिखावे वाला रहन-सहन और ‘ताकत और प्रतिष्ठा’.

हाशिये पर पड़े लोगों के साथ सामाजिक संपर्क, राजनीतिक समझदारी और न्याय तथा समता के लिए किए जाने वाले आंदोलनों, जैसे सभी भटकावों से दूर रहना आसान है. दूसरे शब्दों में कहें तो खुद से आसक्त रहना आसान है. आत्ममुग्धता अमर रहे!

अगर ‘टॉपर्स’ भी यही लकीर पीटते हैं और इसी व्यवस्था के फरमाबरदार बन जाते हैं, तो इसका क्या अर्थ रह जाता है? क्या यह एक दुखद कहानी है- शिक्षा की असफलता की कहानी? क्या यह सफलता की त्रासदी है? क्या यह सामाजिक डार्विनवाद का नया जन्म है?

कभी-कभी मैं यह सवाल पूछता हूं कि क्या इनमें से कोई टॉपर मेधा पाटकर जैसे किसी व्यक्ति से मिलना पसंद करेगा और उनके जीवन की सराहना कर पाएगा? मैं  पूछता हूं कि क्या इनमें से कुछ ऋत्विक घटक की फिल्में देखना पसंद करेंगे और ये उनके दिल में घर कर लेंगी?

और क्या कभी उनके लिए अपनी ‘सफलताओं’- 499/500 पर हंस पाना और यह यह समझ पाना मुमकिन हो पाएगा कि कि जीवन में सभी मूल्यवान चीजें किसी पैमाने से परे होती हैं और जीवन में ‘खाली’ (रिक्त) हो जाने से ज्यादा महत्व किसी चीज का नहीं है क्योंकि शून्य से ही असीम का रास्ता खुलता है.

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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