यह देखना दिलचस्प होगा कि नरेंद्र मोदी सारी सत्ता व अधिकार अपनी मुट्ठी में क़ैद रखने की अपने पिछले कार्यकाल की रीति-नीति बदलने में कोई दिलचस्पी रखते हैं या नहीं?
नरेंद्र मोदी की नई सरकार ने देश की सत्ता संभाल ली है, तो स्वाभाविक ही उसके संदर्भ में पहला स्वाभाविक सवाल यही है कि क्या वह वाकई खुद का नया होना सिद्ध कर पाएगी?
ऐसा तो नहीं होगा कि वह बहुत से मामलों में उनकी 2014 वाली सरकार की पुनरावृत्ति भर होकर रह जाए?
अकारण नहीं कि इन दोनों सवालों से जूझते हुए कई विश्लेषकों को समझ में नहीं आ रहा कि वे उसे पुरानी बोतल में नई शराब कहें या नई बोतल में पुरानी शराब?
जब तक उन्हें कुछ समझ में आए, हमें जान लेना चाहिए कि उनकी इस बार की शराब पिछली बार की शराब से कम से कम इस मायने में अलग है कि पिछली बार जिन्हें उसका नशा चढ़ा था वे ‘विकास-विकास’ की रट लगा रहे थे, जबकि इस बार झूमते नजर आ रहे लोगों पर राष्ट्रवाद की खुमारी चढ़ी हुई है और वे अपनी जुबान पर विकास का नाम तक नहीं ला रहे.
बहरहाल, चेहरों के लिहाज से देखें तो इस सरकार में कई पुराने चेहरे नदारद हैं. उसमें न सुषमा स्वराज हैं, न अरुण जेटली, न मेनका गांधी, न सुरेश प्रभु और न राज्यवर्धन सिंह राठौड़.
इसके उलट इसके 20 नए चेहरों में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह भी हैं.
लेकिन चेहरों का यह उलट-पलट इस सरकार के नएपन को लेकर तब तक कोई आश्वासन नहीं दे सकता, जब तक हमें यह पता न चले कि नरेंद्र मोदी सारी सत्ता व अधिकार अपनी मुट्ठी में कैद रखने की अपने पिछले कार्यकाल की रीति-नीति बदलने में कोई दिलचस्पी रखते हैं या नहीं?
लोकसभा चुनाव के अपने लंबे प्रचार अभियान में उन्होंने कभी इसका कोई क्षीण-सा भी संकेत नहीं दिया.
यही कहते रहे कि आप भाजपा के अपने लोकसभा क्षेत्र के उम्मीदवारों पर मत जाइए. उनकी ओर देखिए भी मत और यह मानकर वोट दीजिए कि आपका एक-एक वोट नरेंद्र मोदी के खाते में जाएगा.
उनकी इस राजनीतिक शैली का उनके पिछले कार्यकाल के अनुभवों के आलोक में विस्तार करें तो कहना होगा कि संवैधानिक अनिवार्यता के चलते उन्होंने मंत्रिमंडल के गठन की औपचारिकता पूरी कर दी है, बस.
अब उनके मंत्रियों का इससे ज्यादा कुछ अर्थ नहीं होगा कि वे आनंदपूर्वक अपने पद से जुड़े वेतन-भत्ते, उपलब्धियां और सहूलियतें प्राप्त करते रहें. उन्हें अपने दायित्वों को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ने वाली क्योंकि उनकी चिंता नरेंद्र मोदी अकेले ही कर लेंगे.
याद कीजिए, पिछली बार नरेंद्र मोदी किस तरह उन योजनाओं की घोषणाएं करने को भी खुद आगे आ जाते थे, जो सामान्य तौर पर मंत्रियों के हिस्से की हुआ करती थीं.
और तो और, उन सुषमा स्वराज को भी विदेश मंत्री के चोले में ‘लोक कल्याणमंत्री’ बनकर रह जाना पड़ा था, जिनके बारे में कहा जाता है कि अपने विरोधियों को कतई न भूलने वाले मोदी जी ने अब उन्हें पूरी तरह से निपटा दिया है.
उनकी जगह लाए गए पूर्व विदेश सचिव एस. जयशंकर की काबिलियत में कोई संदेह नहीं कर रहा, लेकिन वे तभी कुछ कर पाएंगे जब मोदी उन्हें फ्री हैंड देंगे. लेकिन कैसे देंगे?
पिछले कार्यकाल में उन्होंने गृहमंत्री राजनाथ सिंह तक को फ्री हैंड नहीं दिया और अब अपने प्यारे अमित शाह के लिए नंबर दो की हैसियत से हटाकर रक्षा मंत्रालय में पुनर्वासित कर दिया है. भले ही राष्ट्रपति भवन के समारोह में शपथ लेने वालों में उनका प्रधानमंत्री के बाद दूसरा ही नंबर था.
किसी भी तरह के लोकतंत्र में सत्ता की शक्तियों के ऐसे केंद्रीकरण को शुभ संकेत नहीं माना जाता. लेकिन हम जानते हैं कि मोदी की पुरानी सरकार में यह सदाचार बना रहा था.
अगर नई सरकार में भी यह बना रहता है तो वह नोटबंदी व जीएसटी जैसे नए दुस्साहसों के अलावा कुछ कर पाएगी, इसमें संदेह के पर्याप्त कारण हैं.
नरेंद्र मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि उन्हें जो अपार बहुमत मिला है, नाना प्रकार के मत रखने वाले समाजों व समुदायों की एकता से नहीं, एक ही तरह के विचार रखने वालों के ध्रुवीकरण से निर्मित हुआ है और केंद्रीकरण का ही दूसरा रूप है.
