15 साल बाद मध्य प्रदेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाने वाली कांग्रेस लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 29 सीटों में से सिर्फ़ एक सीट पर ही जीत दर्ज कर सकी.
महज पांच महीने पहले मध्य प्रदेश में भाजपा के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंकने वाली कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में प्रदेश में ऐतिहासिक हार का सामना किया है. 29 लोकसभा सीटों में से 28 पर उसे शिकस्त खानी पड़ी है. शिकस्त भी इतनी बड़ी कि प्रति सीट हार का औसत 3,11,120 वोट रहा है.
बड़े-बड़े चेहरों को मैदान में उतारकर पूरी ताकत के साथ ताल ठोकने वाली कांग्रेस के सभी बड़े नामों को धूल चाटनी पड़ी है.
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और कांतिलाल भूरिया, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अजय सिंह, राज्यसभा सांसद और कांग्रेस की लीगल सेल के राष्ट्रीय अध्यक्ष विवेक तन्खा, पूर्व केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी नटराजन, प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत जैसे बड़े-बड़े नाम हारे हैं.
यहां तक कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक जीवन की पहली हार उस गुना सीट पर झेली है जहां उनका परिवार तीन पीढ़ियों से राज कर रहा था.
इसलिए सवाल उठना लाजमी है कि महज पांच महीनों में ऐसा क्या हुआ कि सत्ताधारी कांग्रेस ने अपना जनाधार खो दिया?
जनाधार भी ऐसा खोया कि 29 लोकसभा सीटों में सिमटी प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से केवल 19 पर ही उसे बढ़त मिल सकी, 211 पर पिछड़ गई. जबकि विधानसभा चुनावों में 114 सीटें जीतकर पार्टी ने डेढ़ दशक बाद सत्ता में वापसी की थी.
यहां तक कि क्षेत्रीय संतुलन साधने के लिए पार्टी ने जिन विधायकों को मंत्री बनाया था, वे भी अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र तक में पार्टी को जीत नहीं दिला सके.
चुनावों से पहले मुख्यमंत्री कमलनाथ 22 सीटें जीतने का दावा कर रहे थे लेकिन उल्टा पिछली बार से एक सीट और ज्यादा गंवा बैठे. छिंदवाड़ा में उनके बेटे नकुलनाथ जीते भी तो 37,000 के मामूली अंतर से.
यह स्थिति तब बनी जब सत्ताधारी कांग्रेस अपने विधानसभा चुनाव के वचन पत्र के किसान कर्ज माफी सहित 83 वादे पूरे करने का दम भर रही थी.
कांग्रेस को हर तरफ से मिली ऐसी हार पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘किसी ने नहीं सोचा था कि कांग्रेस इतनी बुरी तरह हारेगी. उम्मीद थी कि उसे आठ से दस सीटें मिलेंगी. मैं इस दौरान फील्ड में ही रहा. भाजपा को स्वयं अपने ऐसे प्रदर्शन का अंदाजा नहीं था. इसलिए सिवाय मोदी फैक्टर के कोई और कारण नहीं दिखता. कांग्रेस ने मोदी के प्रभाव को हल्के में लेने की गलती की. उसके पास मोदी का कोई तोड़ नहीं था.’
वे आगे कहते हैं, ‘भोपाल में दिग्विजय सिंह का बूथ मैनेजमेंट इतना मजबूत था कि प्रज्ञा ठाकुर का जब तक नॉमिनेशन हुआ, तब तक वे पूरा लोकसभा क्षेत्र घूम चुके थे. किसी ने नहीं सोचा था कि इतना बुरा हारेंगे. इसी तरह खजुराहो में भाजपा के विष्णुदत्त शर्मा पांच लाख से अधिक वोटों से जीते. वे क्षेत्र के लिए बाहरी थे और ऐसा चेहरा थे जिसे वहां एक व्यक्ति नहीं जानता था. तो कुल मिलाकर मोदी के नाम पर वोट गिरे. उम्मीदवारों को नहीं देखा गया. दूसरा कारण कि जिस ‘न्याय’ योजना को कांग्रेस गेम चेंजर मानकर वोट की उम्मीद पाले थी, वह जनता पर छाप नहीं छोड़ पाई.’
यह सही है कि मतदाताओं के बीच मोदी स्वयं एक मुद्दा थे जो कांग्रेस की ‘न्याय’ योजना पर भारी पड़े. बावजूद इसके राकेश कहते हैं कि कांग्रेस से आठ-दस सीटों की उम्मीद थी तो उसके पीछे का गणित यह है कि पांच माह पहले हुए विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने कुल 12 लोकसभा सीटों पर बढ़त बनाई थी.
