2014 के बाद से बिना किसी प्रमाण के देश के मुसलमानों को हिंदू-विरोधी और धार्मिक रूप से कट्टरपंथी बताया जा रहा है. लेकिन डर है कि अगले पांच सालों में उनमें से कुछ ऐसे चुनाव कर सकते हैं, जो उनके समुदाय के बारे में गढ़े गए झूठ को वास्तविकता में बदल देंगे.
1948 में अमेरिकी समाजशास्त्री रॉबर्ट के. मेर्टन ने खुद से पूरी होनेवाली भविष्यवाणियों (Self-fulfilling prophecy) का विचार सामने रखा था. यह वह चश्मा है, जिससे अगले पांच वर्षों तक नरेंद्र मोदी के शासन में जीने के मुस्लिम समुदाय की आशंकाओं को देखे जाने की जरूरत है.
मेर्टन ने लिखा था, ‘शुरू में ऐसी भविष्यवाणी हालात की गलत परिभाषा (एक किस्म का फैलाया गया झूठ) होती है, लेकिन ये एक ऐसे नए व्यवहार को जन्म देती है, जिसके कारण झूठा विचार भी सच साबित हो जाता है.’
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के पहले कार्यकाल में बिना किसी सबूत के भारत के मुसलमानों पर हिंदू-विरोधी और धार्मिक रूप से कट्टरपंथी का लेबल लगाया गया. अब उनको डर है कि उनमें से कुछ ऐसे चुनाव कर सकते हैं, जो उनके समुदाय की ‘झूठी परिभाषा’ या फैलाए गए झूठ को वास्तविकता में बदल देंगे.
इस तरह से यह भारत को मेर्टन के मॉडल के दूसरे चरण में लेकर चला जाएगा. उनका कहना था, ‘खुद से पूरा होनेवाली भविष्यवाणियों की यह आभासी वैधता, गफलत के माहौल को मजबूत करने का काम करती है. सामाजिक तर्क की विकृतियां कुछ ऐसी हैं कि ऐसी भविष्यवाणी करने वाला घटनाओं के क्रम को इस बात के सबूत के तौर पर पेश करेगा कि वह शुरू से ही सही था.’
लेकिन भारत में उभर रहे इस ‘गफलत के माहौल’ में मुस्लिम टिप्पणीकार मुस्लिमों के सामने हाथ जोड़कर उम्मीद न छोड़ने की विनती करते रहे हैं. ऐसा करते हुए वे अवचेतन में ही सही, यह मानते हैं कि मुस्लिम समुदाय की उम्मीद एक नाजुक डोर से बंधी हुई है.
यह समझ में आने वाला है. पिछले पांच वर्षों में 44 मुसलमानों की गाय के नाम पर लिंचिंग (पीट-पीट कर हत्या) कर दी गई, अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान किया गया, धार्मिक अल्पसंख्यकों को फिर से हिंदू धर्म अपनाने की धमकी दी गई, मुस्लिम शासकों को शैतान के रूप में पेश करने के लिए इतिहास की किताबों का पुनर्लेखन किया गया और किसी तरह के मुस्लिम अतीत को पोंछ डालने के लिए शहरों का नाम बदला गया.
सिर्फ इतना ही नहीं, भारतीय नागरिकता के धर्मनिरपेक्ष आधार को फिर से परिभाषित करने की कोशिश की गई, जिसका सबूत नागरिकता संशोधन विधेयक है. मुसलमानों को अन्य के तौर पर पेश करने की कोशिश रोज की बात हो गई.
इसे भारत के सामान्य मुसलमानों के धैर्य का सबूत कहा जा सकता है कि वे खुले उकसावे के जवाब में सड़कों पर नहीं उतरे. शायद हिंदुत्व की ओर लगातार बढ़ते सरकार की कठोर जवाबी कार्रवाई की आशंका ने उन्हें पत्थर बना दिया है. या शायद उन्हें यह उम्मीद थी कि वे हिंदुत्व के विरोधी हिंदुओं के साथ मिलकर भाजपा को 2019 में सत्ता से बाहर कर देंगे.
मोदी की प्रचंड जीत के बाद क्या?
मुसलमानों की यह उम्मीद सिर्फ इस कारण नहीं टूट गयी है कि मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन गए हैं, बल्कि इसलिए कि उनको प्रचंड जीत मिली है. उनकी नीतियों के कारण लोगों को भले परेशानियां झेलनी पड़ी हों, लेकिन भाजपा ने 2014 की तुलना में इस बार अपनी सीटों की संख्या को 282 से बढ़ाकर 303 कर लिया है और उसका मत प्रतिशत 31 प्रतिशत से बढ़कर 37.5 प्रतिशत हो गया है.
