‘अपनी रचनाओं में स्त्रियों के लिए जो टैगोर, शरतचंद ने किया, वो अब के लेखक नहीं कर पाए हैं’

साक्षात्कारः हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और साहित्यकार ममता कालिया का कहना है कि स्त्री विमर्श के लिए हमें सिमोन द बोउआर तक पहुंचने से पहले महादेवी वर्मा को पढ़ना पड़ेगा, जिन्होंने 1934 में ही लिख दिया था कि हम स्त्री हैं. हमें न किसी पर जय चाहिए, न पराजय, हमें अपनी वह जगह चाहिए जो हमारे लिए निर्धारित है.

///

साक्षात्कारः हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और साहित्यकार ममता कालिया का कहना है कि स्त्री विमर्श के लिए हमें सिमोन द बोउआर तक पहुंचने से पहले महादेवी वर्मा को पढ़ना पड़ेगा, जिन्होंने 1934 में ही लिख दिया था कि हम स्त्री हैं. हमें न किसी पर जय चाहिए, न पराजय, हमें अपनी वह जगह चाहिए जो हमारे लिए निर्धारित है.

Mamta Kalia The Wire
ममता कालिया (फोटो: द वायर)

हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और साहित्यकार ममता कालिया बीते 60 सालों से लगातार लेखन में सक्रिय हैं. ममता ने अपनी लेखनी में हमेशा सवाल पूछती स्त्री को केंद्र में रखा है, उनकी कहानियों में हाड़-मांस की स्त्री कभी समाज की विसंगतियों से जूझती नजर आती है तो कभी बगावती सुर अख्तियार करती है. वह अपनी कहानियों में हमेशा बोलती स्त्री को तरजीह देती हैं. उनसे विभिन्न मुद्दों पर रीतू तोमर की बातचीत.

कब सोचा कि आपको लेखक बनना है? 

इसकी नींव बहुत पहले पड़ गई थी. मेरे घर में लिखने-पढ़ने का बहुत माहौल था और इसके अलावा और किसी चीज को इज्जत से नहीं देखा जाता था. मेरे पिता आकाशवाणी में थे, इस वजह से हमारे घर में कलाकारों, साहित्यकारों और संगीतकर्मियों का आना-जाना लगा रहता था. मेरे पिता कलाकारों, विशेष रूप से साहित्यकारों की बहुत इज्जत करते थे.

एक बार हमारे घर जैनेंद्र कुमार कविता पाठ करने आए थे. उन्होंने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था और वो एक ऐसा क्षण था, जब मुझे लगा कि मुझे लेखक बनना चाहिए. इसके अलावा मेरी एक कहानी ‘आपकी छोटी लड़की’ में भी मैंने लिखा है कि एक बार एक साहित्यकार हमारे घर आए थे और उन्होंने मेरे पिता से कहा कि आपकी लड़की की आवाज बहुत अच्छी है और तब तक मेरे ऊपर किसी ने ध्यान नहीं दिया था.

मेरे पिता हैरान हो गए, उन्हें लगा कि क्या ममता के अंदर भी कोई बात हो सकती है तब मुझे लगा कि मुझे अब साहित्यकार बनना है.

बतौर लेखक सफल होने की भावना क्या आपके भीतर आई है?

लेखन में सफलता की कोई भावना नहीं होती. जिस तरह से अभिनेता हिट होते हैं, उस तरह से लेखक कभी हिट नहीं होते. हम (लेखक) हमेशा विलंबित लय में चलने वाले होते हैं लेकिन हां ऐसा जरूर है कि अगर मेरे पास 15 चिट्ठियां किसी कहानी पर आ गई तो मुझे लगता था कि मेरा लिखना सार्थक हुआ, इतने लोगों ने मुझे ध्यान से पढ़ा.

ऐसे भी कई वाकये हुए हैं, जब लोग मेरी किताब पढ़ने के बाद पता ढूंढते हुए घर चले आते थे. दूसरे शहरों से लोग घर आकर मिलने आते थे.

