क्या नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार जल्द ही उन्हें हासिल जनादेश की ग़लत व्याख्या करने और उसको अपनी सारी कारस्तानियों पर जनता की मुहर मान लेने की ग़लती करने लगेगी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव में उनकी प्रचंड जीत पर स्वाभाविक ही ढेरों बधाइयां मिल रही हैं. उनमें आम आदमी पार्टी की बधाई इस अर्थ में खास है कि उसमें उम्मीद जताई गई है कि प्रधानमंत्री अगले कार्यकाल में अपने जनादेश की पवित्रता का भरपूर ध्यान रखेंगे और अच्छे कार्य करेंगे.
नतीजों के फौरन बाद प्रधानमंत्री ने भारत के फिर से जीतने की बात कही, ‘सबका साथ, सबका विकास’ के अपने पुराने नारे में ‘सबका विश्वास’ जोड़ा और वादा किया कि नम्रता से लोकतंत्र की मर्यादा के साथ चलेंगे.
साथ ही आश्वस्त किया कि काम करते-करते कोई गलती हो जाए तो हो जाए, नीयत और इरादे से बद नहीं होंगे, तो देशवासियों की उम्मीदें हरी हुईं और वे कुछ खुशगवार या कि सुहाने सपनों में खोने लगे.
उन अंदेशों से परे जिनमें नतीजों के रुझानों के बाद से ही कहा जाने लगा था कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार जल्दी ही उन्हें हासिल जनादेश की गलत व्याख्या करने और उसको अपनी सारी कारस्तानियों पर जनता की मुहर मान लेने की गलती करने लगेगी.
लेकिन प्रधानमंत्री ने उनकी उम्मीदों को नाउम्मीद और अंदेशों को सही सिद्ध करने में उतना भी वक्त नहीं लगाया, जितना किसी कड़वी दवा के घूंट को हलक के नीचे उतारने में लगता है. अपने प्रताप का परायण करते हुए वे कह बैठे कि इस चुनाव में किसी विपक्षी दल को सेकुलरिज्म का चोला ओढ़ने तक की हिम्मत नहीं हुई.
क्या अर्थ है इसका? इसके अलावा और हो भी क्या सकता है कि वे न सिर्फ विपक्ष बल्कि पवित्र संवैधानिक मूल्यों तक का मजाक उड़ाने की पुराने कार्यकाल में लगातार समृद्ध की जाती रही परिपाटी को नये कार्यकाल में नये आयाम देने का इतना भी लोभ संवरण नहीं कर पा रहे कि उन पर ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः’ का आरोप न लगाया जा सके.
कोई दो राय नहीं कि इस चुनाव में विपक्ष उनके तथाकथित राष्ट्रवाद और हिंदू कार्ड के जाल में ऐसा फंसा कि उससे बाहर निकलने की कोई जुगत ही नहीं ढूंढ़ पाया. इससे सेकुलरिज्म जैसा संवैधानिक मूल्य पूरे चुनाव अभियान से अनुपस्थित अथवा मारा-मारा फिरने को अभिशप्त रहा.
विपक्ष ने कभी प्रधानमंत्री के गरम अथवा बुरे हिंदुत्व को नरम अथवा अच्छे हिंदुत्व से मात देने की गलती की (यह जानते हुए भी कि इन दोनों के मुकाबले में नरम के जीतने की हमारे इतिहास में एक भी नजीर नहीं है) और कभी बगलें झांककर उन्हें राष्ट्र, धर्म, परंपरा और संस्कृति सबके जी भर दुरुपयोग का खुला अवसर उपलब्ध करा दिया.
लेकिन अब विजयी नायकों के अपेक्षाकृत ज्यादा विनम्र हो जाने के पुराने दृष्टांतों को दरकिनार कर प्रधानमंत्री सेकुलरिज्म को बुरी तरह धूल-धूसरित कर डालने को लेकर छाती ठोंक रहे और अपनी जीत का कारक बता रहे हैं, तो कौन और कैसे यकीन कर सकता है कि कल वे यह भी ‘स्वीकार’ नहीं करने लगेंगे कि यह जीत उनके उस कौशल की भी है, जिसके तहत उन्होंने 2014 की अपनी सारी वादाखिलाफियों को बरबस ‘राष्ट्रवाद’ का खोल ओढ़ा दिया.
फिर तो उनकी इस जीत को निरंकुश बहुसंख्यक आक्रामकता की जीत में बदलते भी देर नहीं लगेगी, जिसके प्रज्ञा ठाकुर और गिरिराज सिंह जैसे कितने ही प्रतिनिधि इस बार उनके कवच और कुंडलों की भूमिका में हैं. प्रधानमंत्री अपने ही कथनानुसार उन्हें मन से क्षमा करें या नहीं, यह कैसे कहेंगे कि यह जीत उनकी भी नहीं है?
हां, बात निकलेगी तो इस जीत के और भी बहुत से हिस्सेदार निकल आयेंगे. तब यह अनेक संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण की तो जीत होगी ही, आम लोगों की दूषित चेतनाओं के दोहन और सेना को प्रचार की ढाल बनाने वाली रणनीति की भी होगी.
