हिरासत में हिंसा और मौत के मामलों में गुजरात सरकार का अपनी पुलिस के साथ खड़े रहने का एक अनकहा-सा रिवाज़ रहा है, लेकिन संजीव भट्ट के मामले में ऐसा नहीं दिखता.
नई दिल्ली: जहां एक ओर पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को 1990 में हिरासत में हुई मौत के लिए उम्रकैद की सज़ा मिलने को उनके द्वारा नरेंद्र मोदी की 2002 के गुजरात दंगों में भूमिका को लेकर किये गए दावों का परिणाम बताते हुए सवाल उठ रहे हैं, वहीं एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि गुजरात में इस अपराध के लिए किसी पुलिसकर्मी को दंडित करने का कम ही इतिहास रहा है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में 2001 से 2016 (रिकॉर्ड में इस साल तक के ही आंकड़े उपलब्ध हैं) तक पुलिस हिरासत में मौत होने के 180 मामले सामने आए, हालांकि इस दौरान किसी भी पुलिसकर्मी को इन मौतों के लिए सजा नहीं हुई.
अगर पूरे देश की बात करें तो आंकड़े और भयावह हैं- कस्टडी में मौत के 1,557 मामलों में, जिनमें ज्यादातर उत्तर प्रदेश के मामले हैं, केवल 26 पुलिसकर्मियों को सजा हुई है.
पुलिस की जवाबदेही तय करने की सख्त ज़रूरत है, लेकिन इन आंकड़ों के बीच उस मामले को देखा जाना भी जरूरी है, जिसके चलते संजीव भट्ट और उनके साथ एक अन्य पुलिसकर्मी प्रवीनसिंह जाला को करीब 30 साल पहले हुए एक मामले में दोषी पाया गया है.
1990 का हिरासत में मौत का मामला
भट्ट का मामला नवंबर 1990 का है, जब उन्होंने जामजोधपुर शहर में दंगे भड़काने के लिए कई लोगों (विभिन्न रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या 110 से 150 के बीच थी) को भारत बंद के दिन हिरासत में लिया था, यह वही दिन था जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ख़त्म हुई थी.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 1988 बैच के आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट उस समय जामनगर जिले के एडिशनल एसपी थे, जिन्हें तत्कालीन एसपी टीएस बिष्ट द्वारा जामजोधपुर भेजा गया था.
जिन लोगों को हिरासत में लिया गया था उनमें एक प्रभुनाथ वैष्णानी भी थे, जिन्हें हिरासत में लिए जाने के नौ दिन बाद जमानत पर रिहा गया था और कथित तौर पर रिहा होने के 10 दिन बाद उनकी मौत हो गई थी, जब उनका एक अस्पताल में इलाज चल रहा था.
उनके भाई अमृतलाल ने भट्ट समेत आठ पुलिसकर्मियों पर हिरासत में प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करवाई थी. इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए अमृतलाल ने बताया था कि प्रभुदास एक किसान थे और दंगों के जिम्मेदार नहीं थे.
मजिस्ट्रेट ने इस मामले का संज्ञान 1995 में लिया था, लेकिन इस मामले की सुनवाई पर गुजरात हाईकोर्ट द्वारा 2011 तक स्टे लगा दिया गया था.
बीते12 जून को सुप्रीम कोर्ट ने भट्ट की 11 अतिरिक्त गवाहों को पेश करने की याचिका ठुकरा दी थी.
भट्ट इस दावे के साथ शीर्ष अदालत में पहुंचे थे कि अभियोजन द्वारा मामले के 300 गवाहों की सूची बनायी गयी थी, लेकिन असल में पूछताछ केवल 32 से हुई है. उनका यह भी दावा था कि कई महत्वपूर्ण गवाहों, जिनमें इस मामले की जांच करने वाले तीन पुलिसकर्मी भी शामिल हैं, से पूछताछ नहीं हुई.
गुजरात सरकार ने भट्ट के इस कदम को ‘सुनवाई लटकाने का तरीका’ बताया था.
क्या कहते हैं आंकड़े
2016 में ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि आधिकारिक आकंड़ों के अनुसार 2010 से 2015 के बीच पुलिस कस्टडी में 591 लोगों की मौत हुई.
इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिसकर्मी गिरफ़्तारी की प्रक्रिया का पालन करने में अनिच्छुक रहते हैं, और उन्हें ऐसा करने के लिए बल उस व्यवस्था के चलते मिलता है जहां वे बिना किसी भय के हिरासत में होने वाली ऐसी मौतों को ‘आत्महत्या, बीमारी या प्राकृतिक कारणों से हुई मृत्यु’ बताते हैं.
हालांकि टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में एनसीआरबी का उन सालों के दौरान के आंकड़े नहीं थे जिसके लिए भट्ट को दोषी ठहराया गया है, लेकिन 1992 में आई एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार 1985 से 1991 के बीच देश में हिरासत में मौत के 415 मामले सामने आए थे.
रिपोर्ट में बताया गया था कि इनमें से केवल दो मामलों में कोई एक्शन लिया गया था. पहला मामला 1986 में हुए एक आदिवासी महिला के बलात्कार का था.
इस मामले की जांच कर रहे सुप्रीम कोर्ट के कमीशन ने इस बारे में कहा था कि उन्हें पर्याप्त सबूत मिले थे कि चार पुलिसकर्मियों और दो डॉक्टरों को ‘सबूत मिटाने की साजिश और इसके चलते आरोपी कॉन्स्टेबलों को कोर्ट की सज़ा से बचाने का’ मामला चल सकता है.
‘एमनेस्टी इंटरनेशनल की हालिया रिपोर्ट में सामने आया मामला 23 अक्टूबर, 1991 को दिया गया गुजरात हाईकोर्ट का फैसला है; छह पुलिस अधिकारियों को 1982 में कंटूजी मोहन सिंह को पीट-पीटकर मार डालने और अपने अपराध के सबूत मिटाने के आरोप में छह साल की सजा सुनाई गई थी. इससे पहले इन्हीं अधिकारियों को मई 1983 में बरी किया गया था, लेकिन एमनेस्टी को मालूम होने वाला यह एकमात्र ऐसा केस था, जहां सरकार ने अदालत के उन्हें बरी करने के फैसले के खिलाफ अपील की थी और पुलिसकर्मियों को सजा दिलवाई.’
असल में, जैसा एमनेस्टी की रिपोर्ट इशारा करती है कि हिरासत में हिंसा और मौत के मामलों में राज्य सरकार का अपनी पुलिस के साथ खड़े रहने का एक अनकहा रिवाज-सा है. लेकिन भट्ट के मामले में ऐसा नहीं दिखता.
भट्ट ही क्यों?
गुजरात की कानून व्यवस्था के भट्ट को पद से हटाकर उनकी शक्तियां छीनने, 22 साल पुराने ड्रग रखने के मामले में हिरासत में लेने और कस्टडी में हुई एक मौत के लिए उम्रकैद की सजा मांगने में अति सक्रियता दिखाई देती है.
द वायर को दिए एक साक्षात्कार में भट्ट की पत्नी श्वेता ने इसी तरह का आरोप लगाते हुए बताया था कि किस तरह भट्ट और उनके परिवार को शर्मिंदा करने के लिए कुछ असामान्य तरीके अपनाए गए. बिना बताए उनकी सुरक्षा हटा ली गई, एजेंसी के अधिकारी श्वेता के पति से पूछताछ करने के लिए कथित तौर पर उनके बेडरूम में घुस गए, जब वे अंदर सो रही थीं और म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने उनके 23 साल पुराने घर में ‘अवैध निर्माण’ को तोड़ने के लिए कथित तौर पर मजदूर भेजे थे.
इस कथित प्रताड़ना की शुरुआत 2011 में हुई, जब भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया, जिसमें दावा किया गया था कि उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों की पिछली शाम उन्होंने एक मीटिंग में हिस्सा लिया था.
उनका आरोप था कि नरेंद्र मोदी, जो तब मुख्यमंत्री थे, ने उस मीटिंग में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों से गोधरा ट्रेन हादसे के बाद ‘हिंदुओं को मुस्लिमों के खिलाफ अपना गुस्सा निकाल लेने देने’ के लिए कहा था.
उन्होंने हलफनामे में आरोप लगाया कि मीटिंग में इस बात पर भी चर्चा हुई कि साबरमती एक्सप्रेस में मारे गए हिंदू तीर्थयात्रियों का अंतिम संस्कार करने के पहले शवों को अहमदाबाद लाया जाएगा.
उनके मुताबिक, तब वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने इसका विरोध किया और कहा उन्हें डर है कि इससे सांप्रदायिक हिंसा भड़क सकती है.
2002 हिंसा और लगातार हुए कथित फर्जी एनकाउंटर की जांच करने वाले कई पुलिस अधिकारियों को कथित तौर पर गुजरात सरकार द्वारा निशाना बनाया गया और उन्हें अब तक इसके नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं.
जिन अधिकारियों को निशाना बनाया गया, उनमें राहुल शर्मा और आरबी. श्रीकुमार थे, जिन्होंने भट्ट की ही तरह नानावटी कमीशन के सामने दंगों में सरकार की भागीदारी के बारे में गवाही दी थी.
बताया जाता है कि सतीश वर्मा, जो इशरत जहां एनकाउंटर जांच करने वाली एसआईटी का हिस्सा थे और कुलदीप शर्मा, जिन्होंने एक भ्रष्टाचार के मामले की जांच की, जिसमें अमित शाह शामिल थे, को भी निशाना बनाया गया.
गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी रजनीश राय, जो सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर मामले में पहले जांचकर्ता थे, को 2018 के अंत में गृह मंत्रालय द्वारा सस्पेंड कर दिया गया था.
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