आप हमेशा से समकालीन स्त्री के बारे में लिखती आई हैं. आपके लेखन में स्त्री विमर्श केंद्रबिंदु रहता है लेकिन जब भी हम स्त्री विमर्श की बात करते हैं तो पश्चिम की तरफ देखते हैं.

मुझे लगता है कि पिछले 20 वर्षों में हमारे देश में स्त्री विमर्श को जितना गलत समझा गया है, उतना किसी और अवधारणा को नहीं समझा गया. स्त्री विमर्श का मतलब होता है स्त्री की स्थिति और परिस्थिति पर विचार और स्त्री में परिवर्तन की प्रक्रिया की मांग लेकिन अब ये काम तो छोड़ दिया और संपादकों ने स्त्री विमर्श को एक बिकाऊ फॉर्मूला बना दिया.

क्योंकि उन्हें पश्चिम की अवधारणा ज्यादा सूट करती थी, जहां अतिवादी रूप आता है स्त्री विमर्श का, लेकिन हम उसे भी पूरी तरह से खारिज नहीं करते. हम सिमोन द बोउआर, बैटी फ्लेयर और मैरी क्रॉफ्ट को खारिज नहीं कर सकते लेकिन उन सब तक जाने के लिए हमें महादेवी वर्मा को पढ़ना पड़ेगा.

हमें जानना होगा कि हमारे यहां स्त्री विमर्श को लेकर क्या विचार हो चुका है. हमारे यहां तो 1934 में ही महादेवी वर्मा ने चांद का विदुषी अंक संपादित किया था, उसका संपादकीय लिखा था. महादेवी वर्मा के विचार बहुत जागरूक थे, उनका कहना था कि गुणों के बावजूद स्त्री संस्कारों की गठरी बन गई है.

स्त्री को जागरूक होना पड़ेगा, अपनी ताकत पहचाननी होगी तभी वह समाज में अपनी जगह पा सकती है. मैंने अपनी रचनाओं में हमेशा कोशिश की है कि मैं हमेशा सवाल पूछती स्त्री को दर्शाऊं.

आपकी रचनाओं में आपके पति रविंद्र कालिया का बहुत श्रेय रहा है. उनसे मिलना कैसे हुआ?

हम दोनों ही लिखते थे और हमारा समझदार उम्र का प्यार था. दरअसल हम 30 जनवरी 1965 को एक कहानी गोष्ठी में भाग लेने चंडीगढ़ गए थे और वापसी में साथ लौटे. मैं उनकी रचनाओं से वाकिफ थी लेकिन उनकी निजी जिंदगी के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी.

मैं उनसे खासा प्रभावित थी, उनके पढ़ने-लिखने से प्रभावित थी. मेरा पढ़ना-लिखना भी उन्हें अच्छा लगता था. मैंने शुरुआत में जो अकविताएं लिखी थी, उसके आधार पर वे सोचते थे कि मैं बहुत ही साहसी लड़की हूं लेकिन लिखने का साहस अलग चीज है और जीने का साहस अलग चीज है.

जीने का साहस मैंने उनसे सीखा, क्योंकि मैं तो बड़ी खरगोश किस्म की लड़की थी. हमारी दोस्ती बातों से शुरू होकर मुलाकातों में पहुंची और हमने महीने भीतर के अंदर ही तय कर लिया कि हमें शादी करनी है. इस तरह परिवार की रजामंदी से 12 दिसंबर 1965 को हमारी शादी हुई.

शुरुआत में कविताएं लिखती थी लेकिन बाद में कहानियां लिखने लगी. यह शिफ्ट कैसे हुआ?

यह बहुत ही सहज चीज है. आप पढ़ते-पढ़ते लेखक बन जाते हैं और सुनते-सुनते वक्ता बन जाते हैं. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. मैंने शुरुआत में बहुत पढ़ना शुरू किया.

