नरेंद्र मोदी को वोट देने वालों की सोच यह नहीं है कि वह अपने किए गए वादों को पूरा करेंगे या नहीं, बल्कि उन्होंने मोदी को इसलिए वोट किया क्योंकि उन्हें उनमें अपना ही अक्स दिखाई देता है.
नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव में एनडीए की जीत के बाद सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं का एक दौर चला, जिसमें कई ट्विट्स और पोस्ट में इस ओर ध्यान दिलाया गया कि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी आतिशी पूर्वी दिल्ली से चुनाव हार गईं, वहीं भोपाल से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार प्रज्ञा सिंह ठाकुर जीत गईं.
आतिशी ने ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई की है और सरकारी स्कूलों में सुधार की दिशा में काम किया है जबकि वहीं प्रज्ञा सिंह ठाकुर मालेगांव बम धमाका मामले में एक आरोपी हैं और जमानत पर बाहर हैं.
आतिशी को भाजपा के गौतम गंभीर ने हराया, जिन्होंने अब तक के अपने छोटे से राजनीतिक करिअर से यह दिखाया है कि वे उग्र राष्ट्रवाद और आक्रामकता के प्रदर्शन के मामले में अपनी पार्टी में किसी से भी कम नहीं हैं.
प्रज्ञा ठाकुर ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को हराया. इन सोशल मीडिया पोस्ट में सवाल उठाया गया कि आखिर ये नतीजे भारत के बारे में क्या बताते हैं?
हालांकि ये तुलना पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि दिल्ली और भोपाल के मतदाता समान नहीं हैं और अन्य स्थानीय कारकों ने भी नतीजों में भूमिका निभाई होगी, लेकिन इन पोस्ट में सही मुद्दा उठाया गया है.
न ही शिक्षा को लेकर आतिशी की प्रतिबद्धता ने मतदाताओं को प्रभावित किया और न ही महात्मा गांधी के हत्यारे को लेकर प्रज्ञा ठाकुर के विवादित बयान ने मतदाताओं को परेशान किया.
मतदाताओं ने प्रज्ञा ठाकुर के नफ़रत से भरे बयान को कोई महत्व नहीं दिया और आतिशी की उपलब्धि में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई. आतिशी ने कमजोर तरीके से अपनी जाति का बचाव करने की कोशिश की. उन्हें यह उम्मीद रही होगी कि ऐसा करना उन्हें मदद पहुंचाएगा, लेकिन किसी ने इस ओर थोड़ा सा भी ध्यान नहीं दिया.
यह सोचकर ही अजीब लगता है कि प्रज्ञा ठाकुर बतौर सांसद संसद में बैठने जा रही हैं, वह संसद जो देश के लोकतंत्र का प्रतीक है. वह संविधान की शपथ लेंगी, वह संविधान जो धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रतीक है, जिसका वह और उनकी पार्टी के नेताओं को ऐतराज है. जनता की प्रतिनिधि के तौर पर वे और कौन से विचार सामने रखेंगी?
व्यापक स्तर पर यह अंतर भाजपा और विपक्ष, मुख्यतः कांग्रेस के बीच के फर्क को भी बयां करता है. भाजपा ने अल्पसंख्यक अधिकारों, हिंदू वर्चस्व, देशभक्ति आदि के मसले पर अपना पक्ष किसी से छिपाया नहीं है.
कांग्रेस द्वारा लगाए गए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावादी पूंजीवाद के आरोप और नरेंद्र मोदी पर इसके सतत हमले लोगों को प्रभावित करने में नाकाम रहे. काफी मेहनत और सोच-विचार कर बनाया गया और भविष्य का खाका पेश करने वाला इसका घोषणा पत्र भी लोगों पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया. न ही भाजपा की जमीन पर उसका मुकाबला करने के लिए अपनाई गई सॉफ्ट हिंदुत्व की रणनीति ही इसके काम आई.
मोदी की सफलता यह दिखाती है कि जनता की नब्ज पर उनकी पकड़ थी, चाहे उन्होंने भारतीय सैनिकों के नाम पर वोट देने के की अपील की हो या गैर जिम्मेदाराना ढंग से परमाणु हथियारों के बारे में बात की हो. विकास, संवृद्धि और रोजगार की कहीं कोई चर्चा नहीं की गई, लेकिन फिर भी मतदाताओं ने उन्हें जबरदस्त बहुमत दिया. वास्तव में यह भारत के बारे में क्या कहता है?
कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में प्रणालीगत समस्याओं जैसे धन की कमी, कमजोर उम्मीदवारों को चुनना, संदेश को आगे पहुंचाने में नाकामी, गठबंधनों की कमी से जूझ रही है लेकिन इस चुनाव से मिलने वाला सबक यह है कि भारत के मतदाताओं को जिस चीज की तलाश है, वह भाजपा के अलावा किसी और पार्टी के पास नहीं है.
