गिरीश कर्नाड आज़ादी के बाद आई पहली पीढ़ी के उन कलाकारों में से थे, जिन्होंने भारतीय रंगमंच के लिए सबसे गंभीर और चिरस्थायी नाटकीय लेखन की नींव रखी.
मैं पहली बार अप्रैल 1986 में शिकागो में हमारे एक करीबी मित्र एके रामानुजन के घर पर गिरीश कर्नाड से मिली थी, जिन्होंने उस महीने शिकागो विश्वविद्यालय परिसर में फेस्टिवल ऑफ इंडिया साहित्यिक सम्मेलन का आयोजन किया था.
मेरी पीढ़ी के कई अन्य शहरी भारतीयों की तरह जिनकी रुचि गंभीर सिनेमा में थी, मैं भी कर्नाड को पट्टाभि राम रेड्डी की संस्कार (1970), श्याम बेनेगल की निशांत (1973) और मंथन (1976) के मुख्य अभिनेता के रूप में जानती थी.
उस समय 18वीं शताब्दी के ब्रिटिश थियेटर पर पीएचडी कर रही छात्रा के रूप में मैं थोड़ा-बहुत ही सही लेकिन यह जानती थी कि उन्होंने तुगलक (1964) और हयवदन (1971) जैसे बेहतरीन नाटक लिखे थे] लेकिन मैंने उनमें से कोई भी नहीं पढ़ा था.
1986 में उस शाम उनसे हुई बातचीत उनके (कर्नाड) काम को लेकर तो नहीं हुई थी, लेकिन भारतीय साहित्य पर बातचीत जरूर हुई थी.
मैंने और मेरे पति विनय धारवाड़कर ने कर्नाड और रामानुजन से 1987-1988 में कई बार उनसे बात की, उस समय वह शिकागो विश्वविद्यालय में फुलब्राइट फैलो थे.
1990 के आसपास जब मैंने थियेटर और अन्य मीडिया में कर्नाड के काम पर व्यवस्थित तरीके से ध्यान देना शुरू किया, तब मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि कैसे वह धीरे-धीरे मेरे जीवन को एक स्कॉलर और आलोचक के रूप में बदल देगा.
उसके बाद आधुनिक और समकालीन भारतीय रंगमंच (एंग्लो-अमेरिकन परंपराओं के अलावा) विषय पर मेरी विशेषज्ञता बढ़ती गई.
मैं यह भी नहीं सोच सकती थी कि मित्रता और शिष्य का यह मिलन लंबे समय तक चलेगा. यह एक पेशेवर अकादमिक के लिए दुर्लभ अनुभव था.
30 साल के दौरान लेखों, साक्षात्कारों, व्याख्यानों, सम्मेलन प्रस्तुतियों और विशेष रूप से सामूहिक नाटकों (3 खंड, 2005-2017) के परिचय में मैंने विभिन्न बिंदुओं पर बार-बार कर्नाड के बहुआयामी कलात्मक जीवन का जायजा लिया और उनके विकसित होते करिअर के विभिन्न पहलुओं पर लिखा.
अब उनके जाने से जीवन का एक चक्र पूरा हो गया. उनके निधन की खबर सुनने पर बड़ी तेजी से उनकी उपलब्धियां मेरे जेहन में घूम रही थीं.
कर्नाड आजादी के बाद की उस पहली पीढ़ी के भारतीय कलाकारों में से एक थे, जिन्हें हर चीज पर पुनर्विचार करना पड़ा.
दूरस्थ से लेकर हालिया घटनाओं, परंपराओं से लेकर आधुनिकता के साथ परंपराओं का संबंध, अंग्रेजी सहित प्रमुख भारतीय भाषाओं के बीच संबंध, प्रिंट और परफॉर्मेंस की आत्मनिर्भरता, थ्योरी की भूमिका और कला की आलोचना, रंगमंच और फिल्म में प्रतिनिधित्व की परंपरा को बरकरार रखना, कलात्मक गंभीरता और व्यावसायिक सफलता के प्रतिस्पर्धा के दावों को पूरा करना शामिल थे.
इस पीढ़ी के लिए उनका विशिष्ट योगदान यह रहा कि उन्होंने अपने पूरे करिअर में मिथक, इतिहास, लोककथाओं और समकालीन शहरी जीवन, इन चार कथात्मक संसाधनों का बखूबी इस्तेमाल किया.
