आज 1857 के विद्रोह की वर्षगांठ है. इस विद्रोह में सिर्फ़ बेग़म हज़रत महल और रानी लक्ष्मीबाई ने ही हिस्सा नहीं लिया था, बल्कि दर्जनों अन्य औरतों ने सक्रिय तरीक़े से अंग्रेज़ों से लोहा लिया था. मगर उनकी कहानी शायद ही कहीं दर्ज है.
7 अप्रैल, को बेग़म हज़रत महल की पुण्यतिथि थी. इतिहास में हज़रत महल का नाम 1857 के भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में असीम शौर्य और साहस के साथ अंग्रेज़ों से टक्कर लेने के लिए दर्ज है. बेग़म हज़रत महल को याद करते हुए हमें उन दूसरी स्त्रियों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने 1857 के संग्राम में अपनी जान की क़ुर्बानियां दीं, मगर इनमें से ज़्यादातर को न तो कोई जानता है, न जिनका कहीं ज़िक्र किया जाता है.
जब हम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात करते हैं, तब हमारा ध्यान तुरंत रानी लक्ष्मीबाई और बेग़म हज़रत महल की ओर जाता है. लेकिन क्या, इस संघर्ष में सिर्फ़ इन्हीं दो स्त्रियों का योगदान था? इस संघर्ष में दलित समुदायों से आने वाली औरतें थीं (विद्वान जिन्हें दलित वीरांगनाएं कहकर पुकारते हैं), कई भटियारिनें या सराय वालियां थीं, जिनके सरायों में विद्रोही योजनाएं बनाते थे. कई कलावंत और तवायफ़ें भी इसमें मददगार थीं, जो समाचार और सूचनाएं पहुंचाने का काम करती थीं. कइयों ने तो पैसों से भी इसमें मदद की.
मगर ऐसा क्यों है कि हम शायद ही कभी इन औरतों के बारे में बात करते हैं? क्या इसकी वजह यह है कि ये औरतें समाज के हाशिए से ताल्लुक रखती थीं और इसी कारण इनके बलिदानों को कहीं दर्ज नहीं किया गया? या इसकी वजह यह है कि इनकी साहस की कहानियां कहने वाला कोई नहीं था? या इतिहास में इनकी ग़ैरहाजिरी की वजह यह है कि परंपरागत पितृसत्तात्मक समाजों में औरतों को योद्धाओं के तौर पर नहीं देखा जाता था?
1857 के बाद विजेताओं ने इतिहास को दुबारा इस तरह से लिखा कि ये उनके हितों को आगे बढ़ाए. अपने ख़िलाफ़ हुई बग़ावत में भाग लेने वालों की प्रशंसा करना या उनका महिमामंडन करना, निश्चित तौर पर उनके एजेंडे में नहीं था. झांसी की रानी की लोकप्रियता की वजह यह है कि वे मौखिक परंपरा और लोकगीतों में जीवित रहीं. उनको लेकर दर्जनों लोकगीत रचे गए, जो आज भी गाए जाते हैं.
अवध के संभ्रांत तबके ने बेग़म हज़रत महल की विरासत को संभाले रखा. ये बात दीगर है कि उनके तरीक़े लोकगीतों की तरह शक्तिशाली नहीं साबित हुए. बाद में कॉमिक्स की क़िताबों, ख़ासकर अमर चित्रकथा की श्रृंखला ने कुछ गिनी-चुनी शख़्सियतों की कहानियों को जिलाए रखने का काम किया. लेकिन, इन ज़्यादातर औरतों का वजूद बस अंग्रेज़ी दस्तावेज़ों में दर्ज नामों तक ही सीमित है. इससे बाहर इनके बारे में शायद ही कोई कुछ जानता है.
बेग़म हज़रत महल
10 मई 1857 को मेरठ के ‘सिपाहियों’ ने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था. जल्द ही कई और लोग मुग़ल बादशाह बहादुर शाह द्वितीय के सांकेतिक नेतृत्व में, जिन्हें विद्रोहियों ने शहंशाह-ए-हिंद का ख़िताब दिया था, इस विद्रोह में शामिल हो गए.
यह विद्रोह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक व्यापक स्वतंत्रता संग्राम में तब्दील हो गया, जिसमें राजा, कुलीन तबका, ज़मींदार, किसान, आदिवासी और साधारण लोग, सब कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे. फिर भी इतिहासकार अपने घरों से बाहर निकलने वाली और कंपनी बहादुर के ख़िलाफ़ लड़ाई में पुरुषों के साथ मिलकर लड़ने वाली स्त्रियों की उपेक्षा करते दिखते हैं और उन्हें पूरी तरह बिसरा देते हैं.