फिर वे इस ‘लाभकारी’ केंद्रीकरण से परे क्यों हटेंगे? खासकर तब जब उन्होंने नायक पूजा की इस देश की पुरानी परंपरा को समृद्ध करते हुए अपने पहले कार्यकाल में सारे वादे अधूरे रखकर भी अपनी पार्टी को महज अपने नायकत्व के बूते 303 और गठबंधन को 350 से भी ज्यादा सीटें जिता दी हैं.
आगे वे अधिकारों के विकेंद्रीकरण की राह पर चल पड़ेंगे तो अपने महानायकत्व की रक्षा कैसे करेंगे?
उन्हें यह भी मालूम है कि जैसे ही वे महानायकत्व के आसन से उतरे अथवा कमजोर नजर आएंगे, उनके लिए अपने प्रचंड जनादेश की चमक बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. वैसे भी देश के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी पार्टी द्वारा उसे मिले ऐसे जनादेश को अगले चुनाव तक संभाले रख पाने की एक भी नजीर नहीं है और ऐसे किसी करिश्मे के लिए मोदी को लगातार तलवार की धार पर चलना होगा.
इसकी वजह भी है कि उनके गठबंधन में सहयोगी दलों ने पहले दिन से ही सत्ता संघर्ष के यु़द्धघोष से परहेज नहीं किया है.
जनता दल यू ने ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापातः’ की तर्ज पर उनके मंत्रिमंडल में शामिल होने से मना कर दिया है, जबकि शिवसेना ने दबाव डालकर सुरेश प्रभु को मंत्री नहीं बनाने दिया है.
जैसे-जैसे जनादेश की चमक फीकी पड़ेगी, सत्ताजनित स्वार्थों की यह छीना-झपटी और उससे जुड़ी मुसीबतें बढ़नी ही है.
तिस पर इस कार्यकाल में वे विपक्ष की ओर से भी 2014 जितने निश्चिंत नहीं ही रह पाएंगे. पिछली बार की उनकी जीत इतनी अप्रत्याशित थी कि बदहाल और बिखरे विपक्ष को दो तीन साल तक कोई रास्ता ही नहीं सूझा था. जब तक वह शक्तिसंचित करता, लोकसभा के नए चुनाव आ गए और उसमें भी उसे शिकस्त खानी पड़ी.
फिर भी दूसरे पहलू से देखें तो मोदी को उसे शिकस्त खिलाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है- विकास के महानायक का चोला उतारना हिंदुत्व का कार्ड खेलना और मुकाबलों को एयर स्ट्राइक तक ले जाना पड़ा है.
यह वैसे ही है, जैसे कोई योद्धा किसी व्यूह में बुरी तरह घिर जाने के बाद किसी चोर दरवाजे से बचकर निकल जाए.
आज की तारीख में मोदी एक ऐसे ही योद्धा हैं लेकिन आगे उनके राष्ट्रवाद को यथार्थ की तपती कठोर भूमि पर उतरना होगा क्योंकि देश के लोग उसके नशे में लंबे वक्त तक अपनी रोजमर्रा की जरूरतों और रोजी-रोटी से जुड़ी समस्याओं की अनदेखी नहीं कर सकेंगे, जबकि मोदी के पांच साल गवाह हैं कि उनके पास इस मोर्चे पर देने के लिए कोई नई संभावना नहीं है.
निश्चित ही यह संभावनाहीनता विपक्ष के लिए संजीवनी का काम करेगी. भले ही अभी उसके पास कोई चाणक्य नजर नहीं आता.
ऐसे में देश को जिस एक बात पर बारीकी से नजर रखने की जरूरत है, वह यह है कि मोदी अपने दूसरे कार्यकाल में उसके लोकतंत्र के साथ कैसा बरताव करते हैं? उनका ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा तो पिछले कार्यकाल में ही श्मशान व कब्रिस्तान के हवाले होकर अविश्वसनीय हो चला था.
अब उनके द्वारा उसमें जोड़ा गया ‘सबका विश्वास’ बहुसंख्यकों की आक्रामकता में उनकी जमातों के विश्वास को कितना कम कर सकेगा, कहना मुश्किल है.
ऐसे दौर में जब संवैधानिक संस्थाओं को बदहाल किया जा चुका है, इस सरकार ने बहुमत द्वारा अल्पमत पर निरंकुश शासन की राह पकड़ ली, तो स्वाभाविक ही अनेक नई विडंबनाओं को जन्म देने लगेगी.
बहुमत के सिद्धांत का विवेकहीन इस्तेमाल अनर्थों की विषबेल ही बढ़ा सकता है, कोई सार्थक परिणाम नहीं दे सकता.
इस बात को इस मिसाल से समझ सकते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चों द्वारा दिए गए किसी प्रश्न के सही जवाब की आलोचना करते हुए गलत जवाब देने वाले 95 प्रतिशत बच्चे कहें कि गलत जवाब देने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा है इसलिये पांच प्रतिशत बच्चों का जवाब सही न माना जाए.
साथ ही तर्क दें कि इतनी बडी संख्या में बच्चे गलत नहीं हो सकते, तो उनके विवेक को लेकर आश्वस्त कैसे हुआ जा सकता है?
बहरहाल, भविष्य इस प्रश्न के जवाब पर निर्भर करेगा कि क्या नई सरकार इस बात को समझने की तकलीफ उठाएगी कि सत्य अल्पमत या बहुमत के आधार पर तय होने वाली चीज नहीं है? अगर नहीं तो यही सिद्ध करेगी कि जम्हूरियत वो तर्जे हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना जाता है, तौला नहीं जाता?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)