अरविंद केजरीवाल का दावा है कि उनके पास पक्के सबूत हैं कि भाजपा ने पार्टी का नेतृत्व बदलने और दिल्ली सरकार हथियाने की कोशिश की थी.
दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा को मिली बड़ी जीत के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पार्टी के भीतर तख़्तापलट की एक गंभीर कोशिश का सामना करना पड़ा. ‘आप’ नेतृत्व के पास अब इस बात के ‘अकाट्य सबूत’ हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने जल मंत्री कपिल मिश्रा और कुमार विश्वास के ज़रिये आप विधायक दल के भीतर नेतृत्व परिवर्तन कराने और दिल्ली सरकार पर कब्ज़ा करने के लिए एक सोची-समझी साज़िश को रिमोट कंट्रोल से अंजाम देने की कोशिश की.
इस तख़्तापलट के बाद मिश्रा को दिल्ली के नए मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने और विश्वास को पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक बनाने की योजना थी. कुछ विधायकों और मिश्रा के दफ्तर में स्पेशल ड्यूटी पर तैनात एक युवा ऑफिसर ने केजरीवाल को समय रहते इस बारे में आगाह कर दिया, जिसके बाद मुख्यमंत्री ने तेजी से चाल चलते हुए तख़्तापलट की इस कोशिश को नाकाम कर दिया.
एक विधायक ने केजरीवाल की मौजूदगी में विश्वास को फोन किया. विश्वास ने इस विधायक से कहा कि उनके साथ पहले ही 34 विधायक हैं, जो नेतृत्व परिवर्तन के लिए काफी हैं और विधानसभा में बहुमत पाने के लिए सिर्फ दो और विधायकों की दरकार है.
निश्चित तौर पर यह एक काफी बढ़ा-चढ़ाकर किया गया दावा था, क्योंकि इनमें से ज़्यादातर विधायक किनारे बैठकर यह देखने का इंतज़ार कर रहे थे कि कपिल मिश्रा अपने खेल में कितनी दूर तक कामयाब होते हैं. जल मंत्री के दफ्तर में तैनात ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी (ओएसडी) ने भी केजरीवाल को कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां दीं.
इन सबूतों से लैस होकर केजरीवाल ने जब विश्वास को तलब किया, तब विश्वास ने तत्काल इस बात से इनकार किया कि वे ऐसी किसी तख़्तापलट की कोशिश का हिस्सा हैं. एक बार जब विश्वास ने कदम पीछे खींच लिए, तब पूरी साज़िश सामने आने लगी और 34 विधायकों में से ज़्यादातर ने केजरीवाल के प्रति वफादारी की शपथ ली.
संयोग से इस घटना के ठीक बाद ओखला से विधायक अमानतुल्लाह ख़ान ने विश्वास के उन्हें पार्टी में फूट डालने के लिए संपर्क करने का मुद्दा उठाया था. अमानतुल्लाह पार्टी की पीएसी (पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी) के सदस्य भी थे. उनका यह भी आरोप था कि केजरीवाल सरकार को गिराने की इस साज़िश में चार विधायक और एक मंत्री भी शामिल थे.
हालांकि ख़ान को पहले पीएसी से निकाला गया और उसके बाद पार्टी से, वहीं कुमार विश्वास को राजस्थान में पार्टी इंचार्ज बना दिया गया. पार्टी के सूत्र बताते हैं कि यह संकट अब ख़त्म हो चुका है.
पर यह कहा जा रहा है कि केजरीवाल ऐसे किसी मुगालते में नहीं हैं कि उनकी मुसीबतों का अंत हो गया है. उनका मानना है कि यह जीत अस्थायी है. उनके नज़दीकी सूत्रों के मुताबिक केजरीवाल को इस बात का पक्का यकीन है कि केंद्र और भाजपा नेतृत्व मिलकर पार्टी के भीतर विद्रोह कराने की कोशिश आगे भी करते रहेंगे. ठीक वैसे ही, जैसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह असम और ओडिशा समेत कई दूसरे राज्यों में करते रहे हैं.
यूपी विधानसभा और दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा को मिली ज़बरदस्त जीत के बाद केजरीवाल ज़्यादा कमज़ोर नज़र आ सकते हैं. अवसरवादी नेताओं में भाजपा के नज़दीक जाने की प्रवृत्ति पहले की तुलना में कहीं ज्यादा नज़र आ रही है.
