युवराज सिंह: टीम में अपनी जगह बनाने के संघर्ष में ही पूरा करिअर बीत गया

विशेष रिपोर्ट: युवराज भले ही बड़े खिलाड़ी रहे लेकिन करिअर के शुरुआती दौर में उनका प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं था. विकल्पों के अभाव के चलते वे टीम में चुने जाते रहे. अगर कोई और दौर होता तो वे शायद करिअर के शुरुआती दौर में ही टीम से रुख़सत हो गए होते.

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विशेष रिपोर्ट: युवराज भले ही बड़े खिलाड़ी रहे लेकिन करिअर के शुरुआती दौर में उनका प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं था. विकल्पों के अभाव के चलते वे टीम में चुने जाते रहे. अगर कोई और दौर होता तो वे शायद करिअर के शुरुआती दौर में ही टीम से रुख़सत हो गए होते.

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युवराज सिंह (फोटो साभार: बीसीसीआई)

वर्ष 2000 के बहुचर्चित मैच फिक्सिंग कांड ने भारतीय क्रिकेट को हर स्तर पर हिलाकर रख दिया था. विश्व क्रिकेट में थू-थू तो हुई ही, साथ ही साथ मोहम्मद अजहर, अजय जडेजा और नयन मोंगिया जैसे दिग्गज खिलाड़ी फिक्सिंग में शामिल होने के चलते उसने खो दिए.

कुछ ही समय के भीतर भारत को आईसीसी के दूसरे सबसे बड़े टूर्नामेंट आईसीसी नॉक आउट ट्रॉफी (जिसे ही बाद में चैंपियंस ट्रॉफी कहा गया) में शिरकत करनी थी जिसे मिनी विश्वकप कहा जाता था.

1999 विश्वकप के सुपर सिक्स दौर में सबसे निचले पायदान पर रही टीम के लिए यह टूर्नामेंट साख का सवाल था. लेकिन मध्यमक्रम में अजहर और जडेजा की जगह भरने कोई विकल्प तब तक नहीं मिला था.

भारत को क्वालिफायर खेलकर टूर्नामेंट में एंट्री मिली, जहां उसने कीनिया को हराया इसलिए उससे कोई खास चमत्कार की उम्मीद भी नहीं थी. ऊपर से पहला ही मुकाबला उसे विश्व चैंपियन ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलना था.

ऑस्ट्रेलिया ने टॉस जीता और भारत को पहले बल्लेबाजी के लिए भेजा. भारत की बल्लेबाजी की रीढ़ सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली और राहुल द्रविड़ 20 ओवर के अंदर पवेलियन लौट चुके थे. भारत की हार तय लग रही थी क्योंकि इन तीनों के अलावा कोई चौथा नाम बल्लेबाजी में ऐसा नहीं था जो डूबती कश्ती को किनारा लगा सके.

विनोद कांबली आउट ऑफ फॉर्म थे, टीम में अपने आखिरी दिन गिन रहे थे. अजहर, जडेजा की विदाई के बाद मजबूरी में टीम में वापस चुने गये थे और आशानुरूप वे भी क्रीज पर टिक नहीं सके. फिर वह हुआ जिसकी तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

18 साल का एक दुबला-पतला मगर चुस्त लड़का जो पहली बार भारत के लिए बल्लेबाजी करने उतरा था, खूंटा गाढ़कर एक छोर पर ऐसा टिका कि ग्लेन मैक्ग्राथ, जेसन गिलेस्पी और ब्रेट ली की कहर ढाती तेज गेंदें भी उसके बल्ले के आगे सामान्य नजर आ रही थीं, तो वहीं दूसरे छोर पर विकेटों का पतझड़ लगा था.

80 गेंदों पर 84 रन बनाकर जब वह आउट हुआ तो हर किसी की जुबां पर उसका ही नाम था- युवराज सिंह. भारत ने मैच जीता और अपनी पहली ही पारी में युवराज मैन ऑफ द मैच बने.

