संपादकीय: अभिव्यक्ति पर अंकुश

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए हुई गिरफ़्तारियां विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा आम लोगों की आवाज़ दबाने के लिए क़ानून के दुरुपयोग के पैटर्न का ही हिस्सा है.

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(फोटो: द वायर)

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाफ़ कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए हुई गिरफ़्तारियां विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा आम लोगों की आवाज़ दबाने के लिए क़ानून के दुरुपयोग के पैटर्न का ही हिस्सा है.

फोटो: द वायर
फोटो: द वायर

प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, कर्नाटक तक में सोशल मीडिया पर लोगों की आवाज को दबाने के लिए कानून के विभिन्न प्रावधानों के दुरुपयोग के एक जाने-पहचाने पैटर्न के अनुरूप ही है.

इस मामले में और इससे ही जुड़ी इशिका सिंह और अनुज शुक्ला की गिरफ्तारी में पुलिसिया कार्रवाई इसलिए खासतौर पर दुर्भावनापूर्ण है, क्योंकि यहां पत्रकारों को एक ऐसी खबर को कवर करने और उस पर टिप्पणी करने के लिए प्रताड़ित किया जा रहा है, जिसने एक ताकतवर राजनेता को नाराज कर दिया.

इस मामले के तथ्य बिलकुल साफ़ हैं. पिछले हफ्ते एक महिला ने संवाददाताओं के एक दल के सामने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए अपने प्रेम का इजहार किया था. उसने यह दावा किया कि वह एक साल से ज्यादा समय से उनके साथ वीडियो चैटिंग कर रही है और उसने यह इशारा किया कि उनके मन में भी उसके प्रति ऐसी ही भावना है.

इन दावों को नेशन लाइव के साथ-साथ कम से कम दो हिंदी अखबरों ने जगह दी. कनौजिया ने एक मज़ाकिया लहजे में उस महिला के बयान के लिंक को ट्वीट किया, ‘इश्क छिपता नहीं छिपाने से योगी जी.’ कनौजिया का यह ट्वीट वायरल हो गया और ऐसा लगता है इसने किसी की दुखती रग पर हाथ रख दिया.

उनको गिरफ्तार करने के आदेश दे दिए गए, लेकिन किसी ने पुलिस को यह जानकारी देने की जहमत नहीं उठाई कि भारत के संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के दायरे में व्यंग्य और मजाक भी आते हैं और कानून का कोई भी प्रावधान उन्हें हिरासत में लेने की इजाज़त नहीं देता है.

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इस तरह से पुलिस ने एक एफआईआर के आधार पर कनौजिया को गिरफ्तार करने के लिए राज्य की सीमारेखा को पार करने से भी गुरेज नहीं किया, जबकि एफआईआर में जिन दो प्रावधानों को आधार बनाया गया- एक सूचना-तकनीक (आईटी) अधिनियम की धारा 66 (जो कंप्यूटर सिस्टम की हैकिंग से जुड़ा है) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 500 (जो आपराधिक अवमानना से संबद्ध है) वे किसी भी तरह से गिरफ्तारी का कोई आधार मुहैया नहीं कराते थे.

बाद में पुलिस ने दो अतिरिक्त आरोप और जड़ दिए: आईटी अधिनियम की धारा 67 जो कि अश्लील और कामुक सामग्री के इलेक्ट्रॉनिक प्रसार से संबंधित है, और आईपीसी की धारा 505 जो हिंसा और रंजिश को भड़काने के लिए अफवाहों के फैलाने से जुड़ा है. जबकि इनमें से भी कोई धारा कनौजिया के ट्वीट पर लागू नहीं होती है.

अपनी निजी जिंदगी को लेकर सार्वजनिक चर्चा के कारण आदित्यनाथ का व्यथित होना समझ में आने वाला है, खासकर तब अगर उस महिला द्वारा किए गए दावे झूठे हैं. मीडिया में आई कुछ खबरों में उसकी दिमागी सेहत के ठीक न होने की ओर भी इशारा किया गया है.

हालांकि, यह कहना बाल की खाल निकालने जैसा है कि उस महिला ने- या उसके दावों को जगह देने वालों ने उनकी मानहानि की है, लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास एक नागरिक मानहानि का या यहां तक कि एक आपराधिक मानहानि का मुकदमा करते हुए इस ‘प्रेम कहानी’ पर आगे किसी तरह की रिपोर्टिंग पर रोक लगाने की दरख्वास्त करने का विकल्प था.

लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसकी बजाय उन्होंने राज्य के मुखिया की अपनी कुर्सी का दुरुपयोग करते हुए पुलिस से हास्यास्पद ढंग से गढ़े गए आरोपों के आधार पर कनौजिया और दो अन्य लोगों को गिरफ्तार करवा दिया.

ऐसा करते हुए उत्तर प्रदेश की पुलिस ने सभी पत्रकारों और साधारण जनता को एक चेतावनी देने का काम किया है: अगर आप मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसा कुछ लिखते हैं या बोलते हैं, जो उन्हें आपत्तिजनक लगता है, तो जेल जाने के लिए तैयार रहिए.

ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि दूसरे राज्यों के भी मुख्यमंत्री- मसलन कर्नाटक में कुमारस्वामी– ऐसी आवाजों के साथ इसी तरह से पेश आते रहे हैं. पश्चिम बंगाल में पिछले महीने पुलिस ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ एक मीम साझा करने के लिए एक महिला को जेल में बंद कर दिया.

ओडिशा में एक प्राचीन स्मारक पर एक मजाकिया टिप्पणी के चलते एक विश्लेषक को दो सप्ताह जेल में बिताना पड़ा. अगर इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो यह महामारी भारत में प्रेस की आजादी और बोलने की आजादी का गला घोंट देगी.

प्रशांत कनौजिया को न सिर्फ तत्काल रिहा किया जाना चाहिए था, बल्कि उनके खिलाफ झूठे आरोपों को वापस लिए जाना चाहिए, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय को ऐसे कदमों पर भी विचार करना चाहिए जो कानून के ऐसे दुरुपयोग पर रोक लगाने का काम करे.

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