मुसलमानों के एक तबके में भाजपा को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन भाजपा की तरफ़ से ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है कि मुसलमानों के लिए कुछ किया हो.
हाल में भुवनेश्वर में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों को लेकर दो बड़ी बातें कहीं. पहली, प्रधानमंत्री ने कहा कि तीन तलाक से मुस्लिम बहनें परेशान हैं. उनके लिए ज़िला स्तर पर समाधान होना चाहिए. दूसरी, उन्होंने कहा कि अब मुस्लिम समुदाय की पिछड़ी जातियों तक पहुंचने की ज़रूरत है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान पर चर्चा करने से पहले हाल में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की रणनीति पर नज़र डाल लेते हैं. राज्य की कुल आबादी में 18 प्रतिशत मुसलमान होने के बावजूद पार्टी ने एक भी मुस्लिम को चुनाव में टिकट नहीं दिया.
राज्य में बड़ी जीत के बाद कट्टर हिंदूवादी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने और उनके मंत्रिमंडल में एक सिर्फ़ एक मुस्लिम चेहरा है.
विधानसभा चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इन बयानों से कुछ सवाल उठ रहे हैं.
क्या भाजपा ने मुसलमानों को लेकर अपनी नीति में बदलाव कर लिया है? क्या वाकई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा को मुस्लिम महिलाओं की फ़िक्र है? क्या प्रधानमंत्री सचमुच चाहते हैं कि केंद्रीय योजनाओं को लाभ पिछड़े मुसलमानों तक पहुंचे?
ये सवाल इसलिए ज़रूरी हैं क्योंकि कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा को वोट दिया था.
यानी भाजपा को मुस्लिम महिलाओं और पिछड़े मुसलमानों के रूप में ऐसा वोट बैंक दिखाई दे रहा है जो आज तक कभी उनके साथ नहीं रहा है. नरेंद्र मोदी और भाजपा इसी को साधने की कोशिश कर रहे हैं.
इससे भाजपा को दोहरा फ़ायदा है. एक तो वह विपक्षी दलों को एकमुश्त मिलने वाले वोटबैंक में सेंध लगाकर उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं तो दूसरी ओर यह एक ऐसे वोटबैंक को टुकड़ों में तोड़ने की कोशिश है जिसके बारे में कहा जाता था कि वह एक समूह के रूप में वोट करता था. यानी लंबे समय तक इसका फ़ायदा मिलता रहे.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा को लगता है कि वह बिना मुसलमान वोटों के चुनाव आसानी से जीत सकते हैं. उन्होंने हिंदू वोट बना लिया है, उनका आत्मविश्वास बढ़ गया है. ऐसे में अब उन्हें मुसलमानों के एक ख़ास तबके की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाने में ख़ास ऐतराज़ नहीं है. यह काम वे इस दृष्टिकोण से कर रहे हैं कि मुसलमानों की जो एकता है उसे तोड़ा जा सके. इसके लिए वे पिछड़े मुसलमानों और स्त्रियों की तरफ़ हाथ बढ़ रहे हैं. ऐसे में अगड़े मुसलमानों की पकड़ टूटेगी.’
भुवनेश्वर में मिले इस मंत्र को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता शाबिर अली के प्रयासों से दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भारतीय मुस्लिम पिछड़ा वर्ग महासम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें दिल्ली के अलावा उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान व बिहार से पिछड़े समाज के लोग जुटे.
इस सम्मेलन में केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी भी नज़र आए. ग़ौरतलब है कि दो साल पहले जदयू छोड़कर भाजपा में आए साबिर का मुख़्तार अब्बास नक़वी ने काफ़ी विरोध किया था.
इस सम्मेलन में नक़वी ने दावा किया कि मोमिन, दर्जी, लोहार, हलवाई, मेव, समेत कुल 84 जातियां हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री संवैधानिक लाभ देना चाहते हैं. साथ ही कहा गया कि लखनऊ से लेकर पटना के गांधी मैदान तक इस तरह के सम्मेलन आयोजित कर पिछड़ा मुस्लिम वर्ग को जागरूक किया जाएगा.
यानी जहां एक तरफ़ भाजपा ज़ोर-शोर से तीन तलाक का मसला उठा रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ मुसलमानों को अगड़ों और पिछड़ों में बांटने की पूरी तैयारी है.
अगर हम ग़ौर से देखें तो अब से पहले तक भाजपा के लगभग सभी नेता मुसलमानों के पिछड़ेपन और उपेक्षा से जुड़े सवालों से हमेशा बचते रहे हैं. इस सवाल को टालने के लिए वो ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा बुलंद करते नज़र आए हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर असमर बेग कहते हैं,’ यह बात थोड़ा कम व्यवहारिक लगती है कि कोई पार्टी मुसलमानों के विरोध में काम करती नज़र आए और पिछड़े मुसलमान व महिलाओं की हितैषी बन जाए. आख़िर पिछड़े मुसलमान और महिलाएं उसी मुस्लिम समाज का ही हिस्सा हैं. दूसरी बात जब आप सबके साथ सबके विकास का नारा देते हैं और कहते हैं बाक़ी सारी पार्टियां बांटने वाली राजनीति करके मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करती हैं तब आप सिर्फ़ मुस्लिम महिला और मुस्लिम पिछड़ों का राग क्यों अलाप रहे हैं. इस देश में सभी पिछड़ों और सभी महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा हैं. आपको सबके बारे में समान रूप से बात करनी चाहिए. अगर आप नहीं कर रहे हैं तो लगता है कि आप जो बोल रहे हैं और जो सोच रहे हैं उसमें फ़र्क़ है.’