अवध में गद्दी से बेदख़ल किये गये नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी बेग़म हज़रत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ति का मुक़ाबला किया और वे कामयाब होते-होते रह गईं. 1857 में अंग्रेज़ों का सबसे लंबे समय तक मुक़ाबला बेग़म हज़रत महल ने सरफ़द्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और सबसे बढ़कर मम्मू ख़ान जैसे अपने विश्वासपात्र अनुयाइयों के साथ मिलकर किया. इस लड़ाई में उनके सहयोगी बैसवारा के राणा बेनी माधव बख़्श, महोना के राजा दृग बिजय सिंह, फ़ैज़ाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह, राजा मानसिंह और राजा जयलाल सिंह थे.
हज़रत महल ने चिनहट की लड़ाई में विद्रोही सेना की शानदार जीत के बाद 5 जून, 1857 को अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस क़द्र को मुग़ल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा. यहां एक के बाद श्रृंखला में कई घटनाएं हुईं, जो आज लखनऊ की घेराबंदी के तौर पर प्रसिद्ध हैं. बिरजिस क़द्र के राज-प्रतिनिधि (रीजेंट) के तौर पर हज़रत महल का फ़रमान पूरे अवध में चलता था.
विलियम होवर्ड रसेल ने अपने संस्मरण- ‘माय इंडियन म्यूटिनी डायरी’ में लिखा है, ‘ये बेग़म ज़बरदस्त ऊर्जा और क्षमता का प्रदर्शन करती हैं. उन्होंने पूरे अवध को अपने बेटे के हक़ की लड़ाई में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया है. सरदारों ने उनके प्रति वफ़ादार रहने की प्रतिज्ञा ली है. बेग़म ने हमारे ख़िलाफ़ आख़िरी दम तक युद्ध लड़ने की घोषणा कर दी है.’
अंग्रेज़ों ने समझौते के तीन प्रस्ताव भेजे. यहां तक कि यह पेशकश भी रखी कि वे ब्रिटिश अधीनता में उनके पति का राजपाट लौटा देंगे. लेकिन बेग़म इसके लिए राजी नहीं हुईं. वे एकछत्र अधिकार से कम कुछ भी नहीं चाहती थीं. उन्हें या तो सबकुछ चाहिए था, या कुछ भी नहीं. भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की सबसे लंबी और सबसे प्रचंड लड़ाई लखनऊ में लड़ी गई.
हज़रत महल ने राज-प्रतिनिधि के तौर पर दस महीने तक शासन किया. 1857 में अंग्रेज़ों से लड़ने वाले सभी विद्रोही नेताओं में उनके पास सबसे बड़ी सेना थी. ज़मींदारों और किसानों ने उन्हें स्वेच्छा से कर दिया, जबकि वे अंग्रेज़ों को बेमन से कर चुकाया करते थे.
1856 में जब वाजिद अली शाह कलकत्ता के लिए रवाना हो रहे थे, तभी उन्होंने बेग़म के अंदर लड़ने के जज़्बे और शौर्य का पूर्वानुमान लगा लिया था:
घरों पर तबाही पड़ी सहर में, खुदे मेरे बाज़ार, हज़रत महल
तू ही बाइस-ए-ऐशो आराम है ग़रीबों की ग़मख़्वार, हज़रत महल
(ग़म में डूबे हुए घरों पर तबाही बरपा हुई है, मेरे बाज़ारों को लूटा गया, हज़रत महल
तू ही बस राहत की एकमात्र वजह है, ग़रीबों के दुखों को दूर करने वाली है, हज़रत महल)
वे जब तक मुमकिन हुआ, अंग्रेज़ों से लड़ती रहीं और अंत में उन्होंने नेपाल में शरण ली, जहां 1879 में उनकी मृत्यु हो गई. ये पंक्तियां उनकी कही जाती हैं:
लिखा होगा हज़रत महल की लहद पर
नसीबों की जली थी, फ़लक की सताई
(हज़रत महल की कब्र पर यह लिखा होगा- सितारों ने (भाग्य ने) उसे जलाया और आसमान ने भी उस पर ज़ुल्म ढाए.)
