जून 2018 में भाजपा ने महबूबा सरकार से गठबंधन तोड़ते समय राज्यपाल शासन लगाने के कारणों में शुजात बुख़ारी की हत्या का ज़िक्र भी किया था. लेकिन, एक साल बाद भी बुख़ारी की हत्या का रहस्य बना हुआ है.
लगभग एक साल पहले श्रीनगर शहर में ईद का चांद निकलने से चंद मिनट पहले कश्मीर के सबसे नामी पत्रकारों में से एक शुजात बुखारी की हत्या कर दी गई थी. उम्मीद थी कि अतीत के ऐसे चर्चित मामलों के उलट इस बार पुलिस एक विश्वसनीय और पारदर्शी जांच करेगी.
आखिर उनकी हत्या ने न सिर्फ सूबे और देश को हिला कर रख दिया था, बल्कि यह राज्य में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी-भाजपा सरकार के पतन का भी एक कारण बनी.
19 जून, 2018 को जब भाजपा ने महबूबा सरकार से अपना हाथ खींचा था, तब पार्टी महासचिव राम माधव ने राज्यपाल शासन लगाने के कारणों में शुजात बुखारी की हत्या का जिक्र भी किया था. लेकिन, एक साल बाद भी उनकी हत्या के पीछे के मकसद पर रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है.
इस तथ्य के बावजूद कि उनके परिवार के सत्ता प्रतिष्ठान में अच्छे ताल्लुकात थे, पिछले साल उनको सुपुर्द-ए-ख़ाक करते वक्त, शायद ही किसी को इस बात का यकीन था कि जांच एजेंसियां इस मामले में किसी विश्वसनीय जांच को अंजाम दे पाएंगी.
एक दस्तूर की तरह पुलिस द्वारा एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया गया, जिसने यह निष्कर्ष निकाला कि बुखारी की हत्या के पीछे पाकिस्तान स्थित लश्कर-ए-तैयबा का हाथ है. हालांकि इस आतंकी समूह ने इसमें शामिल होने से इनकार किया था.
बाद में नवंबर, 2018 में पुलिस और सेना ने एक प्राथमिक संदिग्ध नवीद जट को मार गिराया. ऐसा लगता है कि पुलिस के लिए अब यह मामला बंद हो गया है.
पीडीपी गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने की हद तक चिंता दिखाने के बाद, खासकर यह देखते हुए कि अब केंद्र की मोदी सरकार राज्यपाल के मार्फत सीधे राज्य पर शासन कर रही है, यह उम्मीद की जा सकती थी कि इस जांच को किसी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जाएगा.
लेकिन बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है कि आखिर शुजात बुखारी की हत्या के पीछे किसका हाथ रहा होगा? पुलिस के रवैये से ऐसा लगता है कि हत्यारों और साजिशकर्ताओं का पता लगाने के लिए जरूरी उर्जा या इच्छा किसी में नहीं है.
हत्या से पहले शुजात के खिलाफ जिस तरह का दुर्भावनापूर्ण अभियान चलाया गया, उसके पीछे कौन लोग थे, यह पता लगाने की भी कोई कोशिश कहीं नहीं दिखाई देती है. इनमें से कुछ लोग आज भी दुनिया की राजधानियों में आराम फरमा रहे है, अखबारों में कॉलम और सोशल मीडिया पोस्ट्स लिख रहे हैं.
उन्होंने बुखारी की हत्या नहीं करवाई होगी, लेकिन उनके हाथ भी बराबर मात्रा में खून से सने हुए हैं. इस दुष्प्रचार का हिस्सा रहे हर आईपी एड्रेस और उनके स्रोतों को खंगालने और इस दुष्प्रचार का हिस्सा रहे लोगों की पहचान किए जाने की जरूरत थी.
जरूरत पड़ने पर दोषियों को पकड़ने के लिए देश की केंद्रीय एजेंसियों और यहां तक कि इंटरपोल की मदद लिए जाने से पर भी विचार किया जाना चाहिए था. नवीद जट को जरूर मार गिराया गया है, लेकिन कई सवाल ऐसे हैं, जो जवाब की मांग करते हैं.
आखिर ईद की तैयारियों से गुलजार शहर के लाल चौक इलाके में किसी जांच की पकड़ में आए बगैर तीन आतंकवादी असॉल्ट राइफलों के साथ पहुंचने में कामयाब कैसे हो गए? वो मोटर साइकिल किसकी थी?
आखिर क्या वजह थी कि उस वक्त पुलिस के सुरक्षा कैमरे और सीसीटीवी या तो वहां से हटा लिए गए थे या काम नहीं कर रहे थे? पुलिस भी वारदात स्थल पर 20 मिनट के बाद पहुंची.
आखिर प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा रिकॉर्ड किए गए वीडियो क्लिप्स में शुजात के बॉडीगार्ड की पिस्तौल चोरी करता हुआ दिखाई देनेवाला व्यक्ति कौन था? हमने उस व्यक्ति के बारे में फिर कभी कुछ नहीं सुना- जबकि उसे हमने टीवी चैनलों पर देखा था और उस वक्त हमें यह बताया गया था कि उसे भी संदिग्ध घोषित किया गया है.