हालांकि मुस्लिम वोट बैंक पर भाजपा की नज़र यकायक नहीं गई है. भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसकी तैयारी काफ़ी पहले, लगभग डेढ़ दशक पहले से करनी शुरू कर दी थी.
जब इससे पहले भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी थी तब 2002 में आरएसएस के भूतपूर्व सरसंघचालक केसी सुदर्शन की प्रेरणा से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नाम के एक संगठन की नींव रखी गई थी. आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार को मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का संरक्षक और मार्गदर्शक बनाया गया.
हालांकि, संघ ने कभी इसे अपना संगठन नहीं माना लेकिन इस मंच ने कभी इसका बुरा नहीं माना. इस मंच की वेबसाइट के अनुसार यह संघ और मुस्लिमों के बीच दूरी को पाटने का काम कर रहा है. मंच की कोशिश है कि मुसलमानों के आइकान ऐसे राष्ट्रवादी हों जिनके चेहरे को सामने रखकर मुसलमानों को भटकने से रोका जा सके.
हाल ही में उत्तराखंड के रूड़की में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने एक सम्मेलन किया जिसमें देश भर से क़रीब 300 मौलाना और इस्लामी विद्वान इकट्ठा हुए. अगर हम मंच के दावे पर यक़ीन करें तो हमें मुसलमानों को लेकर भाजपा की तैयारी समझ में आ जाएगी.
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का दावा है कि उसने अब तक देश के 9387 मदरसों में स्वतंत्रता दिवस से लेकर गणतंत्र दिवस के दिन तक तिरंगा फहराने से लेकर राष्ट्र गान गाने के लिए प्रेरित किया गया है.
हाल में तीन तलाक पर संघ के हस्ताक्षर अभियान का बहुत सारे मुसलमानों का समर्थन मिला है लेकिन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का दावा है कि इससे पहले आरएसएस की तरफ़ से विश्व मंगल गो-ग्राम यात्रा 2009 में निकली थी, उसमें भी मंच के प्रयासों के चलते 12 लाख से अधिक मुसलमानों ने हस्ताक्षर किया था.
मुसलमान, संघ और भाजपा को लेकर इस तरह के ढेरों और दावे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की तरफ़ से किए गए हैं.
इसके अलावा यूपी चुनाव के कुछ समय पहले आरएसएस ने दावा किया कि उत्तर प्रदेश में उसके 1,200 स्कूलों में लगभग 7,000 मुस्लिम छात्र पढ़ाई कर रहे हैं.
उनका कहना था कि पिछले दो वर्षों के दौरान जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से उसके स्कूलों में मुस्लिम छात्रों की संख्या में 30 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी देखी गई है.
यानी मुसलमानों को हर तरह से साधने की साधने की कोशिश की जा रही है.
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं,’ जब भी कोई सत्ताधारी दल इस तरह के क़दम उठाता है तो उसका दोनों मक़सद होता है. एक घोषित उद्देश्य है कि जो सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय है उसके हितों के लिए सत्ता पक्ष को काम करना ही चाहिए और दूसरा ऐसा करने में अगर उसका राजनीतिक फ़ायदा मिल जाय तो कोई बुराई भी नहीं है. इसका लाभ भाजपा को यह होगा कि मुस्लिम समुदाय जो पार्टी से लंबे समय तक दूर रहा है उसके एक तबके में इनकी पहुंच बढ़ेगी. वहीं सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मुसलमानों की सत्तारूढ़ दल से नज़दीकी बढ़ेगी तो निसंदेह उन्हें भी फ़ायदा होगा.
फ़िलहाल इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, 2012 के विधानसभा चुनावों में जहां 7% मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया तो वहीं 2014 के लोकसभा चुनावों में 10% मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया. यह आंकड़ा सीएसडीएस-लोकनीति के हवाले से दिया गया. निसंदेह 2017 के चुनावों में इसमें बड़ी संख्या में बढ़ोतरी हुई है.
पूरे देश को लेकर भी सीएसडीएस-लोकनीति के आंकड़े भी ऐसी ही तस्वीर पेश करते हैं. इसकेे अनुसार, 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को देशभर में मुसलमानों के तकरीबन 9% वोट मिले थे. वहीं 2009 लोकसभा चुनाव की 6% मुसलमान वोट भाजपा को मिले थे.
अगर हम इन नतीजों पर ग़ौर करें तो यह स्पष्ट है कि मुसलमानों के एक तबके में भाजपा को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन भाजपा की तरफ़ से ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है कि मुसलमान ख़ासकर उनके पिछड़ेपन को उनके एजेंडे में जगह मिल गई हो. अभी तक भाजपा की नज़र सिर्फ़ मुसलमानों से मिलने वाले फ़ायदे पर ही है.