कुछ लोगों का मानना है कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार को सीबीआई से मिली क्लीनचिट ने मायावती के मन में विद्वेष का बीज डाला.
लखनऊ: जिस दिन बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव से हाथ मिलाया था, उस दिन भी यह काफी स्पष्ट था कि यह सुविधावादी मिलन ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है. लेकिन फिर भी दोनों नेताओं के रास्तों के अलग होने के पीछे कि भारतीय जनता पार्टी (या कहें नरेंद्र मोदी) का हाथ होने की संभावना को खारिज करना बचपना ही होगा.
लोकसभा चुनाव से बमुश्किल एक हफ्ते पहले जब सीबीआई ने अचानक मुलायम सिंह यादव, उनके बेटे अखिलेश यादव और बहू डिंपल को पूरे यादव खानदान के खिलाफ सालों से लटके पड़े ‘आय से ज्यादा संपत्ति मामले’ में क्लीन चिट दी, तो मायावती यह सोच कर हैरान रह गयीं कि आखिर हो क्या रहा है?
बसपा सुप्रीमो के खिलाफ भी ऐसे ही मामले लंबित हैं और देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी को खुशी-खुशी वर्षों से उनके गर्दन पर तलवार लटकाए रखने की इजाजत मिली हुई है.
कुछ लोगों का मानना है कि सरकार के पक्षपात भरे व्यवहार ने उनके मन में गांठ डालने का काम किया. इसलिए आने वाले समय में अगर आप उन पर भी चल रहे मामलों को जांचकर्ताओं द्वारा बंद किया जाता हुआ देखें, तो आप इस बात के लिए निश्चिंत रह सकते हैं कि इस राहत की कीमत उन्होंने अखिलेश से अलग होकर चुकाई है.
आखिर दो पुराने कट्टर राजनीतिक दुश्मनों के बीच समझौते की इबारत ही अविश्वास, संदेह और सबसे बढ़कर किसी भी तरह से खुद को बचाए रखने की हताशा भरी कोशिश की बुनियाद पर रखी गई थी. इस रिश्ते मजबूत करने के लिए जितना कम समय मिला, उसने इसे और ज्यादा नाजुक बनाने का काम किया.
इस तरह से दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल बिठाने के लिए जमीनी स्तर तक संदेश पहुंचाने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं मिला. यह भी कहा गया है कि मायावती और अखिलेश दोनों को जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास हो गया, जिसके कारण वे एक-दूसरे को वोट ट्रांसफर कराने के लिए अपेक्षित कड़ी मेहनत और सही दिशा में प्रयास करने में नाकाम रहे.
दोनों तरफ के चाटुकार लोग दोनों नेताओं को भविष्य के सपने दिखाने में ही मशगूल रहे. मायावती में त्रिशंकु संसद की स्थिति में प्रधानमंत्री बनने का पुराना सपना फिर से जाग गया, जिसकी भविष्यवाणी दोनों तरफ के दरबारियों ने झटपट कर दी.
अखिलेश को यह यकीन हो गया कि अगले विधानसभा चुनावों में इसी जातीय समीकरण की फसल काटकर वे 2022 में फिर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर होंगे. माना जाता है कि मायावती ने अखिलेश यादव को यह यकीन दिला दिया कि धरती की कोई भी ताकत इस जातीय समीकरण को सफल होने से नहीं रोक सकती.
लेकिन जिन लोगों ने मायावती की राजनीति को दशकों से देखा है, उन्हें यह पता था कि इस गठबंधन की असली परीक्षा 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के आने के बाद ही होगी. यह भी मानी हुई बात थी कि अगर इस गठबंधन से दोनों नेताओं के अनुमान के मुताबिक सियासी फायदा नहीं मिला, तो इसका नुकसान अखिलेश को उठाना पड़ेगा.
2018 में उत्तर प्रदेश में एक साथ हुए लोकसभा के तीन और विधानसभा के एक उपचुनाव में मिली आश्चर्यजनक जीत से पैदा हुए उत्साह ने औपचारिक गठबंधन के विचार को बल देने का काम किया. इसके ठीक बाद इन तीनों में सबसे छोटी सहयोगी-राष्ट्रीय लोकदल ने भी इसमें शामिल होकर ‘महागठबंधन’ को मूर्त रूप देने का काम किया.