हालांकि, यह उनका दूसरा मैच था. पहले मैच में कीनिया के खिलाफ उन्हें क्रीज पर उतरने का मौका नहीं मिला था. उस दौर में अंडर 19 क्रिकेट कम ही लोग देखा करते थे, इसलिए क्रिकेट प्रशंसकों के लिए युवराज एक अनजान चेहरा था.

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विवियन रिचर्ड्स, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग के साथ युवराज सिंह (फोटो साभार: फेसबुक/युवराज सिंह)

कम ही लोगों को जानकारी थी कि उस साल की शुरुआत में भारत ने जो अंडर 19 विश्वकप का खिताब अपने नाम किया था, उसमें मैन ऑफ द टूर्नामेंट युवराज ही थे. विस्फोटक बल्लेबाजी के साथ-साथ किफायती गेंदबाजी के लिए जाने जाने वाले युवराज का बल्ला दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अगले सेमीफाइनल मैच में भी जमकर चला और 35 गेंदों पर ताबड़तोड़ 41 रन ठोंककर टीम को जीत दिलाकर अपनी जगह पक्की कर ली.

क्वालिफायर खेलकर फाइनल तक पहुंचना भारत के लिए उपलब्धि थी, जिसमें युवराज की सबसे अहम भूमिका थी.

19 साल बाद युवराज सिंह ने कुल 304 एकदिवसीय, 40 टेस्ट और 58 ट्वेंटी-20 अंतर्राष्ट्रीय खेलकर अपने उस यादगार करिअर को 10 जून को विराम दे दिया, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का सबसे तेज अर्द्धशतक (12 गेंद), एक ओवर में छह छक्के, एकदिवसीय विश्वकप की जीत में प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब और टी-20 विश्वकप की जीत में सूत्रधार बनने जैसी उपलब्धियां शामिल रहीं.

एकदिवसीय में अपनी पहली ही पारी से युवराज एक ऐसे मैच विनर खिलाड़ी साबित हुए जिसका अर्द्धशतक बनाना टीम की जीत की गारंटी होता था, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनके करिअर के शुरुआती दौर में उनके बल्ले से अर्द्धशतक निकलने का इंतजार भी लंबा होता था.

ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ जड़े अपने पहले पचास के बाद दूसरे के लिए उन्होंने 17 मैचों का इंतजार कराया. करिअर के पहले 28 मैचों में उनके नाम केवल दो अर्द्धशतक थे. उन्होंने इस दौरान 22.63 के मामूली औसत से 498 रन बनाए थे.

ये आंकड़े तब उन्हें एक निम्न स्तर का बल्लेबाज साबित करने के लिए पर्याप्त थे. करिअर की पहली दो पारी के बाद उन्होंने अगले 15 मैचों में 14 के औसत से केवल 200 रन ही बनाए थे. तब गेंदबाजों तक के बल्लेबाजी के आंकड़े उनसे अच्छे थे.

ऐसा भी नहीं था कि भले ही बल्लेबाजी निम्नस्तरीय हो, पर वे गेंदबाजी में अच्छा कर रहे हों. गेंदबाजी में उन्होंने 28 मैचों में 37.75 के महंगे औसत से केवल 12 विकेट ही लिए थे. लेकिन वे टीम में लगातार मौके पा रहे थे तो केवल विकल्पों की अनुपलब्धता के चलते. अगर और कोई दौर होता तो वे करिअर के शुरुआती दौर में ही टीम से रुखसत हो गए होते.

तब उनके साथ केवल एक चीज अच्छी हो रही थी, वो था उनका क्षेत्ररक्षण. वे टीम के सबसे तेज फील्डर थे और चीते की तरह गेंद पर झपटते थे. 2002 चैंपियंस ट्रॉफी के सेमीफाइनल में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ मैच में उन्होंने हवा उड़ते हुए जोंटी रोड्स का जो कैच पकड़ा था, उसने मैच का रुख ही बदल दिया था.