इन आंकड़ों को व्यापक तौर पर हिंदुओ के एक बड़े तबके के बीच हिंदुत्व के बढ़ते आकर्षण के सबूत के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है, जिसकी बुनियाद मुसलमानों का डर दिखाकर बहुसंख्यक समुदाय को लामबंद करने पर टिकी है.
यही वजह है कि मुसलमानों की उम्मीद भविष्य को लेकर आशंका में तब्दील हो गई है. अगले कुछ विधानसभा चुनावों को जीतने के लिए जब मोदी और भाजपा ध्रुवीकरण का सहारा लेंगे, तो यह भावना और मजबूत होगी.
इसके अलावा मोदी के पहले कार्यकाल से विरासत के तौर पर कई विवादास्पद मुद्दे- मसलन, अयोध्या विवाद, तीन तलाक का अपराधीकरण और असम में नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर- लंबित ही पड़े हैं.
ऐसा शायद ही कोई संकेत है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि भाजपा की प्रचंड जीत ने उन हिंदुओं का तुष्टीकरण कर दिया है, जो मुसलमानों के प्रति अतार्किक शिकायतें रखते हैं, जो ऐतिहासिक भी हैं और समकालीन भी.
जिस सप्ताह चुनाव नतीजों की घोषणा की गई, उसमें हिंदुत्व के नाम पर दबंगई करनेवालों द्वारा मुस्लिमों को लेकर उनकी स्याह कल्पनाओं को साकार करने की कई घटनाएं मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार में देखने को मिलीं.
भविष्य में ऐसी सभी कार्रवाइयों को अतीत की तरह की मुस्लिमों को लेकर गढ़ी गयी गलत परिभाषा- कि वे हिंदुओं के प्रति अनादर का भाव रखते हैं, उनकी समझ से परे धार्मिकता और उनका कट्टरवाद, उनके अंदर की देश के प्रति जन्मजात गैर-वफादारी, हिंसा के प्रति उनके रुझान- के आधार पर जायज ठहराया जाएगा.
ये कार्रवाइयां मुस्लिमों में डर की भावना भरने का काम करेंगी, जो इसका सामना करने के रास्तों की तलाश करेंगे. मुस्लिमों की ऐसी गलत परिभाषा से उपजने वाली प्रतिक्रिया कुछ मुस्लिमों को, जैसा कि मेर्टन ने भविष्यवाणी की थी, नए व्यवहार को अपनाने के लिए प्रेरित करेगी.
विदेशों में शरण की तलाश
मुस्लिमों के छोटे से मध्यवर्ग से वास्ता रखने वाले कई लोग विदेशों की ओर रुख करने के विकल्प की तलाश करेंगे. मध्य-पूर्व में काम करने वाले कई लोग, चूंकि वहां बाहर से आने वालों को नागरिकता नहीं मिलती, पश्चिम की ओर- मिसाल के लिए कनाडा की ओर कदम बढ़ाएंगे.
कुछ हड़बड़ाहट वाली प्रतिक्रियाएं भी होंगी, जैसे कि एक दोस्त की दोस्त, जिसकी शादी किसी हिंदू से हुई है, भाजपा की जीत के बाद के हालात के मद्देनजर मुस्लिमपन के सारे सुराग को मिटाने के लिए अपने बच्चे का नाम बदलने का विचार कर रही है.
हालांकि, ज्यादातर मध्यवर्गीय मुसलमान अपने कॉस्मोपॉलिटन बुलबुले की ओट में खुद को छिपाना चाहेंगे, लेकिन वे खुद को हिंदुत्ववादी शक्तियों द्वारा उनके समुदाय को एक तयशुदा सांचे में डालकर देखे जाने का मुकाबला करने वाले उनके दोस्तों द्वारा गाहे-बगाहे असहज स्थिति में पाएंगे.
लेकिन फिर भी प्रतिक्रियाओं की समानता वर्गों और जतियों के परे मुस्लिमों को एकजुट करने का काम करेगी. पहले के किसी भी समय से ज्यादा अब मुस्लिम उनसे छीनी गई नौकरी या पदोन्नति से वंचित किए जाने या छंटनी के लिए उस सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल को दोषी ठहराएंगे, जिसे हिंदुत्व के बढ़ते वर्चस्व द्वारा बढ़ावा दिया गया है. उनके लिए अपने बच्चों को यह समझाना मुश्किल होगा कि उनकी तरफ नफरत से क्यों देखा जाता है.