झांसी की रानी
लक्ष्मीबाई का साहस बुंदेलखंड की कई लोक-कहानियों और लोक-गीतों का मुख्य विषय है. राही मासूम रज़ा के शब्दों में,
नागाह चुप हुए सब, आ गयी बाहर रानी
फ़ौज थी एक सदफ़ उसमें गौहर रानी
मतला-ए-जहाद पे है गैरत-ए-अख़्तर, रानी
अज़्म-ए-पैकर में मर्दों के बराबर रानी
(अचानक वहां शांति छा गई, बाहर आ गई रानी
सेना तो बस सीपी थी, उस सीपी की मोती थी रानी
धर्मयुद्ध के मैदान में सितारों को भी तुम बेनूर कर सकती हो रानी
सहस और वीरता में तुम मर्दों के बराबर हो रानी)
लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी के एक पुरोहित के घर में हुआ था. बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका रखा गया था. मई, 1842 में झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ विवाह के बाद उनका नाम बदल कर लक्ष्मीबाई कर दिया गया. 1853 में उनके पति की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने डलहौजी की कुख्यात हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स) के सहारे झांसी का विलय कर लिया. अंग्रेज़ों ने लक्ष्मीबाई के गोद लिए बेटे दामोदर राव को गद्दी का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया.
लक्ष्मीबाई को झांसी के क़िले से बाहर कर दिया गया और उन्हें रानी महल में पेंशनयाफ़्ता होकर रहने के लिए मजबूर किया गया. लेकिन, वे इस बात पर अड़ी थीं कि ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’. उन्होंने इस विलय पर पुनर्विचार करने के लिए इंग्लैंड से कई बार दरख़्वास्त की, मगर उनकी सारी अपीलों को ख़ारिज कर दिया गया. 1857 में पड़ोसी रियासतों और झांसी की गद्दी के एक दूर के दावेदार के हमलों की सूरत में लक्ष्मीबाई ने एक सेना बनाई और शहर की सुरक्षा मज़बूत की.
मख्मूर जालंधरी के शब्दों में,
लक्ष्मीबाई तेरे हाथों में तेग़-ओ-सिपार
हुस्न की सारी रिवायत की थी सिल्क-ए-गौहर
(लक्ष्मीबाई तेरे हाथों में तलवार और ढाल
यही तुम्हारे गहने हैं, तुम्हारी मोतियों की माला है.)
मार्च, 1958 में अंग्रेज़ी फ़ौज ने जब झांसी पर हमला किया तब उनका पूरे दमख़म के साथ मुक़ाबला किया गया. आख़िरकार जब अंग्रेज़ों ने बढ़त बना ली, तब लक्ष्मीबाई अपने बेटे के साथ क़िले से बच निकलीं. वे वहां से निकलकर कल्पी पहुंचीं, जहां वे तात्या टोपे के साथ हो गईं. दोनों ने मिलकर ग्वालियर पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन एक बार फिर अंग्रेज़ भारी पड़े. अब लड़ाई ग्वालियर के बाहरी हिस्से में सिमट गयी.
17 जून, 1858 को ग्वालियर से पांच मील पूरब कोटा की सराय में हुई लड़ाई में रानी को गोली लगी और वे अपने घोड़े से गिर पड़ीं. इस समय वे पुरुषों का लिबास पहने हुई थीं.
झलकारी बाई और झांसी का दुर्गा दल
झलकारी बाई झांसी के दुर्गा दल या महिला दस्ते की सदस्य थीं. उनके पति झांसी की सेना में सैनिक थे. ख़ुद झलकारी तीरंदाज़ी और तलवारबाज़ी में प्रशिक्षित थीं. लक्ष्मीबाई से उनकी समानता का इस्तेमाल झांसी की सेना को अंग्रेज़ी को चकमा देने के लिए एक सैन्य रणनीति बनाने में किया. अंग्रेज़ों को धोख़ा देने के लिए झलकारी बाई ने अपनी रानी की तरह पोशाक पहने और झांसी की सेना की सेनापति बन गईं.
इससे लक्ष्मीबाई बिना किसी को शक हुए बाहर निकल सकीं. जब झलकारी को पकड़ कर क़ैद कर लिया गया तब अंग्रेज़ झटका खा गये. किंवदंतियों के मुताबिक़ जब अंग्रेज़ों यह पता चला कि उन्होंने दरअसल लक्ष्मीबाई का वेश धारण किये हुए किसी और को पकड़ लिया है, तो उन्होंने झलकारी बाई को रिहा कर दिया. झलकारी बाई के 1890 तक जीवित रहने की बात पता चलती है.
झांसी में दुर्गा दल के माध्यम से कई औरतें रानी के साथ लड़ीं और रियासत के लिए प्राणों की आहुति दी. जिनका उल्लेख मिलता है, उनमें मंदर, सुंदर बाई, मुंदरी बाई और मोती बाई के नाम शामिल हैं.