अज्ञेय और मुक्तिबोध पढ़ा. अज्ञेय को पढ़ना एक अनुभव है, हम उनको पढ़ते हैं लेकिन आधे से ज्यादा कविता हमें समझ नहीं आती लेकिन फिर भी हम पढ़ते हैं क्योंकि उन्हें पढ़ना हमें अच्छा लगता है. निराला की कविताएं हमारे अंदर एक रहस्य पैदा करती हैं और हम उसे बार-बार पढ़ते हैं.

यह स्वाभाविक था, मैं कवियों को पढ़ते-पढ़ते कविता की और गई और वो जमाना एब्ज़र्ड से भरा हुआ था, एब्ज़र्ड कविता, एब्ज़र्ड कहानी, एब्ज़र्ड फिक्शन, सब कुछ एब्ज़र्ड था. ये चीजें अमेरिका से आई थीं. जब हमने लिखना शुरू किया तो हमारी कविताओं को ‘अकविता’ कहा गया और हमें ‘अकवि’ माना गया.

ये 70 के दशक की बात है लेकिन मैंने पाया कि कविता धीरे-धीरे स्त्री की देह तक केंद्रित हो गई थी और देह संबंधी क्रांतिकारिता दिखाई जा रही थी. स्त्री के लिए देह से निकलना और यौन स्वतंत्रता ही सबसे बड़ी चीज है. मुझे उस माहौल में थोड़ा डर लगा, मुझे लगा कि यह माहौल जघन्यता की ओर जा रहा है तब मुझे लगा कि मुझे गद्य की तरफ ध्यान देना चाहिए.

वहीं, दूसरी तरफ लगातार संपादकों की ओर से पत्र आ रहे थे कि आप कहानी क्यों नहीं लिखती हैं और ऊपर से रविंद्र कालिया से मिलना भी मुझे कहानियों की ओर ले गया. मुझे लगा कि कहानी में हम अपनी बात को विस्तृत रूप में और ज्यादा अच्छी तरह से कह सकते हैं.

मौजूदा साहित्य को किस तरह देखती हैं. आजकल के लेखक काफी बोल्ड साहित्य लिख रहे हैं. आप खुद अपने समय की काफी बोल्ड लेखिका रही हैं क्योंकि आपने 60 के दशक में ही लिखा था कि प्यार शब्द लिखते-लिखते चपटा हो गया है और अब हमारी समझ में सहवास आता है.  

साहित्य हमेशा समय से आगे चलता है और इसे चलना भी चाहिए. मेरी यह कविता समय से 40 साल पहले लिखी गई थी. उस समय सहवास शब्द को बहुत बुरा माना जाता था और शायद प्रेम शब्द को भी बहुत अच्छा नहीं समझा जाता था. आज के समय में जो लिखा जा रहा है, अगर वह अग्रगामी नहीं होगा तब तक उसकी बहुत ज्यादा कीमत नहीं होगी.

कई मौकों पर साहित्यकारों ने अपनी राजनीतिक राय रखी है या यूं कहें कि राजनीति उन पर हावी हो गई है, इसे किस तरह देखती हैं?

देखिए, साहित्यकार समाज में रहता है और राजनीति भी समाज का आवश्यक अंग है. साहित्यकार पूरी तरह से राजनीति से अलग नहीं रह सकता लेकिन उसमें पूरी तरह से लिप्त भी नहीं रह सकता.

राजनीति का चेहरा बदल रहा है. एक जमाना था, जब राजनीति में विपक्ष को बहुत महत्व दिया जाता था, अपनी धारा से अलग विपक्ष की बातों को तवज्जो दी जाती थी. गांधी और नेहरू के जमाने में यह माना जाता था कि जो विलोम बोल रहा है, उस पर भी ध्यान दीजिए. धीरे-धीरे राजनीति में बहुत ध्रुवीकरण हो गया.