वहीं, प्रदेश की राजनीति का मिजाज पूर्व में ऐसा रहा था कि विधानसभा का वोट अधिकांश मौकों पर लोकसभा में भी स्थिर रहता था. इसलिए उम्मीद थी कि यदि मोदी मैजिक चला भी तो कांग्रेस अपनी बढ़त वाली 12 सीटों में से 8 तो जीत ही जाएगी. भाजपा में भीतरघात और पार्टी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी इन कयासों की पुष्टि कर रहे थे.
भोपाल में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर इस पराजय में स्थानीय कारकों को भी अहमियत देते हैं.
वे कहते हैं, ‘प्रदेश में कांग्रेस ठोस तरीके से सरकार में नहीं आई थी, वह दुर्घटनावश था. वह जनमत न तो कांग्रेस और न ही भाजपा के लिए था. इस सच्चाई को जानकर भी पांच महीनों में कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया जो एक सरकार के तौर पर मतदाता को लुभा सके.’
गिरिजा शंकर के अनुसार, ‘सरकार बनने वाले दिन ही लोकसभा चुनावों के लिए एजेंडा तय होना था और सरकार के सारे काम उसे ध्यान में रखकर करने थे. पर ये खुद के अलग ही एजेंडे पर चले गए. जहां अधिकारियों के थोक में तबादले जैसे मुद्दे इनकी प्राथमिकता में रहे. नतीजतन जनता जहां पहले थी, वहीं वापस लौट गई. इन चार-पांच महीनों में सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए थी कि इतनी फास्ट डिलिवरी करो कि वह लोकसभा में नतीजों में तब्दील हो. ऐसा नहीं हो सका.’
प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने एक वचन-पत्र जारी किया था, जिसमें 973 वचनों का समावेश था जिन्हें सरकार गठन के बाद पूरा करना था.
कांग्रेस का दावा रहा कि लोकसभा की चुनावी आचार संहिता लगने से पहले उसने 83 वचन पूरे कर लिए थे, जो काम के प्रति उसकी तेज गति का उदाहरण है. इसमें किसान कर्ज माफी का वो वादा भी शामिल है जिसे भुनाकर पार्टी ने प्रदेश की सत्ता में सेंध लगाई.
इस पर गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘कांग्रेस से पूछिए कि कौन से 83 वादे पूरे किए हैं, उन्हें खुद पता नहीं होगा. आंकड़ेबाजी से राजनीति नहीं होती. गिनाने को कुछ भी गिना दें लेकिन जमीन पर कितना साकार हुआ है, ये अहमियत रखता है.’
वे कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री के शपथ लेते ही एक लाइन का कर्ज माफी का आदेश पास कर दिया लेकिन चार महीने में उसे लागू नहीं कर सके तो इससे बड़ी असफलता क्या होगी? आचार संहिता लगने तक पार्टी के पास तीन महीने थे जिसमें एक भी ऐसा वचन पूरा नहीं हो सका, जिसकी चर्चा जनता के बीच हो.’
वे आगे कहते हैं, ‘कम से कम इतना तो सुनिश्चित करते कि एक वचन ही पूरा हो जाता. लेकिन वे अफसरों के तबादले और पोस्टिंग में लग गए और योजनाओं का क्रियान्वयन उस नौकरशाही पर छोड़ दिया, जो चार महीने का काम चार साल में करती है. ऊपर से जिला और तहसील में तो योजनाओं को डिलिवर इन्हीं अफसरों को करना है, पर वे तो स्वयं ही तबादलों में उलझे थे.’
गौरतलब है कि जिस किसान कर्ज माफी के मुद्दे को भुनाकर पार्टी ने प्रदेश में सत्ता में वापसी की थी और प्रदेश की 126 ग्रामीण सीटों में से 63 जीती थीं, वे लोकसभा में घटकर 13 रह गईं. जो कहीं न कहीं दर्शाता है कि कर्ज माफी में लेटलतीफी से कहीं न कहीं किसान मतदाता का भरोसा कांग्रेस से उठ गया था.