इन औरतों को वैधव्य का इंतज़ार करते हुए हाथ पर हाथ धरे बैैठे रहना गवारा नहीं था.
चूड़ी फोरवाई के नेवता
सिंदूर पोछवाई के नेवता
(आपको न्योता है अपनी चूड़ियां तोड़ने के लिए
आपको न्योता है अपने माथे का सिंदूर पोछने के लिए)
ऊदा देवी, एक अच्छी निशानेबाज़ और वीरांगना
लखनऊ में हुई सबसे भीषण लड़ाइयों में से एक नवंबर, 1857 में सिकंदर बाग़ में हुर्ह थी. सिकंदर बाग़ में विद्रोहियों ने डेरा डाल रखा था. यह बाग़ रेजिडेंसी में फ़ंसे हुए यूरोपियनों को बचाने निकले कमांडर कोलिन कैंपबेल के रास्ते में पड़ता था. यहां एक ख़ूनी लड़ाई हुई जिसमें हज़ारों भारतीय सैनिक शहीद हुए.
एक कथा के मुताबिक़ अंग्रेज़ों को आवाज़ से यह पता चला कि कोई पेड़ पर चढ़कर धड़ाधड़ गोलियां दाग रहा है. जब उन्होंने पेड़ को काट कर गिराया तब जाकर उन्हें पता चला कि फायरिंग करने वाला कोई आदमी नहीं बल्कि एक औरत है, जिसकी पहचान बाद में ऊदा देवी के तौर पर की गयी. ऊदा देवी पासी समुदाय से ताल्लुक रखती थीं. उनकी मूर्ति आज लखनऊ के सिकंदर बाग़ के बाहर स्थित चौक की शोभा बढ़ा रही है.
फोर्ब्स-मिशेल, ने ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ द ग्रेट म्यूटिनी’ में ऊदा देवी के बारे में लिखा है, ‘‘वह पुराने पैटर्न की दो भारी कैवलरी पिस्तौल से लैस थीं, इनमें से एक अंत तक उनकी बेल्ट में ही थी, जिसमें गोलियां भरी हुई थीं. उनकी थैली अब भी गोली-बारूद से आधी भरी हुई थी. हमले से पहले पेड़ पर सावधानी से बनाए गये अपने मचान पर से उन्होंने आधा दर्जन से ज़्यादा विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया था.’’
कोई उनको हब्सिन कहता, कोई कहता नीच अछूत.
अबला कोई उन्हें बतलाए, कोई कहे उन्हें मज़बूत.
अवध के नवाबों के दरबार में कई अफ्रीकी महिलाएं काम करती थीं. इनका काम हरम की रखवाली करना था. ये सब भी 1857 में लखनऊ में हुई लड़ाइयों में मारी गईं.
इस महान विद्रोह की एक ध्यान देने वाली विशेषता यह है कि इसमें सिर्फ़ शाही या कुलीन पृष्ठभूमि वाली औरतों ने ही हिस्सा नहीं लिया, बल्कि दलित समुदायों की औरतों की भी इसमें भागीदारी थी. ऐसी ही एक और दलित वीरांगना थीं, मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के मुंदभर गांव की महाबीरी देवी. महाबीरी ने 22 औरतों का एक दस्ता बनाया. 1857 में इस दस्ते ने कई अंग्रेज़ सैनिकों पर हमला किया और उन्हें मार गिराया. ये सारी औरतें पकड़ी गईं और शहीद हुईं.
अज़ीज़न बाई
संभवतः सबसे ज़्यादा दिलचस्प कहानियां कानपुर की तवायफ़ अज़ीज़न बाई की हैं. कानपुर नाना साहेब और तात्या टोपे की सेना का अंग्रेज़ी सेना के साथ भीषण लड़ाई का गवाह बना.
तेरे यलगार में तामीर थी तखरीब न थी
तेरे ईसार मे तरग़ीब थी तादीब न थी
(युद्ध की तुम्हारी ललकार निर्माण के लिए थी, न कि विध्वंस के लिए
तेरी क़ुर्बानी प्रेरणा देने के लिए थी न कि धिक्कारने के लिए.)
-मख्मूर जालंधरी
उपनिवेशी और भारतीय इतिहासकारों ने कानपुर की लड़ाई के दौरान अज़ीज़न की भूमिका का उल्लेख किया है. दूसरी कई स्त्रियों के विपरीत जो इस विद्रोह में शामिल हुई थीं, अज़ीज़न को इस लड़ाई से कोई निजी लाभ नहीं होना था, न ही उनकी कोई निजी शिकायत थी. वे बस नाना साहेब से प्रेरित थीं.