मुझे लगता है कि ये साहित्यकार के लिए बहुत अनुकूल जगह नहीं है. हालांकि मैं ये भी मानती हूं कि महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा राजनीति में आना चाहिए क्योंकि जब तक महिलाएं अधिक संख्या में राजनीति में नहीं आएगी तब तक बदलाव नहीं ला पाएंगी.

हम केवल पढ़ते-लिखते रह जाएंगे और बदलाव लाने वाले अनपढ़ और आधे पढ़े-लिखे लोग होंगे, तो इस तरह से वे गलत बदलाव लाएंगे. मैं देख रही हूं कि राजनीति लगातार विचारशून्य होती जा रही है. इस बार का जो चुनाव हुआ, उसमें विचारों को कोई महत्व नहीं दिया गया. न जाने किस तरह के भाषण लोग दे रहे थे, मुझे तो ऐसा लग रहा था कि इनके पास ढंग के स्पीच राइटर भी नहीं हैं.

साहित्यकारों को राजनीति में लिप्त नहीं होना चाहिए, साहित्य और साहित्यकारों की भी अपनी एक राजनीति है और अगर उसमें लिप्त हो गए तो आप लिख नहीं सकते क्योंकि फिर खेमेबंदी हो जाएगी.

चुनाव के दौरान देखा गया कि कुछ साहित्यकारों ने खेमेबंदी कर नरेंद्र मोदी को वोट देने की भी अपील की. इसे कैसे देखती हैं? 

यह अतिवाद है, मोदी ने तो किसी को नहीं कहा कि मेरे पक्ष में वोट दो, इस भागीदारी की जरूरत नहीं है. आप जो काम कर रहे हैं, वह करें. हम लेखक हैं, हमारा रिश्ता कलम और कागज से है और हम कलम और कागज के जितना नजदीक रहेंगे उनता बेहतर तरीके से अपनी बातों को लोगों तक पहुंचा पाएंगे.

समाज में बदलाव लाने का काम विचारक,लेखक, शिक्षक यही करते हैं. कम से कम इनको तो महफूज रखें, अगर इन लोगों को राजनीति में डाल दिया तो मैं नहीं समझती कि राजनीति का कुछ भला होगा या साहित्यकारों का कोई भला होगा.

1960, 1970 और 1980 के दशक के लेखन और वर्तमान लेखन में कितना अंतर देखती हैं? 

बहुत अंतर है, पूरे माहौल में ही अंतर है. हमारे समय में जितना स्त्री की पीड़ा को दिखाया जाए, उतना कहानी को अच्छा मानते थे. जैसे कृष्णा सोबती ने ‘बादलों के घेरे’, ‘तीन पहाड़’. ‘मित्रो मरजानी’ लिखी, ये कहानियां स्त्री की पीड़ा को बताती हैं, वे भी देह के स्तर पर. तमाम रचनाएं हैं, सुभद्रा कुमारी चौहान की, महादेवी वर्मा की एक कहानी है, जिसमें उन्होंने विधवा स्त्रियों की पीड़ा के बारे में लिखा है.

जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब धीरे-धीरे बदलाव आना शुरू हुआ था और हम सब लेखक यह मानते थे कि केवल स्त्री की पीड़ा ही बताना सही नहीं है, स्त्री की जिजीविषा, उसके अंदर की आग और बदलाव की चाहत को भी सामने लाना चाहिए.

मेरी शुरू की कहानियों में आजाद लड़की की छवि सामने आती है, जो किसी भी तरह के बंधन में बंधना नहीं चाहती, कभी-कभी परिवार का दायरा भी रूढ़िवादी हो जाता है तो वह उसको भी तोड़ना चाहती है. वह उन सब चीजों को तोड़ना चाहती है, जो बासी हो गई हैं, जिनमें काई लग गई है.

पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मेट्रो, डीटीसी और क्लस्टर बसों में महिलाओं के मुफ्त सफर के प्रस्ताव का ऐलान किया था. महिलाओं को इस तरह की सुविधाएं दिए जाने के बारे में क्या राय है? 