वैसे ही दिल्ली में पिछले दरवाजे से चलाए जा रहे उप-राज्यपाल के शासन ने मुख्यमंत्री के हाथ जकड़ रखे हैं. महत्वपूर्ण फाइलों को उनके या दूसरे मंत्रियों के सामने रखने की जगह उन पर सीधे उप-राज्यपाल के दफ्तर से फैसला लिया जाता है.
निश्चित तौर पर इसने ‘आप’ के भीतर ही तख़्तापलट कराने के लिहाज से भाजपा को आदर्श स्थिति मुहैया कराई है. यह ‘आप’ को तोड़ने और विधायकों को लालच देकर पार्टी में मिलाने की कोशिश करने में अपने हाथ गंदे करने से कहीं बेहतर विकल्प है.
यह रणनीति केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति पैदा कर सकती है. लेकिन दूसरी तरफ अगर ‘आप’ के अंदर ही टूट-फूट होती है, तो इसे अपने कुनबे को संभाल कर रखने में केजरीवाल की नाकामी के तौर पर देखा जाएगा.
ऐसा लगता है कि नगर निगम में भाजपा की जीत के बाद केंद्र ने वैसे कुछ मामलों को आगे न बढ़ाने का फैसला किया है, जो इन चुनावों तक महत्वपूर्ण थे. उदाहरण के लिए केंद्र के लॉ ऑफिसर ने कोर्ट में यह संकेत दिया कि उप-राज्यपाल ‘आप’ पर दिल्ली सरकार का 97 करोड़ का फंड लौटाने के लिए ज़ोर नहीं डालेंगे, जिसका इस्तेमाल ‘आप’ द्वारा राजनीतिक प्रचार के लिए किया गया था.
केंद्र के लॉ ऑफिसर ने कहा है कि यह बस एक सलाह थी न कि आदेश. केंद्र की इस मुद्रा से लगता है कि वह आप के लिए मुसीबत पैदा करने वाले के तौर पर नज़र नहीं आना चाहता. इसकी जगह केंद्र ऐसी छिपी हुई रणनीति पर निर्भर करना पसंद करेगा, जिससे आप भीतर से ही टूटकर बिखर जाए.
सवाल उठता है कि यहां से केजरीवाल की रणनीति क्या होगी? सूत्रों के मुताबिक वे थोड़ा समय लेना चाहेंगे और दिल्ली में पार्टी के ऊपर अपनी पकड़ को मजबूत करने की कोशिश करेंगे. यह इतना आसान नहीं होगा क्योंकि उन्हें पता है कि भाजपा उनकी छवि को नष्ट करने पर आमादा है और इस बात से कांग्रेस भी खुश है.
मिश्रा द्वारा लगाया गया आरोप कि केजरीवाल ने एक अन्य मंत्री से 2 करोड़ रुपये लिए, जो सीधे तौर पर केजरीवाल की छवि पर हमला है. निश्चित तौर पर केजरीवाल ने इस आरोप का यह दावा करते हुए सफलतापूर्वक मुकाबला किया है कि उनके ऑफिस में लगे एक दर्ज़न से ज़्यादा कैमरों में से किसी में भी उस दिन कपिल मिश्रा की एंट्री का कोई रिकॉर्ड नहीं है, जिस दिन मिश्रा ने पैसे के लेन-देन को अपनी आंखों से देखने का दावा किया है.
केजरीवाल फिलहाल अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्होंने पहले भी दिखाया है कि संकट में घिरने पर वे अच्छा मुकाबला करते हैं. क्या वे फिर से अपना अतीत का प्रदर्शन दोहराने में कामयाब होंगे?
आप के शीर्ष नेतृत्व को इस बात का एहसास हुआ है कि उसे हर वक़्त मोदी पर निजी हमले करने की अपनी रणनीति बदलनी होगी और उन मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान लगाना होगा, जहां भाजपा कमज़ोर हो.
अन्य कांग्रेस विरोधी विपक्षी दलों के साथ मिलकर ऐसी कोशिशों का समन्वय करना और एक साझा मोर्चा बनाना भी केजरीवाल की रणनीति का एक हिस्सा हो सकता है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक ‘आप’ अन्य राजनीतिक दलों के साथ तालमेल बनाकर बेरोजगारी और कृषि संकट जैसे बड़े मुद्दों को शक्तिशाली तरीके से उठा सकती है.
पार्टी ने इस दिशा में काम शुरू करते हुए दूसरे दलों से संपर्क साधना शुरू कर दिया है. लेकिन आप को यह भी पता है कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा विभिन्न विपक्षी दलों, जिनमे ‘आप’ भी शामिल है, के नेताओं के ख़िलाफ़ चलाई जा रही जांच विपक्ष की एकता की राह में बड़ी अड़चन है.
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