मुस्लिमों की झूठी परिभाषा के कारण अस्तित्व में आए व्यवहार के नए रूप खुद को दूसरे रूपों में भी प्रकट करेंगे- भाजपा को मिला प्रचंड जनादेश समुदाय के उन सभी नेताओं को मजबूत करेगा, जो मुस्लिमों को उनके और औरों के बीच मौजूद दरार के बारे में बताने से नहीं थकते हैं.
कई मुस्लिम अंदर की तरफ, अपने मजहब और संस्थाओं की तरफ देखने के लिए प्रेरित होंगे. कुछ अपने असंतोष के कारण अभिव्यक्ति का कोई दूसरा रास्ता खोजने के लिए बाध्य होंगे; उन पर मजहबी कट्टरपंथीकरण, एक ऐसी राजनीति जो पहचान पर और और हिंदुत्व के झगड़ालू झंडाबरदारों के जुबानी हमलों का का जवाब देने पर टिकी हो, का रंग चढ़ने का खतरा लगातार बढ़ता जाएगा.
कुछ लोग अपनी ताकत और निडरता के सांकेतिक प्रदर्शन के लिए पहचान के चिह्नों का प्रदर्शन करेंगे. मेर्टन के खुद से पूरा होने वाली- भविष्यवाणी किस तरह से काम करती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण बिहार के आरा में रहने वाले एक रिश्तेदार के कॉलेज के दिनों की कहानी है.
1980 और 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में भारत जब भी पाकिस्तान को हराता था, उसके हिंदू सहपाठी उसे यह कहकर चिढ़ाने की कोशिश करते थे कि ‘तुम इतने उदास क्यों हो? अगली बार किस्मत आजमाना.’
जब पाकिस्तान भारत को हरा देता था, तो वे पूछते थे कि क्या उन्होंने पटाखे फोड़े और मिठाइयां बांटी? उनके ऐसा कुछ करने से इनकार को सीधे खारिज कर दिया जाता था. उस रिश्तेदार ने कहा कि उन तानों के कारण उसके कुछ मुसलमान दोस्त तब तक पाकिस्तान का समर्थन करते रहे जब तक वे कॉलेज से निकल नहीं गए.
टूटती नहीं बने-बनाए पुराने पूर्वाग्रह
निश्चित तौर पर मुस्लिमों को हिंदुओं के कट्टर और बेरहम विरोधी होने के एक स्टीरियोटाइप सांचे में डाल कर देखने की प्रवृत्ति राष्ट्रीय आंदोलन जितनी ही पुरानी है. लेकिन फिर भी खुद से पूरा होने वाली भविष्यवाणी ने कभी भी ऐसा डरावनी सूरत अख्तियार नहीं की थी जैसा कि 2014 के बाद हुआ है.
इसका कारण यह है कि हमारे बीच ऐसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय नेता थे, जिन्होंने हालात की ‘गलत परिभाषा’ को चुनौती दी. महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया. जवाहर लाल नेहरू ने भी भारत के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर इसका विरोध सरकारी नीतियों द्वारा किया. उसके बाद के नेताओं ने भी नेहरूवादी परंपरा को जीवित रखा.
लेकिन मुस्लिमों की गलत परिभाषा ने पिछले पांच सालों में गहरी जड़ें जमा ली हैं, क्योंकि इसे सत्ताधारी दल का समर्थन हासिल है. इसलिए मीडिया ने शायद थोड़ी सी राहत की सांस लेते हुए राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नवनिर्वाचित सांसदों से मोदी ने जो कहा, उसे सुर्खियों में जगह दी, ‘देश में अल्पसंख्यकों को वोट बैंक की राजनीति के लिए खड़े किए गए काल्पनिक डर के द्वारा ठगा गया है. हमें इस धोखे को तोड़ना है. हमें भरोसा जीतना है.’
इस तथ्य को देखते हुए कि प्रधानमंत्री ने हर विधानसभा चुनाव और हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव के दौरान सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल किया है, उनके द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों के डर को काल्पनिक करार देना, परेशान करने वाला है. ऐसे में जब उन्हें उनके डर की प्रामाणिकता से भी वंचित कर दिया गया है, तब मुसलमान, मेर्टन के शब्दों में कहें तो, ‘सामाजिक तर्क के विपरीत जाने वाले’ फंदे में फंस सकते हैं.
लेखक पत्रकार हैं.
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