साथ ही देश की सुरक्षा के नाम पर नागरिकों में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक का भेदभाव बढ़ाकर परस्पर शक व भय का माहौल बनाने और माॅब लिंचिंग करने या ऐसा करने वालों को फूलमालाएं पहनाने वालों की भी होगी ही.
किसे नहीं मालूम कि जीत के सौ माई-बाप होते हैं जबकि हार का कोई नहीं और इस वक्त वे जीते हुए हैं और गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने विपक्ष के अनेक सूरमाओं के साथ सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की भी पीठ लगा दी है.
याद कीजिए कि ये वही अध्यक्ष महोदय हैं, जिन्होंने यह कहकर वाराणसी में प्रधानमंत्री के खिलाफ अपनी पार्टी का कोई सशक्त उम्मीदवार खड़ा करने से मना कर दिया था कि वे नहीं चाहते कि इस तरह बड़े नेताओं को हर-हाल में लोकसभा पहुंचने से रोकने की राह पर चला जाए. वे ही नहीं पहुंचे तो लोकसभा में बहस-मुबाहिसे का भला क्या मतलब रह जाएगा?
ऐसे ‘गर्वीले’ क्षण में प्रधानमंत्री इस सवाल का सामना क्यों करने लगे कि उन्हें यह जीत धर्म, शील व सदाचार के सिरों पर कितने प्रहारों से नसीब हुई है, कितनी अग्राह्यताओं व घृणास्पदताओं को मान्यता दिलाने और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को किस पाताल में गाड़ देने के बाद?
गौर कीजिए, अगले पांच सालों में प्रधानमंत्री की जीत के ये सभी हिस्सेदार अपना-अपनना हिस्सा पाने के लिए बारी-बारी से या एक साथ उनके दरबार में हाजिरी लगाने लगे तो क्या होगा?
पिछली पारी में प्रधानमंत्री द्वारा माॅब लिंचिंग करने वालों व गोरक्षकों की कारस्तानियों के खिलाफ अपनाया गया बेहिस तेवर गवाह है कि ऐसे मामलों में वे सामान्य प्रतिक्रिया व्यक्त करने में भी कुछ कम समय नहीं लगाते.
ऐसे में मान भी लिया जाए कि नई पारी में वे तगाफुल नहीं करेंगे, तो भी जिन शक्तियों का उन्होंने फिर से जीतने के लिए इस्तेमाल किया है या जिनका दावा है कि वे उन्हें जिताकर लाई है, उनकी बाड़बंदी में उन्हें खबर होने तक बहुत-कुछ खाक होकर रह जाएगा.
इस कारण और भी कि न उनको ठीक से अपना दायित्व समझने या आत्मावलोकन करने की आदत है और न ही लस्त-पस्त विपक्ष उन पर अंकुश लगाने में समर्थ. उनकी पिछली और इस बार की पारी में एक और बड़ा फर्क है.
पिछली बार झीना-सा ही सही, उनके विकास का महानायक होने का भ्रम बना हुआ था. कुछ दिनों तक खुद को अपनी जमात के सांप्रदायिक व संकीर्ण एजेंडे से परे रखकर उन्होंने अपनी महानायक वाली छवि को बचाने की कोशिश भी की थी. लेकिन इस बार तो सब-कुछ खुला खेल फर्रुखाबादी है.
विकास के महानायक को हम चुनाव जीतने के लिए घुटनों के बल सांप्रदायिक एजेंडे पर लौटते और ‘भगवा आतंकवाद की संज्ञा देकर हिंदुओं की पांच हजार साल पुरानी सभ्यता को कलंकित करने वालों’ से दो-दो हाथ करते देख चुके हैं.
इस दो-दो हाथ के मद्देनजर मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी गलत नहीं कह रहे कि इस चुनाव में दरअसल, ईवीएम के साथ नहीं, हिंदुओं के दिमागों के साथ छेड़छाड़ की गई है. इसमें इतना और जोड़ दें कि छेड़छाड़ मुसलमानों और दूसरे समुदायों के दिमागों से भी कुछ कम नहीं की गई है और यह लगातार की जाती रहती है तो पूरा सच सामने आ जाता है.
प्रधानमंत्री को भले ही यह मानने में असुविधा हो कि उनकी जीत में इस छेड़छाड़ का ही सबसे बड़ा हिस्सा है, आज की तारीख में उनकी सुविधा यही है कि इस छेड़छाड़ के लगातार जारी रहने के बावजूद उनका नासमझ विपक्ष समझता है कि वह फौरी उपायों से उससे पार पा लेगा.
ऐसे में आगे उसका क्या होगा, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि सामने आ खड़ी हुई लंबी लड़ाई में उतरने के लिए उसके पास कोई दीर्घकालिक रणनीति है या नहीं?
अगर यह सचमुच विचारधारा की लड़ाई है, जैसा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं और वे लड़कर उसे जीतना चाहते हैं, तो अभी और इसी पल से नई शुरुआत करनी होगी. सो भी अकेली अपनी पार्टी के नहीं, समूचे विपक्ष के साथ.
वरना तो नायक पूजा के पुराने अभ्यस्त इस देश में मोदी की नायक पूजा जारी रहेगी और विपक्ष वैसे ही शिकायतें करता रह जाएगा, जैसे कभी बाबा साहेब कांग्रेसी नायकों की पूजा के खिलाफ करते थे और हार जाते थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)