इस लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग में मतदाताओं का भरोसा कम हुआ है. ऐसा होना किसी लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है.
भारत में चुनाव गर्व का विषय हैं. एक छोटे अपवाद को छोड़ दें, तो भारत में चुनाव नियमित और सफलतापूर्वक कराए गए हैं. कई चीजों को लेकर शिकायतें आती रही हें, लेकिन कुल मिलाकर पूरा तंत्र बगैर किसी रुकावट के चलता रहा है, जो भारत जैसे बड़े, विविधता से भरे और जटिल देश के लिए कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है.
मतदाता चुनावी प्रक्रिया में यकीन करते हें और बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लेते हैं. इस कामयाबी में एक बड़ी भूमिका चुनाव आयोग की है, जो कार्यपालिका के नियंत्रण और हस्तक्षेप से मुक्त एक संवैधानिक निकाय है. लेकिन इस बार संपन्न चुनावों में चुनाव आयोग उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रहा है.
इसने पूरी चुनावी कवायद को ज़रूर बगैर किसी बड़ी मुश्किल का सामना किए पूरा किया है, लेकिन इसके कई फैसले सवाल उठाने लायक, यहां तक कि परेशान करने वाले रहे.
इससे यह धारणा मजबूत हुई है कि यह पूर्वाग्रह के साथ काम कर रहा है और भले ही यह पूरी तरह से सच न हो, लेकिन यह एक चिंताजनक संकेत है कि मतदाता और नागरिकों का एक बड़ा तबका यह यकीन करने लगा है कि यह संगठन सत्ताधारी दल को मदद पहुंचा रहा है.
भीषण गर्मी के दौरान सात चरणों में फैले चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करने से लेकर भाजपा नेताओं- प्रधानमंत्री सहित- द्वारा आचार संहिता भंग करने के कई मामलों में आंखें मूंदने तक चुनाव आयोग के कई कदम हैरान और परेशान करने वाले रहे हैं.
नरेंद्र मोदी द्वारा कई भड़काऊ बयान दिए जाने और नियमों के एक हद तक उल्लंघन के बावजूद उन्हें दी गई क्लीनचिट की संख्या कई लोगों को हजम नहीं हुई है- सिर्फ विश्लेषकों को ही नहीं, सोशल मीडिया पर भी कई लोगों को.
जब मोदी ने अपने भाषणों में सुरक्षा बलों का इस्तेमाल किया और पहली बार के मतदाताओं से वोट देते वक्त उनकी ‘कुर्बानी’ को याद रखने की अपील की, तब यह सिर्फ बालाकोट हवाई हमले का सीधा उपयोग नहीं था, जो कि आला दर्जे की अनैतिक चीज थी, बल्कि चुनाव आयोग की उस अपील का उल्लंघन भी था, जिसमें उसने राजनीतिक दलों से चुनावी प्रचार में सशस्त्र बलों का इस्तेमाल न करने की सलाह दी थी.
लेकिन भाजपा के लिए, जो राष्ट्रवाद को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ती है- जिसके लिए राष्ट्रवाद मातृभूमि की बात करने और देशभक्ति की भावना को जगाने के लिए सेना के इस्तेमाल तक ही सिमटा हुआ है- एयर स्ट्राइक भगवान के भेजे उपहार के समान था.
भाजपा नेताओं द्वारा देशभर में इस हमले का इस्तेमाल खुलकर ही नहीं बल्कि सनक के स्तर पर किया गया. बीएस येदियुरप्पा ने तो यह तक कह डाला कि एयर स्ट्राइक से भाजपा को मिलने वाले वोटों में इजाफा होगा. ‘हम पाकिस्तान को सबक सिखाएंगे’ के मंत्र को देश भर में फैलाया गया और मोदी ने इसे बार-बार अपने भाषणों में दोहराया.
उन्होंने तो परमाणु बम के संबंध में भी गैर-जिम्मेदाराना बयान देने से भी गुरेज नहीं किया. चुनाव आयोग को चौकन्ना रहना चाहिए था और उसे मोदी को शुरू में ही चेतावनी देनी चाहिए थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया.
यह मुमकिन है कि मोदी ने इसकी कोई परवाह नहीं की होती, लेकिन कम से कम चुनाव आयोग के पास यह कहने के लिए तो होता कि उसने अपना काम किया और आचार संहिता के अतिक्रमणों के लिए उसने मोदी को आगाह किया था. लेकिन सख्ती का रत्ती भर भी प्रदर्शन नहीं किए जाने से मोदी को रोकने वाला कोई नहीं था.
ऐसा नहीं है कि चुनाव आयोग के भीतर विरोध के स्वर नहीं उठे. अशोक लवासा ने ऐसा किया और बार-बार अपनी असहमति दर्ज कराई, लेकिन उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया क्योंकि दो अन्य चुनाव आयुक्तों का फैसला तथाकथित क्लीन चिट के पक्ष में था.
लवासा की चिट्ठी जिसमें उन्होंने अपनी असहमति को दर्ज तक न करने को लेकर अपनी हताशा को व्यक्त किया है, अब लोगों के बीच में है, लेकिन जो नुकसान होना था वह हो चुका है. चुनाव हो चुके हैं और परिणाम चाहे जो भी हो और चुनाव आयोग चाहे जो कहे, इन प्रकरणों ने चुनाव आयोग की छवि और विश्वसनीयता को काफी ठेस पहुंची है.