उनके करिअर के कई टर्निंग पॉइंट्स में से पहला था- 2002 में इंग्लेंड में खेली नेटवेस्ट ट्रॉफी का फाइनल. जहां उन्होंने अर्द्धशतकीय पारी खेलकर मोहम्मद कैफ के साथ मिलकर भारत को जो चमत्कारिक जीत दिलाई थी, उसने न केवल टीम में उनकी जगह बचाई बल्कि विश्व क्रिकेट में उन्हें पहचान दिलाई थी. (भारत पर फाइनल में हार जाने वाले चोकर्स का ठप्पा भी हटाया था.)

प्रदर्शन में रहा निरंतरता का अभाव

लेकिन उनके प्रदर्शन में निरंतरता का अभाव था. पहला शतक बनाने के लिए उन्होंने तीन साल और 71 मैच लिए. लेकिन उसके बाद फिर अगले 12 एकदिवसीय मैचों में इस कदर फ्लॉप हुए कि 7 बार बीस रन से कम और 5 बार इकाई अंक में स्कोर बनाया.

इस बीच उसी वर्ष न्यूजीलैंड के खिलाफ घरेलू टेस्ट सीरीज में पहली बार उन्हें टेस्ट खेलने का मौका मिला लेकिन उनका बल्ला नहीं चला. उनके प्रदर्शन में यही अनिरंतरता लगातार बरकरार रही.

टेस्ट में तो वे लगातार टीम से अंदर-बाहर होते रहे. जिसके चलते 9 साल के टेस्ट करिअर में केवल 40 टेस्ट ही खेले. 2011 में आखिरी टेस्ट खेलने तक टीम में जगह बनाने को लेकर उनका संघर्ष लगातार चलता रहा. हालांकि, एकदिवसीय क्रिकेट में उनके करिअर के दूसरे टर्निंग पॉइंट ने जिस धाकड़ युवराज को हम जानते हैं उससे मिलाया.

2005 में श्रीलंका में इंडियन ऑइल कप भारत, श्रीलंका और वेस्टइंडीज के बीच खेला जा रहा था. युवराज इस टूर्नामेंट से पहले आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी, इंग्लैंड और बांग्लादेश दौरों व पाकिस्तान के भारत दौरे में बुरी तरह फेल रहे.

चारों तरफ उनकी आलोचना हो रही थी और टीम से निकाले जाने का चयनकर्ताओं पर दबाव था. फिर भी उन्हें इस टूर्नामेंट के लिए चुना गया. लीग चरण के शुरुआती दो मैचों में वे फ्लॉप रहे. अगले मैच में श्रीलंका के खिलाफ उन्हें प्लेइंग इलेवन से बाहर कर दिया गया. भारत यह मैच हार गया.

फाइनल में पहुंचने के लिए वेस्टइंडीज के खिलाफ लीग का आखिरी मैच करो या मरो का था. युवराज को आखिरी मौका देने एक बार फिर प्लेइंग इलेवन में वापस लाया गया. इस मैच में हार का मतलब भारत का फाइनल से बाहर होना था और युवराज का बल्ला न चलने का मतलब उनकी भारतीय टीम से रुखसती.

लेकिन उस मैच में युवराज ने शतक ठोक दिया और शतक के बाद ड्रेसिंग रूम की तरफ बल्ला लहराकर गुस्से में खूब चीखे-चिल्लाए. उनके चेहरे के भाव ऐसे थे मानो खुद को टीम से बाहर करने वालों को चुनौती भरी ललकार दे रहे हों कि मुझे टीम से निकालना चाहते हो, निकालो अब.

फोटो: रॉयटर्स
फोटो: रॉयटर्स

यहीं से युवराज के करिअर ने रफ्तार पकड़ी. जहां पहले कई-कई मैच के बाद उनके बल्ले से एक अच्छी पारी निकलती थी, लेकिन अब हर दूसरे-तीसरे मैच में बल्ला गरजने लगा और यह सिलसिला 2011 के विश्वकप तक चला, जहां उन्होंने मैन ऑफ द टूर्नामेंट बनकर 28 सालों बाद भारत के एकदिवसीय विश्वकप जीतने की पटकथा लिखी.

