चुनावी ख़र्च पर आई सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ की रिपोर्ट के अनुसार, बीते 20 सालों में 1998 से 2019 तक हुए लोकसभा चुनावों में हुआ व्यय छह गुना बढ़ा. इस साल के आम चुनाव में औसतन प्रत्येक लोकसभा सीट पर लगभग 100 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए.
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चुनाव के दौरान धन-बल के दुरुपयोग के तमाम आरोपों के बाद निजी थिंक टैंक सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) ने चुनावी खर्चे को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें यह बताया गया कि 2019 के लोकसभा चुनाव दुनिया में अब तक कहीं भी हुए चुनावों में सबसे महंगे चुनाव रहे.
सोमवार को जारी इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बीते लोकसभा चुनाव में 55,000 से 60,000 हज़ार करोड़ रुपये के बीच खर्च हुए, जिसमें 40 फीसदी उम्मीदवारों और 35 फीसदी राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किया गया.
रिपोर्ट के अनुसार, 2019 के आम चुनाव में औसतन प्रत्येक लोकसभा सीट पर सौ करोड़ रुपये के करीब खर्चे गए, कुल मिलाकर एक वोट पर लगभग 700 रुपये व्यय हुए.
सीएमएस की यह रिपोर्ट सेकेंडरी डाटा, मतदाताओं से बातचीत, ख़बरों और बीते सालों के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है. रिपोर्ट के मुताबिक 2019 में मतदाताओं की संख्या 90.2 करोड़ बढ़ी, वहीं पोलिंग बूथ की संख्या 10 लाख से कुछ अधिक की बढ़त हुई. हालांकि इसके बावजूद कुल मत प्रतिशत में बहुत कम बढ़ोतरी देखी गई.
इसके साथ ही चुनाव अभियान के दौरान जब्त हुई नकदी, शराब, सोने आदि में भी बढ़त देखी गई, 2014 लोकसभा चुनाव की तुलना में 2019 में जब्त हुई संपत्ति/शराब आदि का मूल्य दोगुना रहा.
चुनाव आयोग के मुताबिक, 19 मई 2019 तक कुल 3500 करोड़ को नकदी/सामान जब्त हुए, जिसमें 13,000 करोड़ रुपये की ड्रग्स, 839 करोड़ रुपये की नकदी, 294 करोड़ रुपये की शराब, 986 करोड़ रुपये का सोना-चांदी और 58 करोड़ रुपये के अन्य सामान शामिल थे.
रिपोर्ट के अनुसार, आम चुनाव के कुल खर्च में सीधे मतदाताओं को 12-15 हज़ार करोड़ रुपये दिए गए, वहीं चुनाव प्रचार पर 20-से 25 हज़ार करोड़ रुपये खर्च हुए, जो कुल व्यय का 35 फीसदी था. लॉजिस्टिक्स और औपचारिक मदों पर हुआ खर्च क्रमशः 5-6 करोड़ और 15-20 करोड़ रुपये का रहा.
वोट देने के लिए मतदाताओं को लुभाने के लिए पैसे देने का चलन पुराना रहा है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 10 से 12 प्रतिशत मतदाताओं ने स्वीकारा कि उन्हें सीधे नकद दिया गया, वहीं दो-तिहाई का कहना था कि उनके आस-पास के कई लोगों को वोट के बदले पैसे मिले।
पैसों के अलावा विभिन्न तरह की योजनाओं और वादों से भी मतदाताओं को लुभाया जाता रहा है. 10 फीसदी मतदाताओं ने यह माना कि उनके प्रत्याशी ने सत्ता में वापस आने पर उन्हें नौकरी देने का वादा किया।
रिपोर्ट ने 2019 आम चुनाव को एक अलग स्वरूप में ‘ऐतिहासिक’ बताते हुए कहा है कि यह ऐसा चुनाव था जहां चुनावी फंडिंग का बड़ा स्रोत कॉरपोरेट था और इस प्रक्रिया में पारदर्शिता के नाम पर गोपनीयता को बढ़ावा दिया गया.
इस रिपोर्ट के मुताबिक बीते 20 सालों में 6 लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें खर्च का आंकड़ा छह गुना बढ़ा है. 1998 के लोकसभा चुनाव में जहां 9,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 55,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया.
रिपोर्ट में बताया गया है कि चुनावी खर्च में बाकी दलों की तुलना में सत्तारूढ़ दल सबसे आगे रहे हैं. जहां 1998 में भाजपा ने कुल व्यय का 20 फीसदी खर्चा था, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 45 से 55 फीसदी के बीच का है. 2009 में कांग्रेस ने जहां कुल खर्च का 40 प्रतिशत खर्च किया था, 2019 में यह 15-20 फीसदी रहा.
बता दें कि चुनाव आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को दी गयी खर्च की सीमा 10-12 करोड़ रुपये थी. 11 अप्रैल से 19 मई तक सात चरणों में हुए लोकसभा चुनाव की घोषणा मार्च में हुई थी, जिसके बाद मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने कहा था कि धन के दुरुपयोग के चलते स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराना भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रहेगा.
हालांकि उनका यह भी कहना था कि चुनाव आयोग इससे निपटने के लिए प्रतिबद्ध है और उसने उम्मीदवारों एवं राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में खर्च की गई राशि पर नज़र रखने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए हैं.