कार्यकर्ताओं के वकीलों का कहना है कि पुलिस की ओर से गिरफ़्तारी के बाद से ही मामले को लटकाने और बचाव पक्ष के जानकारियों तक पहुंचने के हर प्रयास को विफल करने की कोशिश की जा रही है.
मुंबई: बीते साल 6 जून को पुणे पुलिस ने माओवादियों से जुड़ाव का आरोप लगाते हुए तीन अलग-अलग शहरों से पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया था और जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा का ज़िम्मेदार बताया था.
पुलिस का यह भी कहना था कि वे नक्सल गतिविधियों में संलिप्त थे. यह गिरफ्तारियां मुंबई, नागपुर और दिल्ली में हुई थीं. गिरफ्तार किए जाने वालों में सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक पत्रिका विद्रोही के संपादक सुधीर धावले, मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गाडलिंग, सामाजिक कार्यकर्ता महेश राउत, नागपुर यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर शोमा सेन और दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता रोना विल्सन थे.
जून में हुई इन गिरफ्तारियों के बाद अगस्त में अन्य पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया. इन कार्यकर्ताओं में मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील सुधा भारद्वाज, सामाजिक कार्यकर्ता वेरनॉन गोंजाल्विस, पी वरावरा राव, अरुण फरेरा और पत्रकार गौतम नवलखा शामिल थे.
पुलिस का दावा था कि उनके पास सबूत हैं जो दिखाते हैं कि भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा भड़काने में इन कार्यकर्ताओं का हाथ था. लेकिन इन गिरफ्तारियों के एक साल बाद पुलिस की तत्परता कम होती दिखती है. 62 सुनवाइयों के बाद आरोपियों को उनकी जमानत याचिकाओं पर फैसले का इंतज़ार है.
जून में हुई गिरफ़्तारी के फ़ौरन बाद ही कार्यकर्ताओं द्वारा पुणे सेशन कोर्ट में जमानत की अर्जी डाली गयी थी. बचाव पक्ष के वकील निहाल सिंह राठौड़ बताते हैं, ‘मामले की चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही, केवल पुलिस के आरोपों के आधार पर अदालत में जमानत की अर्जी लगा दी गई थी. तब से इन अर्जियों पर कम से कम 60 बार सुनवाई हो चुकी है, लेकिन इन पर फैसला नहीं लिया गया.’
इन सभी लोगों पर गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून [यूएपीए- Unlawful Activities Prevention Act] की धाराएं लगाई गई हैं.
चार्जशीट
बीते साल नवंबर में पुलिस ने 5,000 पन्नों की चार्जशीट दायर की थी, जिसमें दावा किया गया था कि जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनके प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से ‘सक्रिय संबंध’ हैं और उसकी मदद से 31 दिसंबर 2017 को पुणे में भीमा कोरेगांव शौर्य दिन प्रेरणा अभियान के बैनर तले ‘एल्गार परिषद’ का आयोजन किया था.
पुलिस का कहना था कि पुणे के शनिवारवाड़ा इलाके, जो सामान्य रूप से ब्राह्मण बाहुल्य माना जाता है, में हुई इस सांस्कृतिक बैठक ने महाराष्ट्र भर के दलित युवाओं को भारतीय जनता पार्टी और ‘ब्राह्मण उन्मुख आरएसएस’ के खिलाफ भड़काया, जिसका परिणाम राज्य भर में हुई हिंसा के रूप में निकला.
उनके अनुसार एल्गार परिषद में दिए गए भाषण कथित तौर पर भड़काऊ थे और उनका उद्देश्य ‘देश के लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान’ पहुंचाना था.
इसके बाद इस साल की शुरुआत में पुलिस द्वारा एक अतिरिक्त चार्जशीट दायर की गयी, जिसमें बाद में गिरफ्तार किए गए कार्यकर्ताओं और वकीलों के अपराध में शामिल होने की बात कही गई, साथ ही माओवादी नेता गणपति को एल्गार परिषद का मास्टरमाइंड बताया गया.
पुलिस ने अपनी चार्जशीट में दावा किया था कि उनके आरोप आरोपियों के लैपटॉप और मोबाइल फोन से मिले सबूतों पर आधारित हैं. पुलिस ने इन आरोपों को अपनी चार्जशीट में भी लिखा है, लेकिन अब तक सबूतों की प्रति आरोपियों और उनके वकीलों को नहीं दी गई है.