इंडियन ऑइल कप में बनाए शतक से पहले तक प्रदर्शन में निरंतरता के अभाव के चलते भी युवराज टीम में बने रहे तो उसका एक कारण यह था कि वे एक ऐसे मैच विनर थे जो ऐसी ताबड़तोड़ पारियां खेलते थे कि अगर 50 से ऊपर रन बना लें तो टीम की जीत तय हो जाती थी.

अपने करिअर के जो शुरुआती 15 अर्द्धशतक और शतक उन्होंने जड़े, उनमें से 14 मैच भारत जीता था. पूरे एकदिवसीय करिअर की बात करें तो उन्होंने कुल 52 अर्द्धशतक और 14 शतक जड़े यानी कि कुल 66 बार पचास से ऊपर रन बनाए, इनमें से 51 मैच भारत ने जीते थे. उनके इस रिकॉर्ड की बराबरी क्रिकेट के बड़े-बड़े दिग्गज नहीं करते.

बहरहाल, वेस्टइंडीज के खिलाफ इस शतक से लेकर विश्वकप 2011 तक अपने करिअर के सुनहरे दौर में युवराज ने 153 मैच खेले और 32 शतक और 11 अर्द्धशतक जड़े. यानी कि हर 3.55 पारी में अर्द्धशतक/शतक जड़ा.

जबकि इस दौर को उनके करिअर से बाहर कर दें तो बाकी के 151 मैचों में केवल 20 अर्द्धशतक और 3 शतक नजर आते हैं. यानी कि प्रति 6.56 पारी में अर्द्धशतक या शतक. अपने करिअर की लगभग हर बड़ी उपलब्धि युवराज ने इसी दौर में हासिल की.

2007 के एकदिवसीय विश्वकप में भारत की शर्मनाक हार के तीन माह बाद जब पहले ट्वेंटी-20 क्रिकेट विश्वकप के लिए एक युवा टीम का चयन हुआ तो उसके उपकप्तान युवराज बनाए गए.

टूर्नामेंट के पहले इस टीम को विशेषज्ञों ने विश्वकप की सबसे फिसड्डी टीमों में से एक करार दिया था, लेकिन युवराज के पराक्रम ने टीम की जीत की राह पक्की की.

भारत सुपर 8 का पहला मैच न्यूजीलैंड से हारा. दूसरा मैच इंग्लेंड से था. हार का मतलब टूर्नामेंट से रुखसती. यहां युवराज ने क्रिकेट का वो कारनामा किया जो अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में इससे पहले केवल एक बार ही हुआ था.

उन्होंने स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ओवर की छह गेंदों पर छह छक्के जड़ दिए और अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट का सबसे तेज अर्द्धशतक 12 गेंदों में बनाया. यह रिकॉर्ड अब तक नहीं टूटा है.

भारत ने मैच जीता. अगला मैच युवराज खेले नहीं. सेमीफाइनल में टूर्नामेंट की सबसे मजबूत दावेदार ऑस्ट्रेलिया को भी भारत युवराज की 30 गेंदों पर खेली 70 रनों की धुआंधार पारी की बदौलत ही हरा सका.

युवराज के करिअर का यह एक और टर्निंग पॉइंट था. अब वे सही मायने में टीम के बड़े स्टार बने थे. उनका बल्ला भी खूब गरज रहा था. उन्हें टेस्ट में 2008 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर फिर मौका मिला और वे फिर फेल हुए.

यहां उन पर खेल को गंभीरता से न लेने के भी आरोप लगे. बॉलीवुड की अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रेम संबंधों ने सुर्खियां बटोरीं तो उन्हें भारतीय क्रिकेट का दूसरा विनोद कांबली न बनने की सलाह मिलती नजर आई.