हालांकि, कर्नाड ने अतीत के आख्यानों में डूबे रहने के बावजूद खुद को वर्तमान में मजबूती से तैनात रखा, ताकि स्पष्टता से अतीत और वर्तमान का सामंजस्य रह सके.
ययाति (1961), द फायर एंड द रेन (1994), और बाली (2002) जैसे नाटकों में मिथक दो तरह से काम करते हैं. एक ठेठ कथा के रूप में, जिसका नवीकरण किया जा सके और दूसरा अर्थों की उस संरचना के रूप में, जिसमें एक्सप्लोर करने की गुंजाइश हो क्योंकि यह यथार्थवाद की कमी और समकालीनता की जरूरत के बिना दार्शनिक प्रतिबिंबों का अवसर प्रदान करता है.
नाटक के स्वरूप की मांग है कि मिथक को भी मानवीय होना चाहिए और इसकी पूरी रूपरेखा पूरी तरह से पारस्परिक संबंधों के इर्द-गिर्द होनी चाहिए.
कर्नाड के इतिहास से संबंधित नाटक जैसे 1964 में तुगलक से लेकर 1989 में ताले-डंडा और 1997 में टीपू सुल्तान अधिक प्रमुख उदाहरण हैं कि किस तरह अतीत और वर्तमान एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.
हरेक नाटक लिखित ऐतिहासिक रिकॉर्ड को बयां करते हैं, हरेक नाटक अपने वास्तविक किरदारों के लिए काल्पनिक समकक्षों या काल्पनिक संरचनाओं का सृजन करते हैं, हरेक नाटक अपने दर्शकों और पाठकों को यह पूछने के लिए प्रेरित करता है कि इतिहास को कैसे लिखा जाए, प्रसारित किया जाए और अतीत को कैसे स्वीकार किया जाए.
हर नाटक अपने दर्शकों को यह देखने के लिए भी प्रोत्साहित करता है कि कैसे संस्थागत इतिहास हमारे इतिहास के ज्ञान से अलग है.
ये नाटक इतिहास, इतिहास विद्या और काल्पनिक संरचनाओं के बीच वैचारिक और प्रासंगिक संबंध बनाते हैं और इतिहास की समग्र बातचीत में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करते हैं. इसलिए ये नाटक स्वतंत्रता के बाद की अवधि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं.
कर्नाड द्वारा लोककथाओं का इस्तेमाल समान रूप से प्रासंगिक था. विजय तेंदुलकर, महेश एलकुंचवार और महेश दत्तानी जैसे नाटककारों के सामाजिक-यथार्थवादी शहरी नाटकों में, महिला पात्रों का अनुभव उत्पीड़न, हाशिए, शोषण, हिंसा और यहां तक कि मौत का है, लेकिन इसके विपरीत हयवदन और नगा-मंडल (1987) जैसे नाटकों में महिलाएं इच्छा का प्रतीक हैं, समाज ने उसके लिए जो निर्धारित किया हुआ है, वह उससे अलग चाहती है.
महिलाओं में इस तरह की इच्छा नारीवादी व्यवहार के नियमों का उल्लंघन करती है और योग्यता के स्थापित विचार को बाधित करती है.
कर्नाड द्वारा बनाए गए लोक संस्कृति की दुनिया में महिलाओं के पास बोलने, काम करने और पुरुषों के भाग्य को नियंत्रित करने की शक्ति है और वे एक पुरस्कार हैं, जिसके लिए पुरुष चाहे अनचाहे खुद को समर्पित कर देते हैं.
विभिन्न प्रकार के शहरी डायस्टोपिया, जिसे वह यथार्थवादी समकालीन नाटकों जैसे ब्रोकन इमेजेज (2004), वेडिंग एल्बम (2009) और बॉयल्ड बीन्स ऑन टोस्ट (2014) में इस्तेमाल करते हैं. इनमें वह ग्रामीण इलाकों की तुलनात्मक स्वतंत्रता को रेखांकित करते हैं, यहां तक कि वे नवउदारवादी शहर ने ऐसी आज़ादी के न होने पर क्षोभ भी प्रकट करते हैं.
लगभग 60 वर्षों में अपने बहुमुखी कथा स्रोतों से कर्नाड ने नाटकीय लेखन में स्वतंत्रता के बाद के अपने साथियों के बीच अपनी खास पहचान बनाई, लेकिन कई जटिलताओं के कारण वह अलग भी खड़े दिखाई दिए.