ऐसा लगता है कि शुजात की हत्या की जांच का हश्र भी पिछले तीन दशकों में कश्मीर में पत्रकारों की हत्या के दूसरे मामलों जैसा होनेवाला है. उन मामलों में भी जिनमें पुलिस को आतंकवादियों के शामिल होने का पक्का यकीन था, उन मामलों में भी उसने पूरी जांच करने और पूरी साजिश पर से पर्दा उठाने का साहस नहीं दिखाया है.
1991 में अल-सफा के संपादक मोहम्मद शाह वकील की हत्या की ही तरह ऐसी हत्याओं और हमलों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिन पर से रहस्य का पर्दा आज तक नहीं उठा है.
जफर इकबाल जो कि अब एनडीटीवी में है एक दशक पहले ऐसे ही एक हमले में बाल-बाल बचे थे. आज उनका सामान्य जीवन बिताना एक चमत्कार की तरह है. गोलियां उनके नाक के पार निकल गई थीं, लेकिन उनके नर्वस सिस्टम को कोई नुकसान नहीं हुआ.
2003 में एक स्थानीय न्यूज एजेंसी के संपादक परवाज सुल्तान को उनके दफ्तर में गोलियों से भून डाला गया था. कश्मीरी पत्रकारिता के स्तंभों में से एक यूसुफ जमील एक हमले में बाल-बाल बच गए, लेकिन उनका फोटोग्राफर मुश्ताक़ अली मारा गया.
बुरके में आई एक औरत उनके दफ्तर में तोहफे के रूप में एक पार्सल दे गई. उस पार्सल को जब मुश्ताक़ अली ने खोला तब उसमें विस्फोट हो गया, जिससे अली की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई. ये सारे मामले फाइलों के पहाड़ के नीचे दबे हुए हैं.
ऐसा माना जाता है कि जमील के मामले में पुलिस ने कथित हत्यारे की पहचान कर ली थी, लेकिन कभी उससे पूछताछ नहीं की गई. इसके बदले वह सियासी सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता गया और आखिरकार विधानपरिषद का सदस्य बना.
मृत्यु से चंद मिनट पहले शुजात ने मुझे फोन करके ईद के मौके पर श्रीनगर न आने की सलाह दी थी, क्योंकि फर्जी सोशल मीडिया एकाउंट्स से हमारे खिलाफ चलाया गया अभियान तेज होता जा रहा था.
उन्होंने मुझे कश्मीर में ईद न मनाने की सलाह दी थी. लेकिन उनकी सलाह के उलट मेरे पास ईद से एक दिन पहले अल सुबह श्रीनगर की फ्लाइट लेने के अलावा और कोई चारा नहीं था- त्योहार मनाने के लिए नहीं, बल्कि शाम-ए-ग़रीबान में हजारों लोगों के साथ शामिल होने के लिए, जो श्रीनगर से 40 किलोमीटर दूर शुजात के पुश्तैनी गांव क्रीरी में बरसते पानी के बीच उनके जनाजे़ में शामिल होने के लिए जमा हुए थे.
सोशल मीडिया कहीं भी काफी खतरनाक रूप अख्तियार कर सकता है और करता भी है, लेकिन संघर्ष-क्षेत्रों में यह जानलेवा साबित हो सकता है. इसका इस्तेमाल आपके खिलाफ प्रोपगेंडा खड़ा करने के लिए किया जा सकता है.
चरित्र हनन, फर्जी खबर, राजनीतिक रूप से संगठित दुष्प्रचार- इनका इस्तेमाल लोगों को डराने के लिए हथियार के तौर पर किया जाता है और हकीकत में हत्यारों की ओर इशारा कर सकता है.
दिल्ली में रहनेवाले एक सोशल मीडिया कार्यकर्ता ने यह आरोप लगाया कि शुजात का अखबार ‘आईएसआई के इशारे’ पर नाच रहा है. नफरत फैलानेवाले एक दूसरे लेख में उन्हें भारतीय एजेंसियों के लिए काम करनेवाले के तौर पर पेश किया गया.
इस तरह का दुष्प्रचार दोनों तरफ के शरारती तत्वों के लिए उनको ठिकाने लगा देने का साफ न्योता था, जो अपने आप में लक्ष्य भी हो सकता था या इसका दोष डालकर किसी पक्ष को बदनाम किया जा सकता था.
साथ बिताए सालों को पीछे मुड़कर देखते हुए और यह देखते हुए कि कैसे हमने मिलकर मौत को चकमा दिया, यह कह सकता हूं कि शुजात में सबसे मुश्किल हालातों में भी सहज बने रहने और हंसी-मजाक कर सकने की क्षमता थी.
90 के दशक की शुरुआत में कुपवाड़ा में किसी जगह एक हत्याओं की एक बड़ी वारदात के बाद उन्होंने मुझे वारदात स्थल का मुआयना करने के लिए साथ चलने के लिए बुलाया था. उस समय पूरी घाटी में सख्त कर्फ्यू लगा था.