विश्वकप 2011 बना करिअर की सबसे बड़ी उपलब्धि

2011 के विश्वकप से पहले युवराज लंबे समय से आउट ऑफ फॉर्म चल रहे थे. पिछले 24 मैचों में महज 3 अर्द्धशतक लगाए थे और 24.50 के मामूली औसत से 490 रन बनाए थे. गेंदबाजी भी उनकी खास नहीं थी. इस दौरान 37.47 के बुरे औसत से 17 विकेट लिए थे.

लेकिन फिर विश्वकप में एक और टर्निंग पॉइंट आया. पहले मैच से ही उनका बल्ला गरजा. टूर्नामेंट में 90.50 के बेहतरीन औसत से 362 रन बनाए. 4 अर्द्धशतक और एक सैकड़ा जड़ा.

गेंदबाजी में भी 25.13 के प्रभावी औसत से 15 विकेट चटकाए. उनके करिअर का सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजी प्रदर्शन (31 रन पर 5 विकेट) भी इसी दौरान आया.

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2011 विश्वकप जीतने के बाद महेंद्र सिंह धोनी के साथ (फोटो: रॉयटर्स)

अपने पहले अर्द्धशतक से लेकर इस विश्वकप तक के प्रदर्शन से यह तो साफ है कि युवराज बड़े मैचों के खिलाड़ी थे. वे आम मैचों में चलें न चलें, बड़े मुकाबलों में पासा पलटने का माद्दा रखते थे.

वे कितने जीवट और खेल के प्रति समर्पित थे यह तब पता चला जब उन्होंने खुलासा किया कि उन्हें कैंसर है और कैंसर के साथ ही वे टूर्नामेंट में खेल रहे थे ताकि 28 साल बाद देश की झोली में यह खिताब डाल सकें. यह उनके करिअर का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ.

कैंसर के बाद दूसरी पारी की राह नहीं रही आसान

विश्वकप के बाद वे कैंसर के इलाज के चलते डेढ़ साल तक क्रिकेट से दूर रहे. सितंबर 2012 में कैंसर की जंग जीतकर मैदान पर लौटे. चौथे ट्वेंटी-20 विश्वकप की टीम में उनका चयन भी हुआ लेकिन वो बल्ले से कोई कमाल नहीं कर सके. गेंदबाजी में जरूर उन्होंने उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन किया.

उसी साल उन्हें एकदिवसीय टीम में भी वापस चुना गया. एक साल तक लगातार उन्हें टीम में मौका मिला लेकिन न तो उनके बल्ले और न ही गेंद से कोई ऐसा प्रदर्शन निकला जिसे यादगार कहा सके. नतीजतन दिसंबर 2013 में उन्हें एकदिवसीय टीम से बाहर कर दिया गया.

Yuvraj Singh Fans Prayer meet 2012 Reuters
युवराज को कैंसर होने की खबर के बाद उनके प्रशंसकों ने उनकी सलामती के लिए जगह-जगह प्रार्थना सभाएं की थीं. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

इस दौरान ट्वेंटी-20 टीम में वे लगातार अंदर-बाहर होते रहे. बीच-बीच में एक-दो अच्छे स्कोर बनाए लेकिन टीम में अपनी जगह फिक्स नहीं कर पाए. 2014 के टी-20 विश्वकप में तो फाइनल में उनकी धीमी पारी को टीम की हार कारण माना गया.

प्रशंसक उनके घर के बाहर पुतले जला रहे थे और आलोचक उन्हें टीम से निकालने की मांग कर रहे थे. इस दौरान टीम में वापसी के लिए घरेलू क्रिकेट में चयनकर्ताओं का ध्यान खींचने उन्होंने लगातार पसीना बहाया.

तीन साल बाद जनवरी 2017 में उन्हें वापस एकदिवसीय टीम में इंग्लेंड के खिलाफ घरेलू सीरीज में चुना भी गया. दूसरे ही मैच में उन्होंने बड़ा शतक जड़ा. 127 गेंदों पर 150 रन की वही पारी उनका किसी एकदिवसीय में सबसे अच्छा प्रदर्शन है.