भाजपा न सिर्फ इस नए भारत के विचारों को शब्द देती है, जो अक्सर ऐसे तरीकों से होता है कि भारत के जीवन में अब तक केंद्रीय और बुनियादी माने जाने वाले मूल्यों के प्रति आस्था रखने वाले लोग चिंता में पड़ जाते हैं. लेकिन यह नए नैरेटिव का हिस्सा है. यह उस सामाजिक व्यवस्था से निकलता है, जिसको भाजपा आवाज देती है. भाजपा उस जहनियत का न सिर्फ प्रतीक है, बल्कि उसका उत्पाद भी है, जिसने आधुनिक भारत में अपनी जड़ें जमा ली हैं.
कांग्रेस राजनीति के अपने शिखर के दिनों में भारत को एक खास सांचे में ढालना चाहती थी; भाजपा खुद राष्ट्र द्वारा ढाला गया उत्पाद है. जिन्होंने भाजपा और मुख्य तौर पर नरेंद्र मोदी के लिए वोट किया है- उनकी सोच यह नहीं है कि मोदी अपने किए गए वादों को पूरा करेंगे बल्कि उन्होंने उन्हें वोट इसलिए किया है क्योंकि उन्हें नरेंद्र मोदी में अपना ही अक्स दिखाई देता है. वे सिर्फ उनके प्रतिनिधि नहीं हैं, वे उनमें से ही हैं, क्योंकि वे उनके बीच से ही निकले हैं.
चायवाले की कहानी, भले वह सच्ची हो या नहीं हो, प्रभावित करने वाली कहानी है, क्योंकि यह सिर्फ प्रेरित नहीं करती, बल्कि इस बात का जीता-जाता उदाहरण है कि एक साधारण व्यक्ति ने विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को उनकी सही जगह दिखा दी है.
पिछले कुछ वर्षों में मोदी ने यह बताने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने दिया है कि कैसे उन्होंने भारत में परंपरागत सत्ता- राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक – को ठेंगा दिखाया है और कैसे उन्होंने अभिजात्य वर्ग के दुर्ग को तोड़ा है.
लुटियंस दिल्ली, हार्वर्ड से पढ़ा-लिखा और यहां तक कि खान मार्केट गैंग, जैसे सारे वाक्य एक ही तरफ संकेत करते हैं कि ये अभिजात्य्य वर्ग के लोग खुद के बारे में क्या सोचते हैं? मैं उन्हें आईना दिखाऊंगा और उन्होंने दिखा दिया है.
इस छवि में अभिजात्य वर्ग वाम-उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष (यानी अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करने वाला) और आमजन यानी ‘असली’ भारत से दूर रहने वाला है. इस असली भारतीय को लगता है कि मुस्लिम, दलित और आमतौर पर गरीब लोग कठिन मेहनत करके अपने जीवन को बेहतर करने की जगह बेवजह बहुत ज्यादा की मांग कर रहे हैं. उन्हें उनकी जगह पर रखना जरूरी है, भले ही इसका अर्थ बीच-बीच में कुछ लोगों की जानलेवा पिटाई और कुछ लोगों को मार देने के रूप में निकले.
असली भारतीय व्यवस्था चाहते हैं न की अराजकता, एक सशक्त सरकार न कि शोर करने वाले क्षेत्रवादी नेता. यह एक ऐसे ठोस जातिगत पदानुक्रम चाहता है, जिसमें हर किसी की जगह तय हो. जीवन में तरक्की का रास्त मेरिट (योग्यता) से होकर जाता है और इन भारतीयों को लगता है कि यह मेरिट उनमें ही कूट-कूट कर भरा है.
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मोदी को पढ़े-लिखे पेशेवरों के बीच भी इतना समर्थन हासिल है, खासकर शहरों और विदेशों में. वे खुद को ऐसे लोगों के तौर पर देखते हैं, जिन्होंने सब कुछ खुद के बूते बिना किसी की मदद के सिर्फ अपनी प्रतिभा और कड़ी मेहतन से हासिल किया है. इस बात की संभावना कि उन्हें वर्ग और जाति का विशेषाधिकार हासिल था, उनके जेहन में आती ही नहीं है.
एक कामयाब कारोबारी इस बात की शेखी बघारेगा कि कैसे वह एक साधारण पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखता है और कैसे उसने दिन-रात मेहनत की.
वह इस बात को नजरअंदाज कर देगा कि कैसे उसके समुदाय के नेटवर्क की उसकी सफलता में भूमिका हो सकती है; एक आईआईटी ग्रैजुएट जिसने अमेरिका में बड़ी कामयाबी हासिल की है, उसके पास जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित उच्च शिक्षण संस्थानों में मिलने वाली सस्ती शिक्षा की भूमिका को याद करने के लिए वक्त नहीं होगा या इस तथ्य के लिए लिए कि वह उच्च जाति से है, जहां शिक्षा और अन्य सुविधाओं तक उसकी पहुंच उसके जन्मसिद्ध अधिकार जैसे है.
मोदी इस तरह उनके साथ एक रिश्ता कायम कर लेते हैं, जब वे (मोदी) कहते हैं कि कैसे उन्होंने एक चायवाले से प्रधानमंत्री पद तक का सफर तय किया, ऐसे में ये लोग मोदी में अपनी छवि देखने लगते हैं. इसके उलट राहुल गांधी एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखे जाते हैं, जिसके जीवन में एक ताकतवर परिवार मे जन्म लेने के अलावा शायद ही और कोई उपलब्धि है.