गिरफ्तार किए गए आरोपियों को की मदद कर रहे वकील बरुन कुमार ने द वायर को बताया, ‘पुलिस का दावा है कि इन सबूतों में आरोपियों के प्रतिबंधित गतिविधियों में संलिप्त होने के साक्ष्य हैं, लेकिन अदालत में कई अर्जियों और आग्रह के बावजूद पुलिस ने ये सबूत आरोपियों को देने से इनकार कर दिया. आखिरकार 27 मई को अदालत ने आदेश दिया कि सभी इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की क्लोन कॉपी सभी को मुहैया करवाई जाये, लेकिन पुलिस ने इसके लिए भी समय मांगा है.’
लगातार की जा रही देरी
जहां एक ओर अभियोजन की तरफ से कहा गया था कि इस मामले में इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां एक बड़ी सफलता हैं और इससे शहरी इलाकों में काम कर रहे नक्सलियों के बड़े नेटवर्क का पर्दाफाश हुआ है, वहीं बचाव पक्ष के वकीलों का आरोप है कि ये गिरफ्तारियां बेबुनियाद और बदले की कार्रवाई हैं.
गिरफ़्तारी के बाद से ही पुलिस ने मामले को लटकाने और बचाव पक्ष के जानकारियों तक पहुंचने के हर प्रयास को विफल करने की कोशिश की है. गाडलिंग और फरेरा खुद वकील हैं और खुद इस मामले में पेश हो रहे हैं, लेकिन पुलिस के आरोपियों को बमुश्किल ही अदालत के समक्ष लाने से उनका अपने बचाव में पक्ष रखना एक चुनौती बन गया है.
निहाल बताते हैं, ‘कम से कम 40 बार ऐसा हुआ कि पुलिस उन्हें अदालत तक लाने में नाकाम हुई. कई बार वे आरोपियों को पेश न कर पाने की वजह एस्कॉर्ट टीम की कमी होना बताते हैं तो कभी सुरक्षा कारणों का हवाला देते हैं. गाडलिंग और फरेरा को पेश न होने देने का मतलब है कि वे अपने बचाव की बहस आगे नहीं बढ़ा सकते.’
ट्रायल कोर्ट द्वारा आरोपियों को अदालत में पेश न कर पाने को लेकर जेल प्रशासन के खिलाफ वारंट भी जारी किया गया है. बावजूद इसके यह समस्या अब भी बनी हुई है.
और समस्या केवल आरोपियों को पेश करने की नहीं है, आरोपियों को अपने मामले के लिए जरूरी क़ानूनी किताबों को पाने के लिए भी क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी है. निहाल बताते हैं, ‘पिछले साल अगस्त में अदालत ने आदेश दिया था कि आईटी एक्ट के बारे में हुई लीगल कमेंटरी (कानूनी टिप्पणियां) आरोपियों को मुहैया करवाई जाएं, लेकिन आज तक ये उपलब्ध नहीं हुईं.’
विचाराधीन कैदियों का देश की विभिन्न ओपन यूनिवर्सिटी के शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेना भी सामान्य बात है लेकिन गाडलिंग और महेश राउत ने इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) के ‘ह्यूमन राइट्स डिप्लोमा कोर्स’ में दाखिला लेना चाहा था. उनके वकील का दावा है कि उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी गई.
उन्होंने बताया, ‘इससे इनकार करने का एक अजीबोगरीब बहाना दिया गया कि सरकार पहले खुद पड़ेगी कि क्या इस कोर्स में कोई राजद्रोही सामग्री तो नहीं है.’
इसके अलावा, जब सुनवाई पूरी होने वाली थी, तब पीठासीन जज किशोर वडाने तबादला कर दिया गया और नए जज ने पिछले महीने ही पदभार संभाला है. वकीलों का दावा है कि इससे पहले से ही लटकी जमानत की सुनवाई में और देर होगी.
जहां अभियोजन द्वारा जमानत की सुनवाई में देरी की जा रही है और आरोपियों की संभावित रिहाई को टाला जा रहा है, वहीं आरोपियों ने जेल में अपने समय का सदुपयोग करना शुरू कर दिया है. जेल प्रशासन ने बताया कि गाडलिंग ने यरवडा जेल (जहां वे बंद हैं) में एक कानूनी सहायता यूनिट की शुरुआत की है.
एक वरिष्ठ जेल अधिकारी ने बताया, ‘बीते एक साल में गाडलिंग ने एक दर्जन से ज्यादा आरोपियों को बाहर निकलवाने में मदद की है. ऐसे विचाराधीन कैदी, जिनके पास अपना केस लड़ने के साधन नहीं है, कानूनी सलाह के लिए गाडलिंग के पास जा रहे हैं और वे खुद उनकी अर्जी लिखने और बहस तैयार करने में मदद कर रहे हैं.’
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