भाजपा ने भी कर्ज माफी को लेकर ऐसा प्रचार किया कि मुद्दा कांग्रेस के गले की हड्डी बन गया. पार्टी को बार-बार सामने आकर सफाई देनी पड़ी कि उसने 22 लाख किसानों का कर्ज माफ किया है, आचार संहिता के चलते कर्ज माफी की प्रक्रिया रोक दी गई है, चुनावों बाद किसानों के खातों में पैसे आने शुरू होंगे.
लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पार्टी को हर मंच से घेरते नजर आए और सीधे राहुल गांधी पर प्रहार करते हुए सवाल किया कि कर्ज माफी न होने की दशा में 10 दिन में मुख्यमंत्री बदलने के उनके वादे का क्या हुआ?
प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने कर्ज माफी वाले किसानों की सूची शिवराज के घर जाकर उन्हें थमाई. लेकिन जमीनी हकीकत यह थी कि प्रदेश के किसानों को लगातार बैंकों के नोटिस मिलने की खबरें सुर्खियों में थीं.
वहीं, किसानों के कांग्रेस से छिटकने का एक कारण यह भी था कि सरकार बनाने के बाद पार्टी ने कई मौकों पर ऐसे संकेत दिए कि उसे अब किसानों की फिक्र नहीं रह गई है.
कुछ ही समय पहले प्रदेश भर में हुई बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से जिन किसानों की फसलें खराब हुईं, उनके मुआवजे की व्यवस्था करने के लिए पार्टी ने तत्परता नहीं दिखाई, जबकि शिवराज सिंह चौहान उन क्षेत्रों के दौरे पर तुरंत ही निकल गए थे और सरकार की इस अनदेखी पर हमलावर हो गए थे.
कुछ इसी तरह प्रदेश भर में अघोषित बिजली कटौती ने भी पार्टी के खिलाफ माहौल बनाया. भाजपा ने इसे प्रदेश में कांग्रेस के डेढ़ दशक पुराने दिग्विजय शासन से जोड़कर ‘बंटाधार युग’ की वापसी की संज्ञा दे दी.
एक वक्त ऐसा आया कि स्वयं कमलनाथ बचाव में उतरे और इसे बिजली विभाग में बैठे भाजपा समर्थक अफसरों की कारस्तानी बताते नजर आए. इस दौरान बिजली विभाग के सैकड़ों अफसरों और कर्मचारियों को दंडित भी किया गया लेकिन हालात अब तक नहीं सुधरे हैं.
आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे जो कि विधानसभा चुनावों के समय कांग्रेस की आरटीआई सेल के अध्यक्ष थे, बताते हैं, ‘अफसरों का तो पता नहीं, कांग्रेस की जरूर विपक्ष के साथ हाथ मिलाकर सरकार चलाने की रणनीति थी. पिछली सरकार के ई-टेंडर, व्यापमं और सिंहस्थ जैसे घोटालों पर ये एक कदम आगे नहीं बढ़ा पाए. घोटालों की जांच के लिए जन आयोग बनाने का इनका वचन था, वह पूरा नहीं किया. उल्टा शिवराज सरकार के समय के भ्रष्ट अधिकारियों को इन्होंने उपकृत किया. जो शिवराज के प्रमुख सचिव और सचिव थे, वे ही आज कमलनाथ के प्रमुख सचिव और सचिव हैं. इनका प्रमुख सचिव खुद भ्रष्टाचार के मामले में फंसा है. निचले स्तर पर तबादले हुए और ऊपर पॉलिसी मेकर वही भ्रष्ट अधिकारी रहे.’
वे आगे कहते हैं, ‘2018 में कांग्रेस ने सत्ता तो पा ली लेकिन मत प्रतिशत तब भी भाजपा से कम था. एक मौका मिला था निर्दलियों के सहयोग से अच्छा काम करने का लेकिन बेहतर करने के बजाय पाखंड, परिवारवाद और विपक्ष के साथ मिलकर घालमेल में लग गए. जिससे जनता के आक्रोश का खामियाजा लोकसभा में उठाना पड़ा.’
अजय दुबे प्रदेश के अफसर-अधिकारियों के थोक में हुए तबादलों के मुद्दे को भी कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनता में गये गलत संदेश से जोड़कर देखते हैं.
वे कहते हैं, ‘कमलनाथ सरकार ने तीन महीने में प्रदेश में रिकॉर्ड तौर ट्रांसफर करके लिक्विड कैश की वसूली की. ट्रांसफर के इस भ्रष्टाचार के अंदर भी एक और भ्रष्टाचार हुआ. एक अधिकारी का ट्रांसफर तीन-तीन बार किया. पहले से पैसा मिला तो उसका किया, दूसरे से मिला तो पहले का कैंसिल कर दिया, तीसरे से मिला तो दूसरे का कैंसिल किया. भ्रष्टाचार के अंदर भी इन्होंने भ्रष्टाचार किया.’