मैं मानती हूं कि यह एक बहुत अच्छा कदम है क्योंकि इससे पहले कभी महिलाओं के बारे में सोचा नहीं गया. कायदे से तो महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, जिसकी बात पता नहीं कब से चल रही है और अभी ठंडे बस्ते में हैं.

अगर मेट्रो में महिलाओं को मुफ्त सफर का मौका मिल रहा है तो किसी को इसका विरोध नहीं करना चाहिए लेकिन आश्चर्य है कि खुद महिलाएं इसका विरोध कर रही हैं. उन्हें सुविधा दी जा रही है तो उसका लाभ उठाना चाहिए. इसमें कहीं से स्त्री और पुरूष असमानता का सवाल ही नहीं उठता.

ये मौका महिलाओं को बहुत लंबे इंतजार के बाद मिला है. असल में महिलाओं का एक छोटा वर्ग ही कामकाजी है और अक्सर महिलाओं को बाहर जाने के लिए अपने पति से पैसे मांगने पड़ते हैं तो इस तरह से यह महिलाओं की स्वाधीनता की राह में अच्छा कदम है.

दशकों लंबे लेखन के सफर के बाद क्या किसी तरह का कोई मलाल अभी बाकी है?

मुझे भौतिक नहीं बल्कि रचनात्मक मलाल है. कई तमन्नाएं बाकी है, क्योंकि उम्र चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन मैं अभी भी लेखन के इरादों से भरी हुई हूं. अभी बहुत कुछ लिखना है, समय जाहिर है कि बीतता जा रहा है. रचनात्मक बैचेनी है, बहुत सारी बातें हैं, जो मैं कहना चाहती हूं, खासतौर से स्त्रियों के पक्ष में.

मुझे लगता है कि 20वीं और 19वीं शताब्दी में लेखकों ने जो क्रांतिकारी काम किए हैं, अपनी रचनाओं में स्त्रियों को जो स्थान दिया, फिर चाहे वह रविंद्रनाथ ठाकुर हो या शरतचंद या प्रेमचंद इन्होंने बेजोड़ काम किया है और वह काम आज के लेखक अभी तक नहीं कर पाए हैं. अभी उस पर काम करना बाकी है.

आजकल किन रचनाओं पर काम कर रही हैं?

मैं आजकल दो किताबों पर काम कर रही हूं. पहला मैं रविंद्र कालिया की जीवन की गाथा लिख रही हूं ‘रवि कथा’ के नाम से, जो लगभग पूरी होने वाली है.

दूसरी किताब इलाहाबाद शहर के बारे में लिख रही हूं. मैं इलाहाबाद में 30 साल से ज्यादा समय तक रही हूं. मैंने वहीं नौकरी की, वहीं जमकर लिखा, मेरी अधिकांश किताबें इलाहाबाद में लिखी गई हैं, मुझे उस शहर से लगाव है.

मैं आज भी मानती हूं कि एक ऐसा शहर जहां साहित्य की पूछ होती है और जहां आम आदमी की कद्र होती है, तो वह इलाहाबाद है. मैं इलाहाबाद के अलबेलेपन, सुस्ती, अक्खड़पन पर किताब लिख रही हूं, जिसका फिलहाल नाम रखा है ‘छोड़ आए वो गलियां’, हो सकता है कि नाम बदल दिया जाए.  इसके अलावा पापा नाम से एक उपन्यास भी लिख रही हूं.

https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/pkv-games/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/bandarqq/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/dominoqq/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-5k/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-10k/ https://ikpmkalsel.org/js/pkv-games/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/scatter-hitam/ https://speechify.com/wp-content/plugins/fix/scatter-hitam.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/ https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/ https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/ https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://onestopservice.rtaf.mi.th/web/rtaf/ https://www.rsudprambanan.com/rembulan/pkv-games/ depo 20 bonus 20 depo 10 bonus 10 poker qq pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq