उत्तर प्रदेश की योगी सरकार संस्कृत के उत्थान के लिए सचमुच फिक्रमंद होती तो संस्कृत में प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने के अपने फैसले पर अमल से पहले उन कारणों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करवाती, जिनके चलते संस्कृत अपने लोक से लगातार कटती गई है.

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की इस समझ पर सिर्फ और सिर्फ हंसा जा सकता है कि उनके सूचना विभाग द्वारा उसकी प्रेस विज्ञप्तियों को हिंदी, अंग्रेजी व उर्दू के साथ संस्कृत में भी जारी किए जाने से भाषा के तौर पर संस्कृत का उत्थान (पढ़िए: पुनरुत्थान) संभव हो सकेगा.
प्रदेश में हिंदी और उर्दू दोनों की वर्तमान बदहाली गवाह हैं कि ऐसी दिखावटी शुभचिंताओं से भाषाओं का कोई भला नहीं होता.
होता तो अब तक उर्दू नहीं तो हिंदी तो अवश्य ही सरकारी प्रेस नोटों की पूंछ पकड़कर वह वैतरणी पार कर गई होती, जिसे पार न कर पाने का कुफल यह हुआ है कि पिछले दिनों देश के दक्षिण से उठ रहे विरोधी स्वरों के उग्र हो जाने के अंदेशों से डरी केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति के मसौदे में शामिल की गई हिंदी की अनिवार्यता के प्रावधान को एक झटके में चलता कर दिया तो बेचारी अपना मुंह तक नहीं खोल सकी.
तब भी नहीं, जब कई लोगों ने यह तक कह डाला कि हिंदी के गैरहिंदी भाषी क्षेत्रों से ज्यादा दुश्मन हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही निवास करते हैं.
योगी सरकार संस्कृत के उत्थान के लिए सचमुच समर्पित या फिक्रमंद होती तो संस्कृत में प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने के अपने फैसले पर अमल से पहले उन कारणों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन व निदान जरूर करवाती, जिनके चलते भारतीय ज्ञान-विज्ञान व चेतना की एकमात्र वाहक होने के बावजूद हमारे निकटवर्ती इतिहास में संस्कृत अपने लोक से लगातार कटती गई है.
आज कुछ लोग भले ही उसे ‘देववाणी’ के ‘ऊंचे’ आसन पर बैठाकर खुश हो लेते हों या उसको किसी धर्म, जाति, कर्मकांड, पोंगापंथ, पाखंड या पुराण की भाषा में बदलकर लाभ उठाने वालों की सहूलियतें अनंत हो गई हों, इस कड़वे सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि उक्त कटाव के चलते संस्कृत का दिन दूना और रात चौगुना नुकसान हुआ है.
हां, ऐसे तत्वों के संस्कृत पर काबिज और निर्णायक हो जाने के कारण भारतीय चिंतनधारा के क्रांतिकारी पक्ष को भी कुछ कम क्षति नहीं उठानी पड़ी है.
किसे नहीं मालूम कि प्रतिगामिताओं को आगे करने की जिद में इस पक्ष को चौतरफा उपेक्षा व अवहेलना के हवाले करने और उसकी हाशिये की जगह पर भी अतिक्रमण कर लेने की परंपरा ऐसे ही पुरानी नहीं पड़ गई है.
योगी सरकार को इस नुकसान की भरपाई करनी होती तो वह उन कारणों की तफसील में भी जाती, जिनके चलते नाना सुविधाएं दिए जाने के बावजूद हमारी नई पीढ़ी संस्कृत के पठन-पाठन के लिए आगे नहीं आ रही.
योगी की प्यारी अयोध्या में भी, जहां कभी राहुल सांकृत्यायन जैसी प्रतिभाएं संस्कृत की शिक्षा लेने आया करती थीं, कई संस्कृत वि़द्यालयों में छात्रों का ऐसा टोंटा है कि उन्हें उनकी ‘पर्याप्त’ संख्या प्रदर्शित करने के लिए कागजों का पेट जरूरत से बहुत ज्यादा भरना पड़ता है.
दूसरी ओर कई विश्वविद्यालयों की स्नातक व स्नातकोत्तर परीक्षाओं में संस्कृत के सबसे ज्यादा अंकसुलभ होने की शोहरत के बावजूद उसके अध्ययन में रुचि दिखाने वालों की संख्या वांछित स्तर तक नहीं पहुंचती.
लेकिन इस सरकार ने ऐसा कोई अध्ययन नहीं कराया और मुख्यमंत्री के निर्देश पर उनके कार्यालय तथा सूचना विभाग ने आम सरकारी ढर्रे के विपरीत खासी तेजी दिखाते हुए आनन-फानन में न सिर्फ संस्कृत प्रेस विज्ञप्तियां जारी करना शुरू कर दिया बल्कि नमूने के तौर पर नीति आयोग में दिए गए मुख्यमंत्री के भाषण का संस्कृत अनुवाद भी जारी दिया है.
साथ ही घोषणा कर दी है कि आगे भी मुख्यमंत्री के महत्वपूर्ण भाषणों का उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के अधिकारियों से संस्कृत में अनुवाद कराया और प्रेस विज्ञप्तियों के साथ दिया जाता रहेगा.
यह भी बताया गया है कि संस्थान के अनुवाद करने वाले संस्कृतज्ञों के लिए उचित मानदेय की व्यवस्था भी की गई है.
इतना सब हो तो यह कैसे हो सकता है कि सरकार के ‘प्रशंसक’ सक्रिय न हों! वे उसके इस काम को संस्कृत के उत्थान की उसकी अनूठी पहल बताकर प्रचारित कर रहे हैं. क्या पता, वे सचमुच भूल गए हैं या जान-बूझकर याद नहीं करना चाहते कि आकाशवाणी और दूरदर्शन दशकों से संस्कृत में समाचारों के बुलेटिनों का प्रसारण करते आ रहे हैं.
फिर भी संस्कृत की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा है. तब प्रदेश सरकार की संस्कृत में प्रेस विज्ञप्तियां जारी करने की अनूठी पहल से क्यों कर असर पड़ेगा? वह भी जब उन प्रेस विज्ञप्तियों का इस्तेमाल करने वाली पत्र-पत्रिकाओं की संख्या उंगलियों पर गिनी जाने भर को भी नहीं हैं.
प्रेस विज्ञप्तियों का जन सामान्य से तो खैर कोई वास्ता होता ही नहीं है, लेकिन गंभीरता से पत्रकारिता करने वाले अभी से यह सोचकर हलकान हैं कि सरकारी प्रेस-विज्ञप्तियों वाली संस्कृत सरकारी प्रेस-विज्ञप्तियों वाली हिंदी जैसी ही होगी या उससे कुछ इतर?
अगर वैसी ही तो जैसे प्रेस-विज्ञप्तियों में इस्तेमाल की जाने वाली सरकारी हिंदी ‘रोगों के पीड़ितों’ को ‘रोगों के लाभार्थियों’ में बदलकर हिंदी वालों को धन्य करती रहती है, सरकारी संस्कृत भी संस्कृत वालों को ‘धन्य’ क्यों नहीं करेगी?
क्या आश्चर्य कि वह अगस्त, 2018 में एक कार्यक्रम में कही योगी की इस बात को भी इस ‘धन्य-भाव’ से ही समझाए कि भारत को अच्छी तरह समझने के लिए संस्कृत की शरण में जाना होगा! वाराणसी में हुए एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि विज्ञान की सीमाएं जहां खत्म होती हैं, संस्कृत की सीमाएं वहां से शुरू होती हैं.
अपने इस आप्तवचन का अर्थ तो खैर वे ही जानें, लेकिन इस साल की शुरुआत में एक कार्यक्रम में उनका यह कहना सर्वथा ठीक है कि संस्कृत सारी भारतीय भाषाओं की मां है और उसकी तुलना बहू या बेटे से नहीं की जा सकती.
लेकिन अगर उनकी सरकार समझती है कि उसकी चंद प्रेस विज्ञप्तियां उसे विश्वभाषा की माता का गौरव दिलाने में मददगार सिद्ध होंगी तो यह वैसा ही है जैसे कोई किसी मंदिर में चवन्नी का चढ़ावा चढ़ाएं और बदले में चार करोड़ के व्यावसायिक लाभ अथवा आकाश कुसुम की कामना करने लगे.
इस कामना के मद्देनजर कई जानकारों का यह कथन सही प्रतीत होता है कि योगी सरकार को इससे ज्यादा वास्ता नहीं कि उसके उठाए इस कदम से यथार्थ की जमीन पर संस्कृत के लिए सचमुच कुछ सार्थक हो पाएगा और वह उठकर खड़ी हो पाएगी या नहीं.
उसे सिर्फ इस बात से फर्क पड़ता है कि इससे उसका चुनावी लाभ सुनिश्चित होगा या नहीं. यह लाभ सुनिश्चित रहे तो संस्कृत के किसी धर्म या जाति की भाषा होने की दूषित चेतना पर आधारित धारणा और जड़ीभूत हो जाए तो उसकी बला से.
सवाल है कि ऐसे ओछे मंसूबों से संस्कृत के उत्थान जैसे बड़े लक्ष्य भला कैसे पाए जा सकते हैं? किसी भी भाषा के उत्थान का रास्ता उसके पठन-पाठन या अध्ययन-अध्यापन को प्रोत्साहित करने और उसे रोजी-रोजगार से जोड़ने से गुजरता है.
सो भी, तब सुगम होता है, जब ऐसे प्रोत्साहनों का जनजीवन के वर्तमान से गहरा रिश्ता हो और सारा तकिया प्राचीनता की प्रतिष्ठा के लोभ या इस प्रतिष्ठा के पैरोकारों से इमोशनल अत्याचार की अभिलाषा पर न हो.
कौन कह सकता है कि योगी के संस्कृत को ‘विश्वभाषा की माता’ का गौरव दिलाने के आह्वान के साथ ऐसा नहीं है? काश, वे और किसी की नहीं तो महामना मदनमोहन मालवीय की यह सीख ही याद रखते कि अपने अतीत को अपने आज पर इतना हावी मत होने दो कि उसके चक्कर में तुम्हारा खूबसूरत कल भी बरबाद हो जाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)