चुनाव आयोग द्वारा अमित शाह की बंगाल यात्रा के बाद कोलकाता में हिंसा और तोड़फोड़ की घटना के मद्देनजर बंगाल में अचानक चुनाव प्रचार रोकने का फैसला भी इतना ही हैरान करने वाला था. यह बात सबको पता है कि भाजपा के लिए मत और सीटों की संख्या बढ़ाने की योजना का काफी दारोमदार बंगाल पर है, खासकर यह देखते हुए कि बाकी जगहों पर यह जमीन गंवा रही है.
इसके अलावा पार्टी 2021 में होनेवाले विधानसभा चुनावों पर भी नजर गड़ाए हुए है. अब तक ममता बनर्जी उन पर हावी रही हैं, लेकिन भाजपा की दीर्घकालीन योजना ममता बनर्जी को कुर्सी से उखाड़ फेंकने की है और फिलहाल वह उन्हें उलझाए रखना चाहती है और उनके जनाधार में सेंध लगाना चाहती है.
वाम और कांग्रेस के समर्थन खोने के साथ भाजपा पहले ही उनके लिए सबसे बड़ा खतरा बन गयी है. चुनाव आयोग ने त्वरित कार्रवाई की, लेकिन उसके द्वारा लगाया गया प्रतिबंध अगले दिन 10 बजे रात से प्रभावी हुआ, जिसने मोदी को अपनी रैलियां कर लेने का मौका दिया.
अगर चुनाव आयोग वाकई तनाव कम करना चाहता था, तो वह हिंसा के अगले दिन सुबह से ही प्रतिबंध लागू कर सकता था. ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि यह फैसला भाजपा के प्रति पक्षपात से भरा था.
तमाम तरह की अफवाहें चल रही हैं, जो भाजपा के प्रति झुकाव का इशारा करती हैं. इन अफवाहों को हवा देने का काम करने वाले सोशल मीडिया ने मुख्य चुनाव आयुक्त को लेकर कुछ अपमानजक कयासों के लिए मंच मुहैया कराने का काम किया है.
इसमें से ज्यादातर झूठे, यहां तक कि निंदनीय हो सकते हैं, लेकिन यह कोई राज़ नहीं है कि मोदी को एक बार भी एक शब्द तक नहीं कहा गया. ऐसा लगता है कि वे कुछ भी कहे जाने से परे हो गए हैं जबकि उनके नियमों को तोड़ने के मामलों में उनके खिलाफ सख्त कदम उठाने का पर्याप्त आधार मौजूद था.
संस्थान के भीतरी मतभेद को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त के कमजोर बयानों से उनकी और ज्यादा गंभीर रूप से आयोग की विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुंची है. इसमें अगर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को लेकर उठ रहे संदेह को जोड़ दिया जाए, जिसे दूर करने के लिए चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, तो हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाते हैं, जहां पूरी चुनावी प्रक्रिया ही गलतियों से भरी नजर आती है.
संस्थाओं का ध्वंस पिछले पांच सालों में एक बड़ी कहानी रहा है. चाहे शैक्षणिक संस्थाएं हों, सांस्कृतिक निकाय या रणनीतिक ओर प्रभावशाली जगहों पर विचारधारा से जुड़े कार्यकर्ताओं को तैनात कर दिया गया है, जिससे इन संस्थाओं की आजादी पर बुरा असर पड़ा है.
न्यायपालिका आज भीषण आंतरिक असहमति और प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व गिरावट का सामना कर रही है. संसद अब वाद-विवाद-संवाद का मंदिर नहीं रह गई है, जैसा कि यह था या जैसा इसे होना चाहिए.
और रही बात मीडिया की तो इसने अपनी इच्छा से प्रोपगेंडा और नियंत्रण के आगे घुटने टेक दिया है. वह जनता के हितों का रखवाला होने की अपनी भूमिका निभाने की जगह सरकार का मुखपत्र बनकर ही खुश है.
रणनीतिक संगठनों में अपने लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर भरा गया है, जहां वे जरूरत पड़ने पर सक्रिय हो सकते हैं. ज्यादातर समय जनता की नजरों से दूर रहनेवाला चुनाव आयोग चुनाव के वक्त केंद्रीय भूमिका निभाता है.
अब देश के नागरिक यह सवाल कर रहे हैं कि क्या इसने सबको बराबरी का मौका देने के काम को पेशेवर तरीके से अंजाम दिया है या यह भी सत्ताधारी दल की एक और कठपुतली बन कर रह गया है? ऐसी अटकलबाजी अच्छी बात नहीं है.
लोगों का संस्थाओं में विश्वास का बना रहना बहुत जरूरी है- अगर यह विश्वास डगमगाएगा, तो इसे बहाल करने में काफी लंबा वक्त लगेगा. अपनी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करना और लोगों में यह विश्वास जगाना कि चुनाव आयोग- और दूसरे संस्थान- सरकारी नियंत्रण से आजाद और बेदाग हैं, आसान काम नहीं होगा.
प्रतिष्ठा को बनने में वर्षों, दशकों का वक्त लगता है, लेकिन इसे खोने में समय नहीं लगता. इसमें काफी लंबा वक्त लगेगा, लेकिन करना ही होगा. ऐसा करने में नाकामी भारतीय लोकतंत्र और भारत को भी नुकसान पहुंचाएगी.
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