उन्होंने नया-नया गाड़ी चलाना सीखा था इसलिए उन्होंने अपने एक दोस्त से मारुति 800 भाड़े पर ली और कर्फ्यू में यात्रा करने के पास का इंतजाम किया.
श्रीनगर से करीब 60 किलोमीटर की दूरी पर सोपोर शहर के बाहरी भाग में, एग्रीकल्चर कॉलेज के पास लेफ्टिनेंट कर्नल के नेतृत्व वाले एक सेना के दल ने हमें रोका. वह अफसर काफी गुस्से में था, क्योंकि कुछ घंटे पहले ही उस इलाके में एक एनकाउंटर हुआ था, जिसमें उसके जवान भी मारे गए थे.
उसने हमारे कर्फ्यू पासों को फाड़ दिया और हमारे पहचान-पत्रों को फेंक दिया. इसके बाद उसके जवानों ने हमारी ओर बंदूकें तान दीं और हमें सेना की एक टन की लो-फ्लोर गाड़ी के नीचे घुटने मोड़ कर बैठ जाने के लिए कहा. चूंकि शुजात लंबे थे, इसलिए वे गाड़ी के नीचे अपने घुटनों को सही तरीके से मोड़ नहीं सकते थे.
इस हालात में जब मौत हमारे सामने खड़ी थी, वे अपने हास्य बोध और व्यंग्य से मेरा मनोरंजन करते रहे. उन्होंने मसखरे अंदाज में कहा कि जब हमारे शव धान के खेतों में मिलेंगे, तब सियासी पार्टियां, सरकार और आतंकवादी समूह इस पर कैसे प्रतिक्रिया देंगे, इसकी भर्त्सना करेंगे और एक-दूसरे पर आरोप लगाने का काम करेंगे.
मुझे याद है उस अफसर ने हमसे जान बचाने के लिए वहां से भागने के लिए कहा था. उसने चिल्लाकर कहा था, ‘यही सौदा है. हम 10 मिनट के बाद गोलियां चलाना शुरू करेंगे. भाग सकते हो तो भागो और हमारी गोलियों की जद से बाहर निकल जाओ.’
हम लोग धान के खेतों से होते हुए दूर दिखाई दे रहे एक घर की ओर भागे. घर का दरवाजा बंद था और हमारे पास दीवार फांदने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था. इस बार शुजात ने अपनी लंबाई का फायदा उठाया और आसानी से दीवार को फांद गए. वहीं दूसरी तरफ मुझे दीवार के उस पार जाने के लिए कई बार कोशिश करनी पड़ी.
जैसे ही मैं दूसरी तरफ की जमीन पर कूदा, कुछ गोलियां ईंट की दीवार से टकराईं- ठीक उसी समय जब मैंने दीवार को पार किया था. उस घर के मालिक ये सोच कर डरे हुए थे कि हम आतंकवादी हैं और सुरक्षा बलों से भाग रहे हैं.
शुजात ने उन्हें गांव के सरपंच का रास्ता बताने क लिए कहा. काफी समझाने के बाद गांव के सरपंच ने हमें अंदर आने दिया. अगले दिन हम सुरक्षा बलों और आतंकवादियों से बचने के लिए बागों और खेतों के रास्ते से सोपोर के लिए रवाना हुए. हमें श्रीनगर वापस पहुंचने में तीन दिन का वक्त लगा.
15वें कॉर्प के तत्कालीन जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) जनरल सुंदराजन पद्मनाभन की मदद से 15 दिनों के बाद हमें वह कार मिल पाई.
एक दूसरे मौके पर पत्रकारों के एक दूसरे दल के साथ शुजात को एक सरकार समर्थक आतंकी संगठन इखवान ने बंधक बना लिया था. उन्होंने पांच पत्रकारों को अलग करके, जिनमें शुजात भी थे, एक कमरे में बंद कर दिया. उनके एक स्वयंभू कमांडर ने पत्रकारों की मौजूदगी में ही अगले दिन सुबह तक उन्हें बेजान शरीरों में बदल देने का फरमान सुनाया.
शुजात की सजग बुद्धि के कारण उन्होने एक अलमारी में एक लैंडलाइन फोन खोज निकाला. उन्होंने श्रीनगर में कश्मीर टाइम्स के ब्यूरो ऑफिस को इत्तला देने के साथ-साथ न्यूयॉर्क में कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) के दफ्तर में भी सूचना दी, जिसने तुरंत अलर्ट जारी कर दिया. शाम तक सेना ने उस जगह पर छापा मारा और उन्हें बचा लिया.
यह सोच कर दिल बैठ जाता है कि आखिर शुजात का वक्त आ गया. कश्मीर में पत्रकारिता का सूरज ईद के चांद के निकलने से चंद मिनट पहले डूब गया.
(इफ़्तिख़ार गिलानी कश्मीर टाइम्स के नई दिल्ली के पूर्व ब्यूरो प्रमुख हैं.)
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