गौरतलब है कि कांग्रेस की प्रदेश में सरकार बनते ही अफसरों-अधिकारियों को तबादलों की बाढ़ सी आ गई थी. करीब-करीब 2000 से अधिक अफसर-अधिकारियों के तबादले इस दौरान हुए.
भाजपा ने इस मुद्दे को जनता के बीच तबादला उद्योग करार देकर भुनाया. रही-सही कसर आयकर विभाग की उस छापेमारी ने पूरी कर दी जहां कमलनाथ के निज सचिव आरके मिगलानी सहित अन्य सहयोगियों के घर से करोड़ों की नकदी बरामद की गई.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने देशभर में इस छापेमारी को कांग्रेस के खिलाफ मुद्दा बनाया था और बरामद नकदी को तबादलों से हुई वसूली ठहराया था.
बहरहाल प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता रवि सक्सेना सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं, देशभर में हुई कांग्रेस की बुरी हार को भाजपा द्वारा किया घपला करार देते हैं.
हालांकि, वे सीधा ईवीएम पर तो निशाना नहीं साधते, पर कहते हैं, ‘बड़ा घपला राष्ट्रीय स्तर पर हुआ है. इंदौर में भाजपा के शंकर ललवानी के 2-3 लाख मतों से हारने की चर्चा थी, वे 5 लाख से जीते. भोपाल शहर मे दिग्विजय ने चुनाव ऐसे लड़ा मानो कि पार्षद का चुनाव हो जहां एक-एक मतदाता से मिले, लेकिन फिर भी 3 लाख से अधिक से हारे.’
साथ ही वे कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश से लेकर बंगाल तक भाजपा ने छद्म राष्ट्रवाद का राग अलापा. एयरस्ट्राइक और पाकिस्तान को मुद्दा बनाकर शहीदों पर वोट की खेती की. और जनमानस को वहां धकेल ले गए कि काम पर वोट नहीं मिलेगा. ऐसे उन्होंने बहुमत पाया. बेरोजगारी, महिला सुरक्षा, सांप्रदायिकता भुखमरी, गरीबी, नोटबंदी, जीएसटी सारे मुद्दे राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ गए.’
उन्होंने कहा, ‘भाजपा का काम है झूठ और प्रपंच को स्थापित करना. उनका झूठ और प्रपंच काम कर गया. किसान कर्ज माफी को लेकर भी शिवराज ने इसी झूठ और प्रपंच का सहारा लेकर साबित करने की कोशिश की कि कर्ज माफ नहीं हुआ है.’
बहरहाल, इस सबसे इतर दिग्विजय सिंह के छोटे भाई पांच बार के पूर्व सांसद और वर्तमान में चाचौड़ा से विधायक लक्ष्मण सिंह ‘द वायर’ से बातचीत में पार्टी की हार के लिए मोदी लहर से अधिक पार्टी की कार्यशैली को जिम्मेदार ठहराते हैं.
वे कहते हैं, ‘मैं शुरू से कह रहा हूं और मैं अकेला नहीं कह रहा हूं. यह बात सभी लोग कह रहे हैं कि पार्टी में सामूहिक निर्णय नहीं हो रहे हैं. दो-चार लोग बैठकर फैसले ले रहे हैं. निर्णय लेते वक्त कार्यकर्ताओं की अनदेखी की जा रही है. यह हार उसी की प्रतिक्रिया है.’
वे आगे बताते हैं, ‘अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के जो ऑब्जर्वर प्रदेश में भेजे जाते हैं, इस हार में साठ प्रतिशत दोष तो उनका है. ऐसे लोग ऑब्जर्वर बनाकर भेजे जाते हैं जिन्हें अनुभव नहीं है. जो राजनीति समझते नहीं हैं. फिर ये यहां आकर उन लोगों पर हुक्म चलाते हैं, जिन्हें दशकों का अनुभव है, जिन्होंने पार्टी के लिए संघर्ष किया है या कर रहे हैं. हार उसी की प्रतिक्रिया है. कोई अकेला मोदी जी का जादू नहीं है. संगठन की यह कमियां दूर हो जाएंगी तो पार्टी खड़ी हो जाएगी.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)