इस प्रदर्शन ने उन्हें 2017 की इंग्लेंड में आयोजित चैंपियंस ट्रॉफी और वेस्टइंडीज दौरे पर टीम में जगह दिलाई, लेकिन वहां उनका बल्ला खामोश रहा. 30 जून 2017 को वेस्टइंडीज के खिलाफ उन्होंने अपना आखिरी अंतर्राष्ट्रीय मैच खेला. ट्वेंटी-20 टीम से तो वह फरवरी में ही विदा कर दिए गए थे.

हालांकि, इसके बाद भी युवराज ने हार नहीं मानी और घरेलू क्रिकेट के जरिए लगातार टीम में आने की कोशिशें जारी रखीं. लेकिन क्रिकेट की नई पौध के सामने टीम में अपनी जगह बना पाना उनके लिए आसान नहीं रहा.

सबसे बड़ा झटका तो उनके लिए इस आईपीएल में तब लगा जब शुरुआती दो मैचों में अच्छे प्रदर्शन के बाद भी मुंबई इंडियंस के टीम प्रबंधन ने उन्हें बेंच पर बैठा दिया. उनकी वापसी की रही-सही उम्मीद भी वहां खत्म हो गई. युवराज के करिअर में एक यह भी विडंबना देखी गई कि वे अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट जैसा प्रदर्शन आईपीएल में नहीं कर सके.

2007 के टी-20 विश्वकप के प्रदर्शन ने उन्हें आईपीएल की किंग्स इलेवन पंजाब टीम का कप्तान तो बनवा दिया, टीम ने अच्छा भी प्रदर्शन किया लेकिन उनका बल्ला खामोश रहा. खराब प्रदर्शन के चलते आईपीएल में बार-बार उनकी टीम बदली, उनके लिए मंहगी बोलियां भी लगीं लेकिन कभी उन्होंने अपनी क्षमता के अनुसार प्रदर्शन नहीं किया.

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आईपीएल के दौरान ब्रेट ली के साथ युवराज सिंह (फाइल फोटो: पीटीआई)

ऐसा माना जाता है कि यदि युवराज के कैंसर के चलते क्रिकेट से दूर नहीं हुए होते तो विश्वकप जीत का प्रदर्शन टीम में उनका कद काफी बढ़ा देता.

वे बिना कभी कप्तानी किए सबसे ज्यादा एकदिवसीय मैच (304) खेलने वाले विश्व के दूसरे खिलाड़ी हैं. बिना कप्तानी किए उनसे ज्यादा मैच केवल श्रीलंका के मुथैया मुरलीधरन (350) ने खेले हैं. कैंसर न होने की स्थिति में हो सकता था कि वे कभी टीम के कप्तान भी बन जाते.

लेकिन कैंसर के बाद वे मैदान पर ढंग से वापसी ही नहीं कर सके. उनकी बल्लेबाजी उनके शुरुआती करिअर जैसी निम्नस्तरीय नजर आ रही थी. वापसी के बाद 7 सालों में उन्हें केवल 30 एकदिवसीय खेलने मिले जिनमें 27 के मामूली औसत से उन्होंने 650 रन बनाए. 35 टी-20 में 26.52 के औसत से 610 रन बनाए.

वहीं, टीम में बने रहने के लिए वे फील्ड पर भी पहले जैसे चुस्त नहीं रहे थे, आसान कैच टपका रहे थे. गेंदबाजी के लंबे स्पैल भी नहीं डाल पा रहे थे. अंतत: बड़े मैचों के हीरो रहे युवराज के मन में मैदान पर खेल को अलविदा कहने का मलाल रह गया.

उन्हें मैदान से बाहर मीडिया में अपने संन्यास की घोषणा करनी पड़ी. उनके शब्दों और चेहरे पर यह मायूसी झलक रही थी जो उनके उस विज्ञापन की याद दिला रही थी जिसमें वे कहते नजर आते थे, ‘जब तक बल्ला चल रहा है तब तक ठाठ हैं.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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