कानपुर के लोग आज भी उनको याद करते हैं. वे रानी लक्ष्मीबाई की तरह पुरुषों के लिबास पहना करती थीं, एक जोड़ी बंदूक रखती थीं और सैनिकों के साथ घोड़े की सवारी करती थीं. वे नाना साहेब की शुरुआती जीत पर कानुपर में झंडा फहराने वाले जुलूस में शामिल थीं.
अपने लेख, ‘‘मेकिंग द ‘मार्जिन’ विजिबल’’, में लता सिंह ने लिखा है कि अज़ीज़न कानपुर मे तैनात दूसरी घुड़सवार सेना की चहेती थीं. वे खासतौर पर शम्सुद्दीन नाम के एक सैनिक के क़रीब थीं. उनका घर सैनिकों के मिलने की जगह था. उन्होंने औरतों का एक दस्ता भी बनाया, जो निडरतापूर्व सशस्त्र जवानों की हौसला आफ़जाई करता था, उनके जख़्मों पर मरहम पट्टी करता था और उन्हें हथियार और गोला-बारूद मुहैया कराता था.
उन्होंने एक गन बैटरी (दुश्मन पर बंदूक चलाने के लिए विशेष तौर पर बनाई गई जगह) को इस काम का मुख्यालय बना दिया. कानपुर की घेराबंदी के पूरे दौर में वे सैनिकों के साथ थीं, जिन्हें वे अपना दोस्त मानती थीं. ख़ुद वे हमेशा पिस्तौल लिए रहती थीं.
बहादुर औरतें और भी
रुडयार्ड किपलिंग की ‘ऑन द सिटी वॉल’ में 1857 के ग़दर के दौरान तवायफ़ों की अंग्रेज़ी हुक़ूमत विरोधी गतिविधियों का ज़िक्र मिलता है.
दरअसल, कई तवायफ़ों के कोठे विद्रोहियों के लिए मिलने की जगह बन गये थे. 1857 के बाद अंग्रेज़ी सरकार ने इन कोठों पर अपनी पूरी ताक़त से प्रहार किया. वे तवायफ़ें, जो पुरानी तहज़ीब और ललित कलाओं की संरक्षक हुआ करती थीं, उनकी हैसियत साधारण वैश्या की बना दी गई और उनकी दौलत पर क़ब्ज़ा कर लिया गया.
उत्तर प्रदेश का मुज़फ़्फ़रनगर इलाक़ा स्त्रियों की सक्रिय भागीदारी का प्रत्यक्षदर्शी बना. कुछ स्त्री विद्रोहियों के नाम हैं, आशा देवी, बख्तावरी देवी, भगवती देवी त्यागी, इंद्र कौर, जमीला ख़ान, मन कौर, रहीमी, राज कौर, शोभना देवी और उम्दा. इन सबने लड़ते हुए अपने प्राणों की क़ुर्बानी दे दी.
दस्तावेज़ों के मुताबिक़ असग़री बेग़म के अपवाद को छोड़कर ये सारी औरतें अपनी उम्र के तीसरे दशक में थीं. इन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया और कुछ मामलों में तो इन्हें ज़िंदा जला दिया गया.
दो और रानियां थीं, जिनकी रियासत हड़प नीति का शिकार हुई थी और जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंठा उठाया था. इनमें रायगढ़ की अवंतिबाई लोधी और धार की रानी द्रौपदी का नाम प्रमुख है.
अफ़सोस की बात है इन पर और अन्य स्त्री स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में ज़्यादा नहीं लिखा गया है. इन पर सामग्री भी काफ़ी कम उपलब्ध है. ऐसी एक सामग्री शम्सुल इस्लाम का लेख- ‘हिंदू-मुस्लिम यूनिटी: पार्टिसिपेशन ऑफ़ कॉमन पीपुल एंड वुमन इन इंडियाज़ फ़र्स्ट वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस’ है. इसमें ऐसी कई औरतों का ज़िक्र है, जिनके नाम बस 1857 के विद्रोह के दस्तावेज़ों में दफ़न होकर रह गए हैं.
यह समय है कि भारत इन वीरांगनाओं को याद करे और उन्हें सलाम करे.
(राना सफ़वी इतिहासकार और लेखिका हैं. उन्होंने ‘व्हेयर स्टोन्स स्पीक: हिस्टोरिकल ट्रेल्स इन मेहरौली, फ़र्स्ट सिटी ऑफ़ देल्ही’ नामक किताब लिखी है. इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)