उदाहरण के लिए फिल्म, टेलीविजन और वीडियो क्षेत्र में जीवन में व्यस्त होने के बावजूद उन्होंने अपने अनुभव व योग्यता के आधार पर नाटकों का लेखन किया और अपनी साहित्यिक पहचान भी बनाई.
एक अभिनेता, निर्देशक, स्क्रीनप्ले एवं लेखक, हाई-प्रोफाइल प्रशासक और सार्वजनिक शख्सियत के रूप में कर्नाड तीन दशक से अधिक समय तक सेलिब्रिटी रहे, लेकिन 1999 में भारत के दो प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार और सरस्वती सम्मान से सम्मानित होने के बाद उन्हें साहित्यिक जगत में भी उतनी हो गंभीरता से लिया जाने लगा.
उन्होंने लेखक के नाते उनकी जिम्मेदारी और बाजार की मांग के बीच में बेहतरीन तालमेल भी बैठाया. कर्नाड की असाधारण प्रतिभाओं की सूची यहां समाप्त नहीं होती है.
माइकल मधुसूदन दत्त (1828-1873) के बाद वह आधुनिक और समकालीन भारतीय रंगमंच में सही मायने में एकमात्र द्विभाषी नाटककार हैं. उन्होंने कन्नड़ में किए गए अपने सारे कामों का अनुवाद अंग्रेजी में किया.
इसके विपरीत वह अपने नाटकों की प्रकृति और संदर्भों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी करते थे. वह हमारे समय के बहुभाषी प्रदर्शन करने वाले व्यक्ति थे और वह एक ऐसे बुद्धिजीवी थे, जो अपनी सुरक्षा दांव पर लगाकर लोगों के लिए सच बोलते थे.
‘थियेटर इन इंडिया’ नामक एक निबंध में कर्नाड ने भारतीय थियेटर में अपनी पीढ़ी के समक्ष पेश चुनौतियों को बेहतरीन तरीके से पेश किया. यह निंबध पहली बार डेडलस नाम पत्रिका में प्रकाशित हुआ था.
उन्होंने सामान्य तौर पर अपने नए नाटकों, अपने काम और आधुनिक एवं समकालीन भारतीय थियेटर की दिशा पर लिखने के लिए समाचार पत्र और पत्रिकाओं में साक्षात्कार और निबंधों का उपयोग किया.
यह भी महत्वपूर्ण है कि कर्नाड के अपने नाटकों का कन्नड़ और अंग्रेजी में अनुवाद केवल उस प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा है जिसके द्वारा उनके काम को भारत के भीतर और बाहर प्रसारित किया गया.
फिर, तुगलक और हयवदन जैसी कृतियों ने हर प्रमुख भारतीय भाषा के साथ-साथ यूरोपीय भाषाओं जैसे हंगेरियन, स्पेनिश, पोलिश और जर्मन में उनके काम को बहुभाषी पहचान दी.
जब मैं कर्नाड के उन कामों को एक-एक कर गिनती हूं, जिन्होंने समकालीन भारतीय रंगमंच और संस्कृति को बदल दिया, मैं जानती हूं कि ऐसा करके उनको अनिश्चितकाल तक श्रद्धांजलि दी जा सकती है.
मैंने उनके संग्रहित नाटकों के वॉल्यूम तीन का परिचय लिखकर उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दी है.
उनका कोई भी रचनात्मक काम हो, फिर चाहे वह मिथक हो या इतिहास, या लोककथा या समकालीन जीवन, यथार्थवाद और यथार्थवाद विरोधी माध्यम, भाषा के रूप में अंग्रेजी या कन्नड़ या फिल्म एवं टेलीविजन हो, उनका ड्रामा, थियेटर और परफॉर्मेंस में हमेशा चिरस्थायी करिअर रहा. आजादी के बाद के नाटकों में गिरीश कर्नाड की लार्जर दैन लाइफ मौजूदगी यही रही कि वह इन सभी विधाओं और माध्यमों से जुड़े रहे, कई तरीकों से समकालीन भारतीय और विश्व थियेटर को समृद्ध करते रहे.
(अपर्णा भार्गव धारवाड़कर विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और इंटरडिसिप्लिनरी थियेटर स्टडीज की प्रोफेसर हैं. उन्होंने थियेटर में गिरीश कर्नाड के काम पर कई लेख लिखे हैं.)
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