असंतोष और द्वेष एक ताकतवर भावना है और मोदी ने न सिर्फ इसे बखूबी भुनाया है बल्कि वे इसके पुरोधा बन गए हैं. वे हमेशा द्वेष और असंतोष से भरे शब्द बोलते हैं क्योंकि वह खुद द्वेषपूर्ण भावना रखते हैं, भाजपा और बड़े पैमाने पर संघ परिवार के कई लोगों की तरह. मोदी ने हमेशा नेहरू-गांधी के खिलाफ द्वेष का भाव रखा है. सिर्फ उनकी नीतियों के कारण ही नहीं, बल्कि उनके विशेषाधिकारों के चलते भी.
नेहरू जमीन से जुड़े नेता वल्लभभाई पटेल से अलग हैं. यह उनके राजनीतिक मतभेदों का मसला नहीं है, बल्कि यह उनका सामाजिक-सांस्कृतिक अंतर है, जो अहमियत रखता है. नेहरू ने इंग्लैंड में स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई की और ऊंचे एवं ताकतवर तबके के लोगों में घुल-मिल गए जबकि पटेल मजदूर संघ के नेता थे, जो भारतीय परिधान पहनते थे और भारतीय जड़ों से जुड़े हुए थे.
पुरानी व्यवस्था से अलगाव और हीनताबोध की भावना धर्म में लिपटा हुआ है. महज किसी चीज या किसी व्यक्ति के खिलाफ होना लोगों को एकजुट नहीं कर सकता. कोई महान लक्ष्य ही लोगों को साथ ला सकता है.
यह ऐसा होना चाहिए जो लोगों को दिशा और मकसद दे सके. यह काम संघ की हिंदुत्व की नीति बखूबी कर रह रही है क्योंकि यह एक ऐसी भावना जगाती है, जिससे भारत का हर व्यक्ति परिचित है.
हिंदू होना एक स्वाभाविक चीज है- जो हिंदू नहीं हैं वे असली भारतीय नहीं हैं. यह घुट्टी दशकों से पिलाई जा रही है और अब इसने रंग दिखाना शुरू कर दिया है. खासकर तब जब नई पीढ़ी के पास इतिहास या देश का कोई बोध नहीं है.
मोदी ने चालाकी से इसका दोहन किया है, क्योंकि वे इस भावना को समझते हैं. उनकी परवरिश संघी माहौल में हुई है, जिसका मतलब है कि वे ऐसी ही बातें सुनते हुए बड़े हुए हैं. इसमें उनके संवाद कौशल और उनके व्यक्तित्व ने इसे और बढ़ाया ही है.
केदारनाथ में एक गुफा में ध्यान लगाए हुए मोदी की तस्वीर काफी सुनियोजित ढंग से सामने आई थी. मोदी ने खुद को एक ऐसे फकीर के तौर पर किया, जो अपने लिए कुछ नहीं चाहता है, जो भौतिक चीजों के बिना एक बेहद सादा जीवन जीने के लिए तैयार है और जो भारत की महान धार्मिक विरासत से जुड़ा हुआ है.
इसके साथ ही वे पड़ोसी पाकिस्तान पर बम भी गिरा सकते हैं और गांधी परिवार से भिड़ सकते हैं. निश्चित तौर पर यह सब फर्जी है, लेकिन उनके अनुयायियों के लिए, जिनकी आंखें भक्ति में मूंद गई हैं, यह असली है.
राहुल गांधी राफेल के बारे में चाहे कितनी ही बातें करें या सबको न्यूनतम आय का वादा करें, लेकिन उनके पास इस दर्जे की प्रतीकात्मकता के बरक्स देने के लिए कुछ भी नहीं है.
नए भारतीयों ने अपना फैसला सुना दिया है. आने वाले महीनों और सालों में वे और ज्यादा मांग करेंगे.उनका अपना आदमी प्रधानमंत्री है. मोदी को स्वाभाविक तौर पर यह पता है कि लोगों को क्या चाहिए और वे उन्हें वह सब देंगे.
पहले से ही कुचल दिए गए अल्पसंख्यक, पूरी तरह से हाशिये पर डाल दिए जाएंगे और उनकी नागरिकता और वफादारी पर सवाल उठाए जाएंगे. असहमति जताने वालों को सजा दी जाएगी और हर संस्थान को वशीभूत किया जाएगा.
लोगों का भारत के लिए एक सपना है और मोदी उसमें से एक हैं, वह उस सपने को पूरा करने वाले कर्ता-धर्ता हैं.
पुरानी व्यवस्था मिट रही है. इसमें कई कमजोरियां थीं और यह विकृत हो गई थी, लेकिन यह प्रभावशाली थी और इसने कम से कम एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज का वादा करती थी. नया भारत इसे खारिज करना चाहता है और इन नए भारतीयों को उनकी सच्ची नियति तक पहुंचाने के लिए मोदी, उनके ही बीच से उभर कर आए हैं.
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