और आज की स्थिति बिल्कुल अलग है. यह दावा करने के बावजूद कि उन्होंने अभी भी अपने सारे विकल्प खुले रहे हैं, मायावती ने सपा प्रमुख पर हमला करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
उन्होंने न सिर्फ अखिलेश की नेतृत्व क्षमता सवाल उठाया, बल्कि उनकी संगठनात्मक क्षमता पर भी उंगली उठाई, जो यह दिखाता है कि एक राजनीतिक रणनीतिकार के तौर पर वे अखिलेश को कितना गया-गुजरा मानती हैं.
मंगलवार को हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायावती ने कहा, ‘इसे ब्रेकअप मत समझिए..अगर बाद में हम यह पाते हैं कि सपा प्रमुख पार्टी के भीतर चीजों में सुधार लाने में कामयाब रहे हैं, तो हम साथ में काम करने के लिए फिर से हाथ मिला लेंगे. लेकिन अगर वे इसमें कामयाब नहीं होते हैं, तो हमारे लिए अलग-अलग लड़ना ही अच्छा होगा. यही कारण है कि हमने उत्तर प्रदेश में 11 सीटों के लिए होनेवाले उपचुनावों में अकेले ही उतरने का फैसला किया है.’
दिलचस्प बात यह है कि बसपा सुप्रीमो ने खासतौर पर इस बात पर जोर दिया कि अखिलेश के साथ उनके निजी संबंध अच्छे बने रहेंगे.
साथ ही उन्होंने यह भी कहा, ‘मैं लोकसभा चुनावों के परिणामों के नतीजों को नजरअंदाज नहीं कर सकती हूं, जो साफ तौर पर इस बात को दिखाता है कि अखिलेश अपनी पार्टी के वोट बैंक पर नियंत्रण रखने में सक्षम साबित नहीं हुए, जिसके कारण हम यह फैसला लेने पर मजबूर हुए हैं.’
सहयोगियों से पल्ला झाड़ लेने के उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए लोकसभा चुनाव नतीजों के आने के एक पखवाड़े के भीतर ऐसे बयानों का आना कोई हैरानी की बात नहीं है. पिछले ढाई दशकों में वे भाजपा के साथ तीन बार और सपा के साथ एक बार ऐसा कर चुकी हैं.
इस बार अंतर बस इतना है कि पहले के उलट जब वे अपने छोड़े गए राजनीतिक सहयोगी पर हर दिशा से हमला करती थीं, इस बार उन्होंने खुद को सिर्फ अखिलेश पर हमला करने तक सीमित रखा. अपने खुद के ही मानक से इस बार काफी मृदु रही हैं.
शायद वे अखिलेश द्वारा तीखे जवाबी हमले का इंतजार कर रही थीं. लेकिन अखिलेश के ऐसे किसी उकसावे में न आने के कारण मायावती भी संयमित रही हैं.
गठबंधन से बाहर निकलने का उनका यह फैसला चतुराई भरा हो या रणनीतिक, लेकिन सपा में उनके आलोचक मायावती की घोषणा को उनकी ‘उपयोग करो और फेंको’ की नीति के ही एक और उदाहरण के तौर पर देखेंगे. आखिर अखिलेश के साथ गठबंधन ने उन्हें लोकसभा की 10 सीटें जिताने में मदद की.
2014 में राज्य में अच्छे-खासे मत-प्रतिशत के बावजूद बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. शायद उन्हें यह लगा हो कि राजनीतिक रूप से नौसिखिए अखिलेश आनेवाले वर्षों में उनकी पार्टी के लिए किसी काम के नहीं हैं. इसलिए उन्होंने गठबंधन से बाहर निकलने का ऐलान करने में देरी नहीं की.
आने वाले समय में उन्होंने अगर नए सिरे से गठबंधन बनाने को लेकर अपने विकल्प खुले रखने का संकेत दिया है, तो सिर्फ इसलिए कि वे आने वाले उपचुनावों में अपनी शक्ति आजमा लेना चाहती हैं.
यह महज संयोग हो सकता है कि 24 साल पहले मायावती ने अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव को भी धोखा दिया था, जिनकी सरकार को बसपा 1994-95 में समर्थन दे रही थी. उस समय भी जून के महीने में जब मुलायम सिंह यादव लखनऊ में एक होटल में अपने विधायकों की बैठक कर रहे थे, मायावती ने अचानक समर्थन वापसी की घोषणा करके सबको हैरान कर दिया था.
इतिहास ने इस बार खुद को दोहराया है. 3 जून को अखिलेश आजमगढ़ में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक कर रहे थे जब मायावती ने सपा के साथ अलग होने के अपने फैसले की घोषणा की.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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